"नीरू भंगन" - एक कहानी

आज के विचार

("नीरू भंगन" - एक कहानी )

हरि न भजे सोई भँगी.....
( श्रीकबीरदास )

उसका नाम था नीरू भंगन........ थी वह वृन्दावन की  ।

पर थी वह  बड़ी भक्ता  .....नित्य भजन करती .....उसनें  अपनें  ठाकुर जी  घर में बैठा रखे थे ...........सुबह ही यमुना जी जाती थी ......हाँ  4 बजे ही ......ठाकुर जी का कलसा अलग ही था उसका .......जल भरकर लाती थी ..........और  बड़े प्रेम से  ठाकुर जी की सेवा.........फिर  भोग ......फिर  गाती थी  ठाकुर जी के सामनें ..........गाते हुए  रोती थी .....भाव में ......उसके हृदय  से बस प्रेम ही उमड़ता रहता था ।

पुरानी किताबें  कहती हैं  ये शुद्र थी ......हाँ भंगन  ........पर  प्रेम नें जात पांत को कब आदर दिया .....बताइये   !  

ये प्रेम ही तो करती थी.........भगवान से .......हाँ इसके भगवान का नाम था ........कन्हैया  ।

अब बताइये .......कन्हैया से जो प्रेम करेगा ........वह शुद्र होगा  ?

पर फिर भी समाज  इसे शुद्र ही कहता था ...............अजी ! छोड़िये  समाज का क्या  ........बात हो रही है  कन्हैया की  ।

अब इस नीरू भंगन को    कन्हैया तो चाहता है ........बहुत चाहता है .....फिर क्या परवाह   कि समाज क्या कहता है  !

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बहन !  मेरे कलसा में  छींटा न पड़े ...जरा ध्यान देना !

ओह !    यमुना के किनारे   नीरू भंगन  गयी थी ......जल भरनें  सुबह के 4 बजे ........स्नान इत्यादि करके ........।

यमुना जी में  एक पण्डितानी  भी आती थी ...........उसको ही कह दिया था   इस  नीरू भंगन नें .........

बहन ! मेरे कलसा में तेरे जल का छींटा न पड़े  ।

बस फिर क्या था..........लाल पीली हो गयी  वो पण्डितानी तो  ।

तू भंगन !  हमें सिखाती है .............मेरे जल के छींटे से  तेरा कलसा अपवित्र हो जाएगा !      

देख ! बहन !  मेरी बात का बुरा मत मानना .........बात यहाँ मेरी तेरी नही है ......बात है  ये कलसा मेरे ठाकुर जी का है ...........उनकी सेवा के लिए मै जल ले जा रही हूँ ........और पंडितानी  तू नहायी भी तो नही है ना ?

ये बात ऐसी हुयी  जैसे  आग में घी का काम किया हो  ।

मै तुझे देख लुंगी ...........पंडितानी  पैर पटकते हुए गयी  ।

अच्छे से देख लेना है ......रोज आती हूँ  यहीं .........नही तो मेरे घर आजाना .........नीरू भंगन   सहजता से बोलती गयी ।

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देखो जी !   मेरे गाँव में हिम्मत नही होती थी .....हम ऊँचे जात के लोगों से कोई बोल भी जाए .........

हद्द है  तुम्हारे वृन्दावन में .......एक भंगन  !    हम   ऊँचे लोगों से कैसी बातें करती है .............।

उस पण्डितानी नें  घर आते ही  अपनें पति के कान भरनें शुरू कर दिए थे ..........देखो जी !    अगर ऐसे ही होता रहा  तो  मै न्यायालय चली जाऊँगी.......और गुहार लगाउंगी  कि हम लोगों को ये परेशान करती है .......गाली  देती है ......उल्टा सीधा बोलती है ..........।

पण्डित जी  सीधे सादे थे .........अरे ! कोई बात नही ......तू भी क्यों मुँह लगती है ........ऐसों के  ...........पण्डित जी समझानें लगे थे ।

घुन घुनकरके  रह  गयी  वो पण्डितानी  आज  तो ........पर जल्दी ही  फिर दोनों टकराये  जमुना जी में  दूसरे ही दिन  ।

देख ! पण्डितानी !   तू होगी  बड़े जात की ...........फिर  तू क्यों आती है  मुझ से ही चिपकनें ................नीरू भंगन  नें   आज फिर समझाया  उस पण्डितानी को ........क्यों की  जानबूझकर  अपने  घड़े का  जल  उसके कलसे में छींट दिया था   पण्डितानी नें   ।

अरे ! हट्ट !   बड़ी आई    .....अछूत कहीं की ...........।

अरे !  तेरा मुँह देखकर तो मै ही अछूत हो जाती हूँ ..........

नीरू नें भी कहना जारी रखा  ।

कितनें क्रोध,  द्वेष, ईर्श्या , घृणा से भरी हुयी  है तू ..............

नीरू समझानें में उतर आई थी ..............मत कर पण्डितानी तू ये सब ।

देख !  सही में अछूत तो  वही है ......जो इन सब   से भरा है .......।

मेरे लिए तू पूज्य है ..........मेरे हृदय   में तेरे लिये सम्मान है ......पर  तू ऐसे  रुग्ण चित्त को लेकर  बैठी है ......कितना क्रोध करती रहती है तू ।

अब तुम लोग  हम को समझाओगे  ?  पण्डितानी  का अहंकार उसे समझनें दे  तब ना  !

नीरू भंगन नें बाद में इतना ही कहा .........मुझे कोई लेना देना नही है तुमसे .......मै तो बस   अपनें ठाकुर जी के कलसा को  .........पंडितानी बात मेरी नही है ......बात है मेरे ठाकुर जी की ........तू नहाईं नही है .....मै कैसे  अपनें ठाकुर जी के कलसा को  !

अरे जा!   चली  बड़ी  पुजारन बननें ......................

क्रोध अच्छी बात नही है पण्डितानी !       नीरू भंगन  ये कहती हुयी मुस्कुराते हुए चल दी  थी ।

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न्यायाधीश महोदय !   वो भंगन है ........और हम लोग पण्डित हैं .....

वो आये दिन मेरी पत्नी को गाली देती रहती है ............अब हम उससे लड़ भी तो नही सकते  ।

पति  को जबरदस्ती  न्यायालय भेज दिया था .......पण्डितानी  नें ।

सिपाहियों को भेज दिया    न्यायाधीश नें ......जाओ उन दोनों को ही पकड़ कर यहाँ लाओ  ।

दूसरे दिन सुबह ही सुबह   न्यायालय से  दो सिपाही गए  ......उन दोनों को लानें  ।

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मेरे नाली  में कूड़ा डालती है .................सारी गन्दगी मेरे यहाँ ।

देखती हूँ  मै तुझे ..........ये पण्डितानी है  ? 

सिपाही देख रहे हैं .........सुबह के समय  पड़ोसन से लड़ रही है .....पण्डितानी   ।

ले  तेरे घर के आगे ही कूड़ा डाल देती हूँ ..........अपनें हाथों से उठाकर  नाली की गन्दगी  पड़ोसन के दरवाजे पर डाल दी थी उस पण्डितानी नें ।

सिपाही देखते रहे ........भंगन तो ये लग रही है  ।

गए  उस  नीरू भंगन के घर  ।

ओह !  ये क्या  !      

सुगन्ध से उसका घर महक रहा था ...........धूप दीप जलाकर  वो  आरती कर रही थी ...........अपनें कन्हैया की ..........।

साफ़ सुथरे कपड़े पहनें थे ..............वो नाच रही थी ......उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ............कन्हैया !   कन्हैया !    उसकी पुकार हृदय से निकल रही थी .........वो पूजा पाठ कुछ नही जानती थी .....पर  वो जो भी कर रही थी .........वो हृदय से कर रही थी  .....उसे कोई मतलब नही था .....दुनिया से .........उसे मतलब था  अपनें कन्हैया से ........।

दोनों को ही पकड़ लिया था सिपाहियों नें ..............

इन दोनों में से कौन  भँगी है .....और कौन पण्डितानी  ?

ये प्रश्न किया था न्यायाधीश नें  ।

उन दोनों सिपाहियों में से एक नें कहा ..........साहब !  आप भले ही कुछ कहें ...........पर हम लोगों नें जो देखा है ....उसके आधार पर तो भंगन ये है ....जो अपनें आपको पण्डितानी कह रही है ........

और ये  ?   

न्यायाधीश नें    नीरू भंगन की और इशारा करके पूछा ............

साहेब !  ये तो पण्डितानी से  भी ऊँची है ..........इसके मन में न क्रोध है ...न  द्वेष ....न  किसी के प्रति राग है न द्वेष है ...........ये भक्ता है ...........ये किसी का अहित कर ही नही सकती ................

इसलिये  साहेब ! मेरी दृष्टि में  तो ............ये  पूज्य है ......वन्दनीय है .....ये कहते हुए    सिपाही  भी   नीरू भंगन के पैर में गिर गया था ।

क्यों की उसकी भक्ति ये लोग देख चुके थे

पर नीरू .......वो तो बेचारी .....नही साहेब !   गलती मेरी है ......इस पण्डितानी की  कोई गलती नही है ...........यही कहे जा रही थी ।

न्यायाधीश भी  नीरू को देखकर  आनन्दित हो रहे थे .....कितनी शान्त और  कितनी गम्भीर थी वो ....................।

"व्यास नीच सब तर गए , राम चरण लवलीन
जाती के अभिमान से डूबे बहुत कुलीन "

अब ये तो सन्त की वाणी है ........इसको आप काट तो सकते नही हैं ।

Harisharan

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