आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 9 )
तात जनक तनया यह सोई...
( रामचरितमानस )
******* कल से आगे का प्रसंग -
पता नही क्यों मेरी नींद दो तीन दिन से उड़ ही गयी थी ........
मै जनकपुर में उन दिनों कहाँ सोती थी .............
झरोखे से चन्द्रमा की चाँदनी छिटक रही थी.....मै वहीं लेटी हुयी थी ।
अजीब स्थिति थी मेरी उन दिनों ...............आँखें खोलूं तो आकाश चन्द्र दिखाई देता .....और बन्द करूँ तो श्रीरामचन्द्र ।
सखियों नें मुझे जो जो बताया .......उसी के आधार पर मेरा मन श्री राम के स्वरूप को गढ़ रहा था .............श्री राम ! आहा !
( एक लम्बी साँस लेती हैं ....सीता जी )
पता नही इस नाम में ऐसी क्या शक्ति है ..............लगता तो ऐसा है कि ये कोई साधारण नाम न होकर ...............कोई सिद्ध मन्त्र है ।
वो अयोध्या के राजकुमार ..........................
क्या है ऐसा इन राजकुमार में........जो मै केवल नाम मात्र सुनकर उनका वर्णन सुनकर - अपना हृदय दे बैठी हूँ ............।
अब रही राजकुमार की बात .......तो जब से मेरे पिता जनक जी ने प्रतिज्ञा की है ............कि जो पिनाक की प्रत्यञ्चा चढ़ा देगा ....उसे ही मै अपनी बेटी दूँगा ।
देश विदेश के राजा , राजकुमार .....सब तो आरहे हैं मेरे पिता की प्रतिज्ञा सुनकर ...............
पर राजकुमार आएं गयें ...........सीता को क्या परवाह !
हाँ "बेचारा" जरूर मेरे मुख से निकलता था ...................
और मन में उन राजकुमारों के प्रति ............दया भी आजाती थी ये सोचकर कि बेचारे पिनाक को तोड़ नही पाये ।
अकारण मुस्कुराना , अकारण आँसुओं का आजाना ...........ये सब प्रेम के ही तो लक्षण हैं ................क्या मुझे प्रेम हो गया ? सीता जी डरती हैं ...........नही नही .........
ये चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है ..........मेरे राम भी ऐसे ही होंगें ।
ऐसा चिन्तन चलता ही रहा सुबह के 4 बजे तक .................
फिर तो उठना ही था ........सो मै उठ गयी .....और स्नानादि से निवृत्त होकर ..........अपनें माता पिता के पास आई ।
मेरी लाड़ली ! अब तुम बगीचे में जाओ .....पुष्प वाटिका में ।
वहाँ जाकर गौरी मन्दिर में भगवती का पूजन करना .......
और हाँ ...............जो चाहिये माँग लेना .............आज तुम्हारी इच्छा पूरी होगी ही ...................
मैने सिर झुकाकर बात मान ली.......पुष्प वाटिका मै चलनें के लिए ।
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मेरी पुष्प वाटिका ..................बहुत सुन्दर वाटिका है ।
उस बाग़ के बीचों बीच ......एक सुन्दर सरोवर है ..........
उसी में जाकर मेरी बहनें ..........उर्मिला, माण्डवी, श्रुतकीर्ति, मेरी सखियां पद्मा , चारुशीला, चन्द्रकला इत्यादि सबनें जल का सेचन किया था .........फिर गयीं गौरी भगवती का पूजन करनें ।
बड़े अनुराग से पूजन किया था गिरिजा भगवती का ................अपनी आराध्या को भोग भी लगाया था ...........फिर आरती की ।
सिया जू ! देखिये ना ! वो सखी कैसी दौड़ी दौड़ी आरही है ।
मैने दूर से देखा था उस सखी को ........उसकी साँसें फूली हुयी थीं ....वो लड़खड़ा भी रही थी ......वो कहाँ गिर पड़ेगी ये भी पता नही ।
अब जैसे तैसे हमारे पास आगयी थी ..................
उसकी दशा ! विचित्र दशा बना ली थी उस सखी नें ।
उसके नेत्रों से आँसू बह रहे थे ............उसका शरीर काँप रहा था .......लाल मुख मण्डल हो गया था उसका ......पर मुस्कुरा रही थी ।
अरे ! तेरी ये दशा कैसे हुयी ? सखी क्या हुआ ?
मेरी सखियों नें ये प्रश्न एक साथ कर दिए थे ...........।
राजकुमार आये हैं ? वही राजकुमार जिन्होनें नगर में हल्ला मचा रखा है ........वही अयोध्या के राजकुमार ............जिनका नाम है राम ....और छोटे का नाम है लक्ष्मण ..............।
ओह ! मेरा हृदय धक्क कर गया ..................उस सखी की जो दशा थी वो तो थी ही .....पर अब मेरी दशा बिगड़नें वाली थी ।
मैने तुरन्त अपनी प्रिय सखी चन्द्रकला को आगे किया ............
मै उसके पीछे हो गयी .............मै अपना प्रेम प्रकट नही करना चाहती थी .......प्रेम जितना छुपा रहे उतना ही अच्छा होता है ..........।
मेरी सखियां चली थीं .......और मै अपनें हृदय को सम्भाले चुपचाप चल रही थी ..................।
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आप नही जा सकते बाग़ में ...................वो माली भी विचित्र था .....रोक दिया था राजकुमारों को बाग़ में प्रवेश करनें से ।
देखो ! भद्र ! हमें जानें दो ...........हमें विलम्ब हो रहा है ........गुरु जी के लिये फूल लेनें हैं ...........और पूजा समाप्त हो गई तो फूल ले जानें का मतलब क्या हुआ !
हे राजकुमार ! पहली बात तो ये है कि ये बाग़ पुरुषों का नही है ....
ये मात्र महिलाओं का ही बाग़ है ....इसमें मात्र महिलाओं का ही प्रवेश है .......इसलिये आपको जानें के लिये हम कैसे कहें ।
हे भद्र ! बगीचा तो आप मालियों का ही होता है ......आप ही इन पौधों को सींचते हैं ...........अपने पुत्रों की तरह इनका सम्भाल करते हैं .....इसलिये नियम तो आपके ही चलेंगें इस बाग़ में ...........
हे भद्र ! आप हमें जानें की अनुमति दें.....श्री राम नें ये बात कही थी ।
हम सब देख रही थीं ..............झुरमुट में से .....मुझे श्रीराम का मुखारविन्द नही दिखाई दे रहा था ..........हाँ उन दोनों की वार्ता अवश्य सुनाई दे रही थी ।
आप बहुत कोमल हैं .........हे राजकुमार ! कांटे गढ़ जायेंगें ..........
और इतना ही नही ..........आपके मुखारविन्द को ही फूल समझ कर कहीं भौरें आपके मुख मण्डल पर मंडरानें लगे तो ?
मुस्कुराये थे श्री राम ...........मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं .....मै तो आँखें बंदकर खड़ी रही .....मेरा हृदय बहुत तेजी से धड़क रहा था ।
हे वाटिका के रक्षक ! हमें जानें दो ................
भैया ! आप भी इस व्यक्ति को इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं ......राजा की आज्ञा है ..........हम कहीं भी जा आ सकते हैं .......फिर इस आदमी से बहस की आवश्यकता ही क्या ?
नही लखन ! वाटिका का राजा तो ये माली ही होता है ..............
आहा ! कितनी मधुर आवाज ! और कितनी सही बात !
मेरी सखियाँ मुझे बता रही थीं ...................मै श्री राम की बातों को सुन रही थी ...........इतनी मिठास तो मधु में भी नही होती ।
अच्छा ! आप जाइए ...............माली नें मुस्कुराते हुए कहा ।
पर .......आप सरोवर में मत उतरियेगा ........कमल को लेनें के लिए .......काँटे हैं ....और कीचड़ भी है .................थोड़ी सावधानी से ।
धन्यवाद ! सिर झुकाकर माली का धन्यवाद किया श्री राम नें ।
ओह ! कितनी नम्रता ....विनम्रता ....................
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मैने देखा...............वो मेरे सामनें थे .....और मै उनके सामनें .......।
मै जड़वत् हो गई थी....................और वो भी मुझे अपलक नयनों से देखे जा रहे थे ।
उनके वो नयन ! कटीले नयन !
उनका वो मुख चन्द्र ..........साँवरा ...........उनके वो घुँघराले बाल ।
उनकी वो विशाल भुजाएं ....................हाथों में फूलों के दोना .....जिसमें गुलाब , गेंदा....जूही, पारिजात.......कमल ये सब भरे हुए थे .........पीला वस्त्र धारण किया था....... रेशमी पीला ।
मै तो देखती ही रह गयी..............पलकें न मेरी गिर रहीं थीं न उनकी ...............सारी सखियां मुझे छोड़ कर कहाँ गयीं मुझे पता नही ......बस हम दोनों ही थे वहाँ ।
थोड़ी देर के बाद उनके छोटे भाई कहीं से मोर के पंख को ले आये थे .....और वो जब माथे में अपनें बड़े भाई के पंख लगानें लगे ......तब उन्हें भी देह भान हुआ ....और मुझे भी ।
लखन ! ये है जानकी ! ..................
कौन जानकी भैया ? ..........मुस्कुराते हुए लखन नें पूछा था ।
जिसनें कारण ये समूचा जनकपुर सज रहा है .......देश विदेश के राजा महाराजा आये हुये हैं ......इन्हीं जानकी के स्वयंवर के लिए ही तो ।
पिनाक जो तोड़ देगा ना लखन ! उन्हीं के साथ इन राजकुमारी का विवाह होगा ..............।
वो बोले जा रहे थे .............मै उनको देखे जा रही थी ............मै मन्त्र मुग्ध सी थी .............मै सब कुछ भूल गयी थीं ।
पर लक्ष्मण ! मेरा मन चंचल हो रहा है .............पता नही क्यों ?
ऐसा आज तक नही हुआ ................हम रघुवंशी हैं लक्ष्मण ! हमारा मन हमारे वश में हुआ करता है ........पर आज मुझे ये क्या हो रहा है ।
मेरा मन बार बार इन राजकुमारी को देखनें का क्यों कर रहा है !
मेरा मन कह रहा है ......इन्हें देखता रहूँ .......इनको देखते हुए मै इनमें खो जाऊँ ...........नही नही ........लक्ष्मण ! ये कोई लौकिक सुन्दरता नही है ..........ये अलौकिक सुन्दरता है .....अलौकिक ।
अब मैने अपनी आँखें बन्द कर ली थीं ................मै डर गई थी ......कि कहीं आनन्द की अतिरेकता में मेरे प्राण न निकल जाएँ ..........
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सिया जू ! वो राजकुमार तो गए ................
जैसे ही मैने इतना सुना ................मेरी बन्द आँखें खुल गयीं .......
वो नही थे वहाँ ..........मै घबड़ाई .......इधर उधर देखनें लगी ।
तभी .........एक लता रन्ध्र से मैने देखा फूल तोड़ रहे हैं ...दोनों राजकुमार ..............
मै देखती रही ...........मुग्ध होती रही ।
तभी एक सखी नें ऐसी बात कह दी.....मेरी चिन्ता शुरू हो गयी थी ।
सिया जू ! देखो ! उन राजकुमार के माथे से पसीनें निकल रहे हैं .......
फिर सब हँसनें लगीं थीं ................फूल तोड़ते समय पसीनें आरहे हैं ......और जब पिनाक तोड़ेंगें तब ?
इनसे नही तोडा जाएगा पिनाक ...........देखो तो कितनें कोमल हैं ।
मैने जैसे ही ये सब सुना ...मै दौड़ी ......गिरिजा भगवती के मन्दिर में ।
मैने अपना माथा रख दिया था भगवती गिरिजा के चरणों में ...........
मेरे नेत्रों के जल नें ही चरणों का अभिषेक कर दिया था .........भगवती के चरणों का ।
माँ ! मेरी आज एक प्रार्थना सुन लो.....ये बड़े राजकुमार श्री राम मुझे वर के रूप में मिलें........मेरी इतनी आस पूरी कर दो माँ !
हे शिव की हृदयेश्वरी ! हे गिरिवर की राजदुलारी ! हे गजवदन की माते ! हे जगत जननी ! हे मात भवानी ! मेरे ऊपर कृपा करो ....मेरे ऊपर अनुग्रह करो ..........
मै हृदय से प्रार्थना कर रही थी ........कि तभी .....
मेरा बायाँ अंग फड़कनें लगा था .............
गिरिजा भगवती के विग्रह से ..........माला टूट के गिरी .....और सीधे मेरे गले में .........मैने सिर उठाया...........तो विग्रह मुस्कुरा रही थी ।
मै ख़ुशी के मारे झूम उठी थी ..................क्यों की जो माँगा था वो मुझे भगवती नें दे दिया था ................मै चली थी अब अपनें भवन की ओर ..........पर अब मेरा हृदय मेरे पास नही था .....वो तो ले जा चुके थे .....वो अयोध्या के बड़े राजकुमार ............उफ़ ।
शेष चर्चा कल ......................
Harisharan
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