आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - 10 )
सियमुख समता पाव किमि चन्द्र वापुरो रंक....
( रामचरितमानस )
****** कल से आगे का प्रसंग
मै वैदेही .........
क्या हो गया है मुझे ..............जब से पुष्प वाटिका से आई हूँ ........मन ही नही लग रहा .........लगता है मन को वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ले गए हैं ...............।
कभी छोटी छोटी बातों में हँसी आती है तो कभी किसी वस्तु को देखकर ही खो जाती हूँ .............किसी के पास बैठा नही जाता ।
माँ सुनयना आती थीं ..........उनके आते ही मै ऐसे उठ जाती जैसे मेरी कोई चोरी पकड़ी गयी हो ..............
हाँ उर्मिला जरूर कह रही थी कि जीजी ! आपको क्या हुआ ?
आप क्यों इतनी खोई खोई हो ...............
मै कहाँ खोई हूँ..........मै ठीक तो हूँ........तू बेकार की बातें करती हैं ......मैने उर्मिला को भी अपनें कक्ष से भगा दिया था .........
क्या करूँ ? कुछ समझ में नही आरहा ..............
हाथों में फूल के दोना पकड़े वो बड़े राजकुमार ! आहा !
अरे ! आज शरद पूर्णिमा है ...............ये पूर्णिमा का चन्द्रमा कितना सुन्दर लग रहा है .................पूर्ण चन्द्र ।
मेरे प्राण श्री राम की तरह ...................
मै स्वयं ही सोचती थी ............और स्वयं ही लजाती थी ।
पिता जी नें ठीक किया क्या प्रतिज्ञा करके ?
नही ......ठीक नही किया ............मेरी सखियाँ कह रही थीं कि फूलों को तोड़नें में भी उनको पसीनें आरहे थे ............तब वह पिनाक कैसे उठा पायेंगें ...........और उठाना ही मात्र तो नही है ना .......उठाकर प्रत्यञ्चा भी तो चढ़ानी है ..........
ओह ! कितनें कोमल हैं वे तो !
वो दिन भी कितना बेकार दिन था ........जब मै पूजा घर में चली गई थी .....न जाती तो ठीक रहता .......न मै पिनाक उठाती .....और न मेरे पिता जी प्रतिज्ञा ही करते ।
क्या तोड़ नही सकते पिता जी अपनी प्रतिज्ञा ?
नही ...........पिता जी अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ सकते .......चाहे कुछ भी हो जाए .................
मै उन दिनों अपनें आपसे ही बातें करनें लगी थी..........क्या करती किसी को बतानें में लाज जो आती थी ।
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ओह ! देवर्षि ! आप मेरे अन्तःपुर में ?
विचित्र हैं देवर्षि नारद जी ......इनको कहीं रोक टोक नही है ......
ये परम वीतराग , परोपकारी देवर्षि को भला कौन रोक सकता है ।
ये आगये थे मेरे ही अन्तःपुर में .........................
मै घबडा कर उठ गयी ................और देवर्षि को प्रणाम किया ।
तभी मेरे पिता जी और मेरी माता दोनों ही दौड़े मेरे अन्तःपुर की ओर .........उन्होंने भी प्रणाम किया ।
देवर्षि हँस रहे थे .........देवर्षि आज बहुत प्रसन्न थे ।
देवर्षि ! कहीं मैने प्रतिज्ञा करके कुछ गलत तो नही किया ?
ये प्रश्न मेरे पिता जी नें किया था ।
मैने जोश में आकर प्रतिज्ञा कर तो दी....पर आज तक कितनें राजकुमार और राजा आकर चले गए ........किसी से पिनाक हिला तक नही ।
देवर्षि कभी भी स्पष्ट बोलते ही नही .....इनको तो पहेली देनें में बड़ा आनन्द आता है .....अब पहेली सुलझाते रहो ।
राजन् ! आप जोश में भला कोई काम कर सकते हो ?
आप ज्ञानी शिरोमणि हो.......फिर ज्ञानी तो सदैव होश में ही रहता है ।
और रही बात आपके द्वारा प्रतिज्ञा करनें की ......तो राजन् ! हम सब तो उस आस्तित्व करों के द्वारा संचालित यन्त्र मात्र हैं ..........
आस्तित्व कभी गलत नही करता ............उससे कभी गलत होता ही नही है ...........राजन् ! मत सोचो कि तुमनें किया है ..........तुमसे करवाया गया है ......इसमें भला है ......सबका भला है .........
निश्चिन्त रहो राजन् ! .......निश्चिन्त रहो ...........
इतना कहकर देवर्षि मेरी और मुड़े ............और मुस्कुराये ।
वैदेही ! एक बात कहूँगा .........पुष्प उद्यान में जाकर अगर वहाँ कोई हमें प्रिय लगनें लगे ..........और हम वहाँ से बेचैनी ले आएं ........तब समझना ....तुम्हारा जीवन साथी तुम्हे मिल गया है ।
मैने सिर उठाया ...............और इशारे में ही पूछा .......क्या वही अयोध्या के बड़े राजकुमार ?
हाँ .......वही राजकुमार ! इतना कहकर देवर्षि चले गए .......
मुझे इतनी ख़ुशी हो रही थी कि...... उस समय लग रहा था ..........मै नाचूँ , मै उछलूँ ..मै दुनिया को बताऊँ कि मेरे हृदय के "रमण" मुझे मिल गए है ।
एकान्त मिले ........और मै बस उन्हीं के बारे में सोचती रहूँ ।
माँ सुनयना मेरे लिये भोजन लेकर आयीं थीं .............पर भूख कहाँ है .........मेरी भूख मिट चुकी थी .................
दिन का समय बहुत मुश्किल से गुजरा था .........रात में चन्द्रमा और तपानें लगा था मुझे ......उसकी चाँदनी मुझे छेड़ रही थी ।
क्या ये आग एक तरफ ही लगी है ?
नही नही .....................कोहवर कुञ्ज में मुझे सारी बातें बताई थीं मेरे प्राण प्रियतम नें ........अपनी हथेलियों में मेरे मुख को सम्भाले प्रियतम नें मुझे वो सारी बातें बताई थीं ...........जब पुष्प वाटिका से गए थे ......अपनें गुरु जी के पास .......उन्हीं नें सुहाग की सेज में ये सारी बातें बताई थीं .............
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उन्होंने मुझे कहा था ................प्यारी ! पुष्प वाटिका में मैने तुम्हे देखा ...............ओह ! ऐसा सौंदर्य मैनें नही देखा था ..........अद्भुत सौंदर्य था .............।
लक्ष्मण और हम लौट तो आये ..............और गुरु जी को पुष्प भी दे दिया ...........पर हम दोनों ही अपना अपना हृदय छोड़ आये थे ।
मैने उस कोहवर कुञ्ज में पूछा था ........आपनें तो मुझे अपना हृदय दिया ....पर लक्ष्मण भैया नें ?
उर्मिला को ...............ये कहते हुए नाथ बहुत हँसे थे ।
मेरी भी हँसी निकल गयी थी ..................हाँ वो मेरे साथ ही थी पुष्प वाटिका में ................।
पर आपको कैसे पता चला ? मैने पूछा था ।
तब मुझे मेरे "प्राण" नें बताया था ...............
जब हम दोनों गए फूल लेकर और गुरु जी के सामने रख दिया था .......और प्रणाम किया ......तब उनके मुख से आशीर्वाद निकला ....
"तुम दोनों के मनोरथ सफल हों"
तब लक्ष्मण नें हँसते हुए कहा था .........मेरा कोई मनोरथ नही हैं ......मनोरथ तो भैया के हैं !
नही ........मनोरथ तुम्हारे भी हैं ..............बोलो नही है ?
तब शरमाकर सिर झुका लिया था लक्ष्मण नें ।
मुझे बड़ा आनन्द आया .........कौन ?
उर्मिला ? क्यों की मुझे थोडा थोडा सन्देह हो गया था ।
उर्मिला का नाम सुनते ही और लजा गया था मेरा लखन ।
सीते ! क्या बताऊँ ..........तुम्हे देखनें के बाद उस दिन ...........
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रात्रि में हम दोनों भाई छत में सो रहे थे ..............
उस दिन शरद पूर्णिमा थी ................
लक्ष्मण मेरे साथ ही था ...........काफी देर तक मै चन्द्रमा को देखता रहा .................फिर मैने लक्ष्मण से पूछा ...........
लक्ष्मण !
जी भैया !
लक्ष्मण ! ये चन्द्रमा मेरी सिया के मुख की तरह है ना !
हाँ भैया !
पर नही ...........लम्बी साँस लेते हुए मैने करवट बदली थी ।
इस चन्द्रमा में तो दाग़ है ........पर मेरी सिया के मुख में कोई दाग नही ।
है ना लक्ष्मण ?
फिर कुछ देर बाद मैने पूछा - तुम सो तो नही गए ?
नही भैया !
लक्ष्मण ! मेरी सिया के मुख चन्द्र के आगे ये चन्द्रमा कितना दरिद्र लग रहा है ना ! ...........कहाँ मेरी सिया की सुन्दरता ! और कहाँ ये दाग कलंक वाला चन्द्रमा ? मेरी सिया में कोई कलंक नही है ।
ये सारी बातें मुझे कोहवर कुञ्ज में मेरे प्रियतम नें बताई थी ।
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अगर सीता में कोई कलंक नही है ......तो उस धोबी के सामने क्यों नही आप कह सके ........कि मेरी सीता में कोई कलंक नही है ?
फिर आँसुओं की धारा बह चली थी .............वैदेही के ।
ओह ! तुम्हारे पुत्र मेरे कोख में पल रहे हैं ..............मै सुनती रहती हूँ .......ये दोनों ही लड़ते रहते हैं ..............अपनें पैर पटकते हैं .......
वो दिन ! और आज का दिन !
हाय विधाता ...................................
लेखनी रख दी सीता जी नें .......और तालपत्र को मोड़कर रख दिया ....
अब कुछ देर रोयेंगीं ये ..............जब तक स्वयं महर्षि वाल्मीकि न आजायें चुप करानें .........तब तक ...................
आगे का प्रसंग कल ........
Harisharan
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