आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 7 )
सहज विराग रूप मनु मोरा...
( रामचरितमानस )
******* कल से आगे का प्रसंग
रावण गया .................तब जाकर मेरे पिता और मेरे परिवार नें राहत की साँस ली थी ......वैसे रावण कुछ कर सकता नही ........पर तनाव तो दे ही देता .........।
बाणासुर को जब ये पता चला था ..............कि रावण के कारण जनक परिवार दुःखी था ........वो तुरन्त बोला ......गुरु भाई ! मुझे क्यों नही बताया आपनें .............अरे ! रावण मेरे सामनें क्या है !
बाणासुर नें हृदय से गुरुभाई का नाता निभाया ............।
मेरे स्वयम्वर में बाणासुर स्वयं उपस्थित रहा था ।
हाँ......अब मै जो लिखनें जा रही हूँ........सीता यहीं से शुरू होती है ।
शाम का समय था .........कार्तिक लगनें में बस दो दिन ही तो बचे थे ।
शरद पूर्णिमा आने वाली थी ...............नवरात्रि अभी गयी ही थी ।
दीया जलानें का क्रम राजमहल में दशमी से ही शुरू हो गया था ।
उस समय .............मेरे पिता जनक जी आये ..............पर उनकी दशा विलक्षण थी ।
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क्या हुआ बताइये ना !
मेरे पिता की दशा ऐसी थी ......जिसको देखकर मेरी माँ भी कुछ समझ नही पा रही थी कि इन्हें हो क्या गया है !
मै भी शान्ति से चली गई थी ........अपनें पिता जी को देखनें ।
क्या हुआ ? आप तो गम्भीर थे ..........फिर ये आपको क्या हो गया ?
आप की मुस्कुराहट आपके चेहरे से जा ही नही रही ........!
अरे ! अरे ! सम्भल के .............................
मेरी माँ सुनयना नें पिता जी को सम्भाला था ...............
आप तो ऐसे लड़खड़ा रहे हैं .......जैसे कोई प्रेम में डूब जाए ।
मेरी माँ नें पिता जी को उलाहना दिया था ।
विवाह का प्रसंग शुरू हो गया था ......जनकपुर में ।
इसलिये मेरी सखियों को नित्य उत्सुकता बनी ही रहती ........
हम लोग शाम के समय .......पिता जी के कक्ष में चले जाते .....और किसी और बहानें से उनकी बातें सुनते........आज भी मेरी सहेलियाँ मुझे ले गयीं ........क्या पता किसी राजकुमार नें धनुष तोड़ दिया हो ।
मेरे पिता जी मुस्कुराये .........हाँ प्रेम हो गया है ...............
इस तरह की भाषा कभी बोलते नही थे मेरे पिता जी ।
उनके रूप से प्रेम .....उनके अलौकिक सौंदर्य से प्रेम.......आहा !
कितनें सुन्दर हैं .........वो राजकुमार !
राजकुमार ? मेरी माँ सुनयना नें चकित हो पूछा ।
हाँ अयोध्या के राजकुमार.................बड़े ही सुन्दर हैं देवी !
मेरी माँ को बताते हुए ......... मेरे पिता जी नें कहा था ।
किसके साथ हैं वो राजकुमार ?
ऋषि विश्वामित्र के साथ .................और पता है देवी सुनयना ! उन छोटे से दीखनें वाले राजकुमार नें तड़का को मार गिराया ।
सुबाहु और मारीच, इन सबका भी उद्धार किया मेरे प्रभु नें ।
मेरे पिता जी हँसे थे ......खूब हँसे .............फिर अपनें आपको सम्भालते हुए बोले .........महारानी ! इतनें सुन्दर राजकुमार मैनें तो नही देखे थे ।
बड़े भाई साँवले हैं ........और छोटे भाई गौरवर्णी हैं ।
पर आपको वो मिले कहाँ ? माँ सुनयना नें पूछा ......।
मैने ऋषि शतानन्द जी के कहनें से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पास भी अपनी निमन्त्रण पत्रिका भिजवाई थी .........
देवी सुनयना ! मुझे सूचना मिली कि महर्षि विश्वामित्र आरहे हैं ।
मै तुरन्त चला .........पर मेरे साथ शतानन्द जी भी साथ हो लिए थे ।
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देवी ! नगर के पास ही एक बगीचा है ना ! उसी बगीचे में ठहरे हैं विश्वामित्र जी .......मुझे तो यही सूचना थी .........मै वहाँ पर गया ।
सुचना सही थी ................पुरानें बरगद वृक्ष के नीचे बैठे थे बाबा विश्वामित्र ।
ये सारी बातें मै अपनी सहेलियों के साथ सुन रही थी ।
आप कैसे हैं ? यात्रा सकुशल हुयी ना ? आपनें मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया हे भगवन् ! मै धन्य हो गया .....बस यही बातें मै कह ही रहा था कि ......................
की ? क्या हुआ फिर महाराज !
देवी सुनयना ! तभी मेरे सामनें अखिल सौंदर्य निलय ..मानों सौंदर्य ही आकार लेकर प्रकट हो गया हो ..............
ऐसे सुन्दर दो राजकुमार आये ............मै यन्त्रवत् उन्हें देखते ही उठ खड़ा हो गया ...........मुझे खड़ा देख शतानन्द जी खड़े हो गए ।
हम सब को खड़ा देख.......वैसे ही यन्त्रवत् ऋषि विश्वामित्र जी भी खड़े हुए.......पर बाबा विश्वामित्र नें तुरन्त कहा......ओह ! ये ? ये तो विदेह राज ! मेरे शिष्य हैं ।
ये आपके पुत्र हैं ऋषि ? ये प्रश्न उचित नही था मेरा ........पर मै अपनें वश में कहा था .........मै तो उन राजकुमारों को ही देखकर मन्त्रमुग्ध हो गया था ।
ये क्या कह रहे हैं आप विदेह राज ?
हम बाबाओं के कोई पुत्र होता है क्या ?
मैने मुस्कुराके कहा ........नही ! आप तब भी तो बाबा थे ......जब आपकी शकुन्तला हुयी थी ............।
देवी ! मै अपनें आपमें ही नही था .....................
फिर मैने विश्वामित्र जी से पूछा ..................ऋषि ! ये बालक फिर कौन है ? किसी राजा के पुत्र हैं ?
इसका भी उत्तर उनसे न लेकर मै तीसरा ही प्रश्न करनें लगा था ।
ओह ! कहीं निराकार ही साकार रूप लेकर तो नही आया ?
वेद जिसका वर्णन करते करते थक जाते हैं ..............वही ब्रह्म तो रूप धारण करके नही आया ?
मै उन्हें देखता जा रहा था ...............अपलक नेत्रों से ...........देवी ! वो राजकुमार असीम सौंदर्य के धनी थे ।
ऋषि विश्वामित्र ! मै आपको विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ .........मै ज्ञानी हूँ ........मै परिपक्व ज्ञानी हूँ ............नाम, रूप ये सब मुझे प्रभावित नही कर सकते ..........पर आज मेरे साथ ये क्या हो रहा है ।
मन तो मिथ्या है .......मै तो "अमना" स्थिति में पहुँचा हुआ ज्ञानी हूँ ।
पर आज मुझे मेरा मन ही विचलित कर रहा है ............पता नही कैसे ?
मेरा मन बार बार इनके रूप माधुरी का पान करना चाहता है ..........
देवी ! वो साँवले हैं ....................
मेरी सखी नें मुझे इधर छेड़ा ......किशोरी जी ! वो सांवले हैं ।
फिर मेरे पिता बोले ..........सुनयना रानी ! उनकी घुंघराली लेटें ........उनके मुख मण्डल पर बार बार आरही थी ..............ऐसा लग रहा था ............भौरें फूलों पर मंडरा रहे हैं ।
राम ! इनका नाम है राम ..................सुनयना मैया नें भी अपनें मुँह से कहा .........राम ! सखियों नें भी जब नाम सुना तो उन्होंने भी कहा .......आहा ! राम ! ........मै तो राम राम की रट अपनें हृदय में लगा ही रही थीं ...........
देवर्षि नारद जी नें इसी नाम के बारे में बताया था ना !
देवी सुनयना ! ऋषि विश्वामित्र नें मुझसे कहा ................
अयोध्या के राजा चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी........उनके पुत्र हैं ये ....बड़े पुत्र हैं राम ......और छोटे पुत्र हैं इनका नाम है लक्ष्मण ।
ये देखनें में सुकुमार लगते हैं .........पर ये महावीर हैं ..........आपको तो पता ही है ना .........ताड़का .......जो समस्त राक्षस जाति की रक्षिका थी ...........उसको इन्होंनें मार गिराया ।
मैने राजा दशरथ जी से इन्हें मांगा था .........क्यों की विदेह राज ! मेरे यज्ञ में ताड़का और मारीच सुबाहु.......ये सब विध्न डालते रहते थे ।
पर चक्रवर्ती जी नें मुझे निराश न किया .....और अपनें दो पुत्र दे दिए मुझे ।
मेरी कुटिया में आकर इन्होनें ताड़का का वध किया ......और मारीच सुबाहु का भी उद्धार किया ।
पर हे विदेह राज ! शिव धनुष पिनाक देखनें की राम को बड़ी उत्सुकता थी .....इसलिये मै इन्हें यहाँ भी ले आया ।
ठीक किया ऋषि आपनें ...............इनको ले आये ।
पर आप यहाँ नही रुकेंगें ..................आपके लिए मै दूसरी व्यवस्था करता हूँ .................मेरे पिता जनक जी नें कहा था ।
मेरी माँ को यही बतानें लगे थे..........वो अपनी पुत्री जानकी के लिए मैने जो महल बनवाया था ना ........उसी महल में मैने ऋषि विश्वामित्र और उनके साथ में आये राम लक्ष्मण को ठहरा दिया ।
मेरी सखी चन्द्रकला मुझे देखकर आँखें मटकानें लगी थी .....।
मुझे लाज लग रही थी .....................
मेरे पिता जी अब शयन करनें जा रहे थे ..................पर उनके मुँह से अब बार बार यही शब्द निकल रहे थे .........राम ! राम ! राम !
मेरी सब सखियाँ दुष्ट हैं .....महादुष्ट हैं .............मुझे छेड़नें के लिए .....सिर्फ राम न कहकर .......सीता राम ....सीता राम ......कहकर मुझे चिढानें लगी थीं ।
उनसे धनुष न टूटेगा ..................मैने भी अपनें कक्ष की ओर बढ़ते हुए कहा था अपनी सखियों से ...........
क्यों क्यों क्यों ? क्यों नही टूटेगा धनुष श्री राम से ।
सुना नही .........वो बहुत कोमल हैं ...........पिता जी नें कहा अभी ।
तो मेरी प्यारी जानकी ! तुम ही तोड़ देना .........और नाम लगा देना राम नें तोडा है ..............ऐसा कहकर सब हँसनें लगी थीं ।
हट्ट ! ऐसा थोड़े ही होता है ?
सब होता है ............जब राम धनुष के पास जाएँ .......तब तुम पिनाक धनुष की प्रार्थना कर लेना ......कि हे पिनाक ! आप हल्के हो जाओ ।
सिया जू ! आपनें ही तो कहा है ना ...कि पिनाक चिन्मय है जड़ नही ।
मैने नही कहा ......देवर्षि नारद जी नें कहा था ।
पर पिनाक चिन्मय है ना ? चन्द्रकला नें पूछा ।
हाँ .......चिन्मय तो है पिनाक धनुष ..............
तब तो आपकी बात मान ही लेगा पिनाक ...........।
अब जाओ तुम लोग .................मै सोऊँगी ...........
मैने अपनी सखियों से हँसते हुए कहा ।
आपको आज नींद आएगी ...............शरद पूर्णिमा आरही है .......देखो देखो .............क्या राम ऐसे ही हैं चाँद की तरह .......!
तुम जाओ यहां से .....................मैने सखियों को भगाया ।
और मै लेट गयी थी ...........राम ..... राम ........कितनें सुन्दर हैं ....मेरे राम ! पिता जी कह रहे थे ..........वो ऐसे लगते हैं जैसे सुन्दरता ही आकार लेकर आगया हो .......ओह !
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वन देवी ! आप बड़ी देर से "राम राम" कह रही हैं .........सम्राट राम का नाम आप क्यों ले रही हैं ?
ओह ! सामनें आकर बैठ गयी थीं .............वो आश्रम की सेविका.............।
तुरन्त लेखनी बन्द कर दी .............सीता जी नें ............ताल पत्र को लपेट कर रख दिया ।
महर्षि भी लिखते रहते हैं .........और आप भी .............वो तो रामायण लिख रहे हैं ......आप क्या लिख रही हैं वन देवी !
मै क्या लिखूंगी ....................बस ऐसे ही ................
वन देवी ! अब तो दो महिनें ही बचे हैं ..........
किसके लिए दो महिनें बचे हैं ? मैने पूछा ।
आपके पुत्र होंगें .........और वो बूढी माई कह रही थी ......दो पुत्र होंगें आपके ...............सेविका बोलती चली गईं ।
पर आज सीता जी का ध्यान पूरा ............जनकपुर में ही था ।
उस समय के जनकपुर में .......जब श्री राम आये थे ......पिनाक को देखनें ...............
शेष प्रसंग कल .........
Harisharan
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