Full width home advertisement

Post Page Advertisement [Top]

वैदेही की आत्मकथा - भाग 15

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 15 )

भृगुपति गए वनहीं तप हेतु ....
( रामचरितमानस )

*********कल से आगे का चरित्र  -

मै वैदेही ! 

पिनाक टूट चुका था .....मेरे  रघुकुल नन्दन नें पिनाक को तोडा  ।

जनकपुर निहाल हो गया था ..........मेरे माता पिता जी इतनें प्रसन्न थे  कि  कोई सीमा नही  ..............मै तो  अपना हृदय सौंप ही चुकी थी ....अपनें  श्री राघवेन्द्र  को   ।

अपनें गुरु  विश्वामित्र जी के चरण छू रहे थे  ...........अपनें  छोटे भाई लक्ष्मण को हृदय से लगा रहे थे ........श्री राघवेन्द्र ।

जनकपुर वासी   नाच रहे थे ..गा रहे थे .......और  श्री राम के ऊपर फूल बरसा रहे थे    ।

सगुन ,  सारे सगुन  उपस्थित थे .........ऐसा विवाह  पहले हुआ कहाँ था ....और आगे होगा भी नही ............जब मेरे  श्री राम अद्वितीय हैं   तो  उनका विवाह भी कैसे अद्वितीय न हो  ! 

शहनाइयाँ  बज रही थीं .............ढोल , तासे , नगाड़े ..........और उन सबकी धुन में   सारे नर नारी नाचे जा रहे थे  ...............

पर  मैने देखा.......कुछ राजाओं नें अपनी गुटबन्दी करनी शुरू कर दी थी   ........दोनों छोटी उम्र के ही  तो राजकुमार हैं ...........पकड़ लो इन्हें  बाँध दो......और सीता को छुड़ा लो  ।

ये सुनते ही   मै  स्तब्ध हो गयी थी .....................

बड़े बड़े  राजा महाराजाओं की  तलवारें म्यान में से बाहर आगयीं थीं....

उस समय मैने लक्ष्मण भैया को देखा था .........मुझे लगा था की  इस समय के लिये तो हमारे  छोटे भैया  लक्ष्मण  ही उपयुक्त होंगें ।

पर इतनी बड़ी बात सुनकर भी लक्ष्मण भैया चुप ही रहे   ।

मुझे आश्चर्य हो रहा था ................इतनी वीरता बखाननें वाला लक्ष्मण आज  चुप है  ।

पर  चित्रकूट  में  मुझे  स्वयं लक्ष्मण भैया नें बताया था .........की  मै उस समय अतिप्रसन्न था ...........मेरे बड़े भैया  श्री राघवेन्द्र सरकार दूल्हा बननें जा रहे थे ..........उनका विवाह होनें वाला था .....ये सोच सोचकर मै आनन्दित हो रहा था ...........और उन राजाओं की बातें मैनें सुनी थीं .........पर  उस समय मेरा मन कर रहा था कि  ये खून ख़राबा टल जाये ......मै उस शुभ बेला में   हिंसा मचानें के मूड में नही था ।

पर  ज्यादा हो जाता तो ?      राजाओं नें अपनी तलवारें निकाल लीं थीं भैया  ? 

मैने चित्रकूट में रहते हुए  ये बात पूछी थी लक्ष्मण भैया से .......

वो हँसे थे ...........इस  "शेष" के क्रोध से  कोई बचा है  भाभी माँ !

हाँ  मै तो थी  जनकपुर में .............मै कह रही थी ..........वहाँ का वातावरण युद्ध का बन गया था ......मेरे पिता जनक जी  भी  सोच में पड़ गए थे  कि ...........क्या  इसी स्थान पर रक्त पात होगा  ?

तभी ...............................एक  सैनिक आया .........और उसनें आकर भरी सभा में  निवेदन किया  महाराज से  ।

*******************************************************

क्रोध से अरुण मुख,  अंगार उगलती आँखें   ऐसे भगवान परसुराम आकाश मार्ग से  आरहे हैं......सैनिक नें  सिर झुकाकर ये बात कही ।

क्या ! 

मुझे आश्चर्य हुआ  .........अभी तक जो राजा लोग तलवारें  निकालकर मारनें मरनें के लिए आतुर  थे .......वही राजा गण  एकाएक परसुराम का नाम सुनते ही काँपनें लगे थे ...........उनके हाथों से तलवार गिर गए ........कोई कोई राजा तो  भागनें को कोशिश भी करते पाये गए. .....पर उन्होनें जैसे ही सुना  कि  अगर परसुराम नें इस तरह भागते देख लिया  तब तो वो अवश्य मारेंगें ही......वो भागता राजा भी  वापस आगया था ।

भैया !     ये कौन आरहा है  ?

मैने देखा  लक्ष्मण भैया के चेहरे में  बाल सुलभ चपलता आगयी थी .....

उन्होनें  पूछा था  श्री राघवेन्द्र से  .....ये कौन आ रहा है ?

ऋषि परसुराम !      ये कहते हुये  श्री राघवेन्द्र मुस्कुराये  ।

कोई हौआ हैं क्या  ?      लक्ष्मण भैया ये कहते हुए  जोर से हँसे .....

भैया देखो !   ये राजा लोग  अभी हम लोगों को मारनें जा रहे थे .....एकाएक परसुराम का नाम सुनते ही काँपनें लगे  ।

वो क्षत्रिय कुल द्रोही हैं...........इसलिये ये सब डर रहे हैं .............

श्री राघवेन्द्र नें मुस्कुराते हुए फिर  कहा  ।

तभी ........................भीषण  रूप लिए .....जटा,   मस्तक में  त्रिपुण्ड्र धारण किय हुए .............और  क्रोध से उनका शरीर काँप रहा था ....

आँखें तो अंगार उगल रही थीं ...........हाथ में   फरसा था ...........नही नही ......फरसा के साथ मुझे याद आरहा है ..........त्रिशूल भी था .....पर कन्धे में धनुष भी रखा था ...........अरे !  तलवार भी थी ..........

और भी शस्त्र थे ............मुझे अब ज्यादा ध्यान नही है ........और उसके बाद मुझे परसुराम जी मिले भी नही हैं   ।

जनक !    हे राजा जनक !        

भरी सभा में आकर  ऋषि परसुराम जी नें चिल्लाना शुरू किया ।

सीता को लाओ ............मेरे पिता जी नें  मेरी माता सुनयना को कहा ।

मेरी सखियाँ मुझे लेकर  आगयीं थीं ........।

मुझे लेकर  मेरे पिता  आगे बढ़ें ............और  स्वयं प्रणाम करते हुए ...मुझे भी प्रणाम करनें के लिये कहा  ।

हे भगवान परसुराम !   ये जनक आपको प्रणाम करता है !  

"प्रसन्न रहो" ............ये आशीर्वाद भी क्रोध में ही दिया  था  ।

मेरी ये पुत्री सीता है ...........इसे भी आशीर्वाद दीजिये ...... आज ही इसका स्वयंवर हुआ है  ब्रह्मर्षि  !

सौभाग्यवती भवः ।

मेरे पिता  जी  इस  आशीर्वाद से बहुत प्रसन्न हुए  .....तब  मै समझीं कि मुझे क्यों आशीर्वाद दिलाना चाहते हैं  मेरे पिता ............ताकि  मेरे सुहाग की और ये  देखें भी न ...............पर अब जो आगे हुआ -

****************************************************

हे ब्रह्मर्षि परसुराम !   मै विश्वामित्र आपको प्रणाम करता हूँ  ।

अब आगे आये थे  ऋषि विश्वामित्र ...............

कैसे हैं आप  ऋषि  ?       ऋषि विश्वामित्र को देखते ही  कुछ शान्त हुए ..............श्री राघवेन्द्र नें और  लक्ष्मण भैया नें भी प्रणाम किया  ।

जनक !       ए जनक  !

इतनें सारे क्षत्रिय  एक साथ ..........कैसे इकट्ठे हुए हैं  ? 

मेरे पिता जी आगे आये .......और हाथ जोड़कर बोले...........मुझे पिनाक मिला था .......भगवान शंकर से ..............

इससे आगे  मेरे पिता बोलनें जा रहे थे  कि  ऋषि परसुराम नें  हाथों के इशारे से  उन्हें रोक दिया ..........

और तेनें   भगवान शंकर के द्वारा दिए गए पिनाक को तुड़वा दिया  ।

ये मेरी पुत्री है ..........इसका विवाह उसी से होगा  जो पिनाक तोड़ेगा ....मैने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी  हे भगवन् !  

जनक !   

      लाल अंगार जैसी आँखें  परसुराम की ..............वो मेरे पिता का नाम लेकर चीखे ............।

अब तो ये बता    कि  राम कौन है  ? 

बताओ !   इस सभा में राम कौन है  ? 

पूरी सभा  चुप ।

पूरी सभा में घूमनें लगे  परसुराम ...................

देखो !    जो राम है ........वो  आगे आजाये .........नही तो  उस राम के चलते  सब मारे जायेंगें  !     

सभा चुप रही  ।

पिनाक  "राम" नामक राजकुमार नें ही तोडा है ना  जनक !  

मेरे पिता के पास आकर  फिर चिल्लाये थे परसुराम  ।

"हाँ "
............केवल इतना ही बोलकर चुप हो गए मेरे पिता जी ।

****************************************************

अबकी निगाहें  श्री राम पर टिकी हैं ...........

मेरे श्री राम आगे आये .................और   हाथ जोड़ते हुए ही  ऋषि परसुराम के पास गए .........आहा !  उस समय क्या छवि थी   मेरे राम की .......गम्भीर थे .....शान्त थे ........हल्की मुस्कुराहट अधरों में थी ।

जैसे हाथी अपनी मत्तता में चलता है  ऐसे ही चलते हुए गए थे परसुराम के पास ....मेरे श्री राम  जी  ।

हे ब्रह्मर्षि !    पिनाक तोड़नें वाला  आपका कोई सेवक  ही होगा  ।

तू कौन है ?       बोल  तू  कौन है  ?   

परसुराम नें फरसा  श्री राम को दिखाते हुए कहा ......बता  तू कौन है ?

मै  राम हूँ .......अवध नरेश  श्री चक्रवर्ति सम्राट दशरथ पुत्र राम ।

ये धनुष किसनें तोडा ...................?

प्रभु !  धनुष तोड़नें वाला  आपका कोई सेवक  ही हो सकता है  ।

कितनी मधुर वाणी थी   मेरे श्री राम की  ।

सेवक  ?    सेवक  का  काम होता है सेवा करना.......ये  सेवा है मेरी ?

क्रोध से  परसुराम जी की साँसे तेज़ तेज़ चल  रही थीं ..............।

*********************************************************

तभी मेरी दृष्टि गयी    लक्ष्मण भैया की और ..................

गुरुदेव !  आपनें सही  व्यक्ति को सही व्यक्ति से नही मिलाया ।

लक्ष्मण भैया की बात सुनकर  ऋषि विश्वामित्र जी हँसे .........

क्यों ?      

हम दोनों  अगर मिलते ..........परसुराम और मै ......तब होती सही मुलाक़ात ............गुरुदेव ! आपही देखिये ना .......कहाँ ये सरल व्यक्तित्व श्री राम .....और कहाँ ये क्रोध का ही साकार रूप ।

फिर हँसते हुए  लक्ष्मण भैया बोले .......गुरुदेव ! आपकी आज्ञा हो तो मै जाऊँ !   थोड़ी मुलाक़ात करके आऊँ  ?

मुस्कुराते हुए  ऋषि विश्वामित्र जी बोले ......जाओ  ।

हे राम !     तुम क्या समझते हो ..........ये  पिनाक धनुष कोई साधारण धनुष था ...........ये असाधारण धनुष था  इस विश्व का .....

हे ऋषि !   मेरी एक बात समझमें नही आरही .........कि आपको  क्रोध किस बात का है  !  

लक्ष्मण जी आगे बढ़कर बोले ..........।

तू कौन है बालक  ?    परसुराम जी फिर चिल्लाये  ।

मै  इनका  सेवक  छोटा भाई ही हूँ ...............और मेरा नाम है लक्ष्मण ।

पर  आप को क्रोध क्यों  ?   

हे ऋषि !    हम बचपन में आपकी कुटिया में भी गए हैं ........ऐसे ही खेलते खेलते ........हनुमान जी हमें  अपनें कन्धे पर बिठाते थे .....और ले चलते थे .......छोटे तो थे ही  ........।

एक बार आपकी कुटिया में चले गए .........तो हमनें देखा  वहाँ ..........हजारों धनुष रखे हुए थे  आपनें ............

क्या आप धनुष के  विक्रेता हैं ?        

और  यहाँ भी  इतनें सारे शस्त्र लेकर आये हैं ...........लक्ष्मण भैया ताली बजाकर हँसते हुए बोले ........मैने तो समझा था  कि  कोई  शस्त्र बेचनें वाला व्यापारी आया है .........।

लक्ष्मण !  .......................क्रोध  चरम पर पहुँच गया परसुराम का ।

अरे सुनो !  सुनो  ऋषि !     फिर आपकी कुटिया में जाकर मैने,   जो जो धनुष आपनें रखे थे .......उन्हें  देखा .........बड़े कमजोर धनुष थे ......प्रत्यञ्चा चढानें के लिए जैसे ही धनुष को मै झुकाता,  टूट जाता धनुष तो ....ऐसे  मैने आपकी कुटिया में रखे हजारों धनुषों को  तोड़ दिया  था  ।

पर आप उस समय तो क्रोध नही किये ......न  हमारे  अयोध्या में आकर क्रोध को प्रकट किया  ..........फिर आज क्या हो गया  आपको ?

बालक !    तुझे क्या लगता है .......ये  पिनाक .......क्या  अन्य साधारण धनुष की तरह है  ?   मुर्ख बालक !   ये  पिनाक है ..........।

देखो !  ऋषि !  हम तो क्षत्रिय हैं ........हमारे लिए  सारे धनुष समान ही हैं .........चाहे पिनाक हो .....या कोई और  !

मुर्ख बालक !   तू समझता नही है  !

ऋषि !   समझते तो तुम नही हो ।

मुर्ख बालक !  क्या ये साधारण धनुष था ?

ऋषि !  जब   धनुष साधारण नही था   तो तोड़नें वाला साधारण कैसे हो सकता है  !

पूरी सभा   सुन रही थी.......लक्ष्मण और परसुराम के इस संवाद को  ।

पर मेरी सखियाँ ! .....दुष्ट हैं ........बहुत   बदमाश हैं  ।

उर्मिला ! देख...........हम तो आज तक सोच रही थीं  तेरा ये  लक्ष्मण गूँगा है ......पर बहुत अच्छा बोलता है  ये तो ........

जीजी ! देखो ना ........इन सबको ............उर्मिला नें धीरे से  कहा  मेरे कान में ..........

मैने पीछे मुड़कर देखा ..........और  आँखे दिखाकर कहा .......परसुराम हैं ...........चुप रहो !  

पीछे से  मेरी सखी बोली ........हमारा क्या कर लेंगें  ।

मुझे हँसी भी  आरही थी  इनकी बातों से ...........पर  सभा में दृश्य तो विचित्र दीख रहा था .........लक्ष्मण उलझ गए थे ...परसुराम से .....।

****************************************************

राम !    बचा ले अपनें छोटे भाई को .......अन्यथा ये मेरे हाथों मारा जाएगा ........फिर मत कहना  कि   एक बालक की हत्या मैने कर दी ।

आप  इतनें अस्त्र शस्त्र लेकर चलते क्यों हो  ?   हे ऋषि ! आपको क्या जरूरत  इतनें शस्त्रों की ..........

अरे ! ऋषि !  आपकी तो वाणी ही  इतनी कठोर और तीखी है .....कि शस्त्र फेल  ।

लक्ष्मण भैया फिर शुरू हो गए थे ..............मेरी सखियाँ मेरे पीछे से कह रही थीं .......लक्ष्मण की बातों    में हम तालियाँ बजाएं ? ....आनन्द आरहा है ..........मैने हाथ जोड़े ......हे मेरी दुष्ट सखियों चुप रहो ...कुछ मत करना .....ये परसुराम हैं   ।

देखो ! देखो !  मेरे  श्री राघवेन्द्र ..........अब आगे आरहे हैं .....और लक्ष्मण भैया पीछे गए ........मैने सखियों से कहा  ।

हे ऋषि !    ये मेरा छोटा भाई है ..........बालक है ......और वैसे भी हम बड़े लोगों को    बालक की बातों का बुरा नही मानना चाहिए .......क्षमा कर देना  चाहिए .......मेरी आपके चरणों में विनती है  हे ऋषि वर ! आप इसे क्षमा कर दें  ।

आहा !  राम !  तुम कितना मीठा बोलते हो ............आनन्द आगया तुम्हारी वाणी सुनकर ..........पर  विधाता नें  इसके साथ तुम्हारी जोड़ी ठीक नही बनाई ...........ये तुम्हारे लायक नही है  राम ! 

परसुराम जी नें कहा था  ।

हाँ ऋषि !    इनकी और मेरी जोड़ी ठीक नही है ......पर तुम्हारे साथ मेरी जोड़ी ठीक है ............ऐसा कहते हुये लक्ष्मण भैया आगे आगये थे ।

तू फिर आगया ............मै तुझे मार दूँगा ............ये कहते हुए परसुराम आगे बढ़े ...........

ए ऋषि !   ये बार बार हमें  फरसा न दिखाओ .......हम कोई छुई मुई का पौधा नही हैं  जो मुरझा जाएँ ...........।

अगर हिम्मत है .....तो आओ   जनेऊ तोड़कर आओ ........माथे का त्रिपुण्ड्र मिटाकर आओ ...........क्यों की हमें  सिखाया गया है ऋषि के ऊपर हाथ नही उठाना ........आओ अपनें ऋषिओं के   चिन्हों को मिटाकर......फिर मै बताता हूँ  कि क्या ताकत है सुमित्रा के दूध में  ।

बस इतना सुनते ही   परसुराम का क्रोध  आसमान पर चढ़ गया  ।

तभी  श्री राघवेन्द्र आगे आये ................हे ऋषि !  मै हूँ  आपका दोषी ....आपके पिनाक को मैने तोडा है ......इसलिये आप मुझे  जो दण्ड देना चाहें .....दें  ।

चलो  राम ! मै तुम्हे अवसर देता हूँ ...लडो मेरे  साथ  ।

नही ऋषि !   मेरे छोटे भाई नें जो अभी कहा .....मै भी वही  कहूँगा ......हम क्षत्रिय लोग ऋषियों के ऊपर हाथ नही उठाते .....ये हमें शिक्षा दी गयी है .....इसलिये आप  अपना  फरसा लें .......और मेरे  सिर को काट दें .........ये राम अपना सिर आपके सामनें झुकाता है ।

इतना कहकर     श्री राघवेन्द्र नें अपना शीश झुका दिया था ।

राम !  ए राम !  ये क्या  ? 

अपना   उत्तरीय हटाओ तो  !   परसुराम जी नें  कहा  ।

ये  तुम्हारे वक्ष में क्या है ?     भृगु पद चिन्ह ?    

ये तो भगवान नारायण के अलावा और किसी के वक्ष में नही  होता ।

ओह !   तो क्या  ?   तुम नारायण हो  ?

परसुराम  हाथ जोड़कर खड़े थे अब  मेरे श्रीराम के आगे  ।

ये धनुष लो  राम !  इसको चढ़ाओ  ।

मेरे श्री राम नें  उसी समय  परसुराम के धनुष को लिया .........और जैसे ही उसे चढानें लगे ..............

पता नही अब हँसी आती है .......मुझे .......मै दौड़ी थी  अपनें  श्री राघवेन्द्र के पास .........मेरी सखियाँ  मुझे देखती रह  गयीं थीं  ।

पर मै  दौड़ी ......बहुत तेज़ दौड़ी ........और  श्री राघवेन्द्र के चरण पकड़ लिये ........नाथ !  अब नही ........एक पिनाक को चढाया  तो मेरे साथ आपका विवाह हो रहा है ..........अब कहीं इस दूसरे धनुष को आपनें चढ़ा लिया ......तो  कहीं दूसरी  राजकुमारी आपको वरमाला पहनानें न आजाये ......।

तब मेरे नाथ नें  अपनें दोनों हाथों को उठाकर प्रतिज्ञा की थी .....

हे सीते !  मै   समस्त लोकों को साक्षी मानकर ये प्रतिज्ञा करता हूँ  कि  ये  राम  एक पत्नीव्रत धर्म  का ही पालन करेगा.................एक ही विवाह करेगा राम .......राम के लिए  वैदेही को छोड़कर अन्य सब   माँ और भगिनी हैं ...........बस ।

इतना कहकर जैसे ही मेरे प्रभु नें अपनें दोनों हाथों को उठाया था .......तभी फूल बरस पड़े ...........जयजयकार होनें लगा  ।

परसुराम नें अपनें दोनों हाथों को  जोड़ लिया था ....मेरे श्री राम के सामनें ..........इससे ज्यादा झुकना   इनके स्वभाव में था भी नही ।

शेष चरित्र कल ..........

Harisharan

No comments:

Post a Comment

Bottom Ad [Post Page]