आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - 13 )
सिय जयमाल राम उर मेली ....
( रामचरितमानस )
********** कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
आज भी उन पलों को याद करती हूँ .........तो मै सारे दुःखों को भूल ही जाती हूँ......और वो तो ऐतिहासिक और विश्वस्तरीय घटना थी ......
कि श्रीराम ने पिनाक को तोड़ कर फेंक दिया ।
ओह ! मुझे अभी भी रोमांच हो रहा है ...........क्या समय था वो !
श्री राघवेन्द्र नें धनुष को तोड़कर फेंक दिया था ।
तभी से देवों नें पुष्प वृष्टि आरम्भ कर दी थी ............और फूल भी दिव्य दिव्य ....उन फूलों की सुगन्ध ही बड़ी आनन्द देनें वाली थी ।
मेरी समझ में नही आरहा था कि मै क्या करूँ .........मै भी अपनें स्थान से उठ गयी......और अचक से अपनें श्री राम को निहारनें लगी थी ।
मेरी सारी सखियाँ ख़ुशी के मारे किलकारियां भर रही थीं ..........मेरी माँ सुनयना मेरे पास में आयीं और उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे गले लगाया था ...............
शहनाई , भेरी , नगाड़े , ये सब बजनें शुरू हो गए थे ........
पर मैने देखा .......ये शहनाई, नगाड़े भेरी ...........हमारे जनकपुर के भाट नही बजा रहे थे ...........अरे ! जनकपुर के तो सभी लोग देह सुध ही भूल गए हैं श्री राम को पाकर ।
फिर ये शहनाई कौन बजा रहा है ?
मेरी बहन उर्मिला नें उत्तर दिया .......आकाश से गन्धर्व बजा रहे हैं ।
तभी मैने देखा ........हमारे कुल पुरोहित ऋषि शतानन्द जी एकाएक श्री राम की और दौड़े .....बदहवास से दौड़े.....हाँ बड़ी तेज़ी से दौड़े थे ।
और आश्चर्य की बात तो ये हुयी ....... कि दौड़कर श्री राम के चरणों में ही गिर गए थे ।
अरे ! ये तो ब्राह्मण ऋषि हैं और श्रीराम तो क्षत्रिय हैं ...........
श्री राम नें अत्यंत संकोचवश अपनें चरणों से उन्हें उठाना चाहा ......पर नही, वे उठे नही ।
हे राघव ! इन्हीं चरणों की धूल नें मेरी माता अहिल्या का उद्धार किया है ......माता अहिल्या मेरी माँ हैं ....और मेरे पिता हैं ऋषि गौतम ।
आपनें मेरी माँ का उद्धार करके बहुत बड़ा उपकार किया है हम पर ।
हे राघव ! मुझे भी वही चरण धूल चाहिये ।
ऋषि शतानन्द के नयनों से अश्रु बहनें लगे थे ।
बहुत देर बाद जबरदस्ती उठाया श्री राम नें ........और अपनें हृदय से लगा लिया ...............मै धन्य हो गया हूँ आज हे राघव !
इतना कहकर ऋषि शतानन्द वहाँ से जानें लगे ......पर फिर रुके ....और श्रीराघव से कहा .....आप अभी कहीं मत जाइयेगा .........जयमाला की विधि पूरी होनें दीजिये पहले ।
श्री राम जानें वाले थे अपनें गुरु विश्वामित्र जी के पास .......पर शतानन्द जी नें रोक दिया ।
जनकपुर की जनता में आज असीम उत्साह भर गया है ........
वे सब श्री राम के पास आना चाहते हैं ...........कोई वृद्ध हैं वो आशीर्वाद देंनें की कामना लेकर खड़े हैं ...........कोई कह रहा है ....मेरे जीजा जी लगते हैं ...........क्यों की मेरी जीजी हैं सिया जू ।
मेरे तो जमाई हुए .................महाराज की उम्र का हूँ मै ..........
वो जनकपुर के वृद्ध थे ..............उनको श्री राम जमाई लग रहे हैं ।
मै तो साली हूँ इनकी !
.......कुछ युवा मिथिलानी मटकते हुए यही कह रही थीं ।
पर ऋषि शतानंद नें रोक दिया, अभी कोई नही आएगा श्रीराम के पास ।
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महारानी ! आप क्या कर रही हैं अपनें आपको संभालिये !
ऋषि शतानन्द जी अब मेरी माता के पास में आये थे .......
जयमाला की विधि अब पूरी की जानी चाहिये .......ये आदेश दिया था ।
मेरी माता तो सब कुछ भूल गयी थी इस आनन्द में ........
मेरी माता सुनयना को अगर ऋषि नही बताते तो शायद ही उन्हें ये पता चलता कि ..........जयमाला भी पहनानी है ।
इस समय किसी को कुछ पता नही है .........सब श्री राम को देखते हुए मुग्ध हैं ..........इन राजीव लोचन नें मिथिला में जादू तो कर दिया था ।
जयमाल - ज्योतिर्मय रत्नों से तैयार यह जयमाला ..........ये तो तभी से बन कर तैयार था ......जब से मेरे पिता जनक जी नें प्रतिज्ञा की थी ।
एक सुन्दर सी सुवर्ण पेटिका में आई जयमाला........मेरी माता सुनयना नें उस पेटिका को खोला ........उसमें से जयमाल निकाली गयी ।
( एक माला किशोरी जी के हाथ में ही थी .......पर ये जयमाला है )
मेरे हाथों से फूलों की माला को लेकर मेरी माता नें मेरे हाथों में वो जयमाल पकड़ा दी थी ।
जाओ पुत्री सीता ! अवध नरेश चक्रवर्ती श्री दशरथ के इन बड़े पुत्र नें धनुष को तोड़ दिया है ..............ये बड़ा कठिन कार्य था ।
पर ये कठिन कार्य तो हमारी किशोरी जी पहले ही कर चुकी थीं .......कि एक हाथ से पिनाक को उठाकर रख दिया था ........
मेरी सखी हँसते हुए बोली थी ।
मेरी माता मुस्कुराईं .........और सखी को चुप रहनें के लिए कहा ।
ना ! अब हम चुप नही रहेंगीं ..............ये कहते हुए सब सखियाँ फिर हँसनें लगीं ...........मुझे डर लगनें लगा था ........ये अब कुछ भी बोलेंगीं कहीं मेरे श्री राघवेन्द्र को अच्छा न लगे तो !
मेरे हाथों में जयमाला दी गयी ............और मुझे अपनें हृदय से लगाकर माता सुनयना नें कहा ......पुत्री ! ये जयमाला श्री राम को पहना दो ..............ये कहते हुए मेरी माँ सुनयना के नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ......आनन्द के अश्रु .........।
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मै अपनी सखियों से घिरी हुयी चली ....................मेरी सखियों नें गीत गानें शुरू कर दिए थे .............
जब सामनें मंच पर मै आई ...........तब जाकर मिथिला वासी चुप हुये थे ............पर फूलों की वर्षा अभी तक देव कर ही रहे थे ।
श्री राम को ऐसा लग रहा था पता नही मुझे क्यों इस तरह खड़े रखनें का आदेश दिया ऋषि शतानन्द नें .........पर सामनें से मेरे प्राण धन नें मुझे देखा .......मैने उनकी आँखों में अपनें आपको देखा था ।
मै सुन्दर पाटलवर्णी साड़ी , अरुण उत्तरीय, वस्त्रों में झलमलाते रत्नाभूषण .......कोमलांगी मै ..........मृणाल करों में जयमाला थामें मै .....धीरे धीरे चले जा रही थी ...........ये सब मैने अपनें प्राणनाथ के नेत्रों में देखा था ........वो मुझे देख रहे थे .........मै भी देह सुध भूली, उन्हीं को देखे जा रही थी......मुझे सम्भाली हुयी थीं मेरी सखियाँ ।
मै कब पहुँच गयी थी अपनें प्रियतम के पास.....मुझे पता ही नही चला ।
मै अपनी भुज लताओं में जयमाला उठाये ......अपनें प्राण धन के सामने खड़ी हो गयी ............मेरी भुजाएं जयमाल उठाये ...............
पर ये क्या ! मेरे प्राणजीवन श्रीराघवेन्द्र तो बड़े हैं .............और ऊपर से ये एक हाथ का मुकुट और हैं .................
मुझे चिन्ता हो गयी ..................मै क्या करूँ ?
मुझ से जयमाला पहनाई नही जा रही थी .......क्यों की मै छोटी थी और मेरे प्राण जीवन मुझ से बड़े थे .........झुकना उन्हें अच्छा नही लग रहा था .......हाँ क्यों झुकें अपनी दासी के सामनें ...........मै तो इन रघुवर के चरणों की दासी ही तो थी ।
मै भी अपनी भुजाओं को उठाये रही .....................
""अरे ! आपतो बड़े निर्दयी हो""
ये किसनें बोल दिया था, पीछे से ! ......मैने देखा मेरी सखियों नें अब बोलना शुरू कर दिया था .............
झुको ! आप झुकिये ...............देख नही रहे ......हमारी किशोरी कितनी कोमलांगी हैं ............इनके हाथ दूख रहे होंगें .........झुकिये !
मेरी इन सखियों को आज क्या हो गया था !
ओह ! अब मै समझी ................ये रघुवंशी हैं ना ......स्त्रियों के सामनें नही झुकते ..............पर अजी ! हम कहे देती हैं ...........ये मिथिला है यहाँ अच्छे अच्छे ढीले पढ़ जाते हैं .......ये कहकर सारी सखियाँ खूब हँसी .............।
पर ये भी श्रीराम हैं ............ऐसे कैसे झुक जायेंगें ..............
सुनो ! हम कह रही हैं अकेले झुक जाओ ..............हमारी किशोरी जी के सामनें ..........नही तो ..........तुम्हारा जो दूसरा छोटा रघुवंशी हैं ना ....उसको भी हम झुका देंगीं .............ये कहकर उर्मिला को उस सखी नें छेड़ा ............उनको क्यों कह रही हो.............धीरे से उर्मिला नें उस सखी को कहा था ..........अच्छा ! छोटा राजकुमार तेरा !
मारूँगी ज्यादा मत बोलो ............उर्मिला शरमा गयी थीं ।
बहुत समय हो गया था ..............न मेरे प्राणनाथ झुकें ........न मुझ से पहनाई जाए जयमाला .........।
अब क्या करें !
सखियाँ भी थक गयीं गाते गाते ...........बोलते बोलते ।
अब तो मुझे ही कुछ करना था ...........मैने अब इधर उधर देखा .......मुझे दूर खड़े भैया लक्ष्मण दिखाई दिए .........
मैने इशारे में कहा ................कुछ तो सहायता करो भैया !
उन्होंने भी इशारे में ही पूछा .......मै क्या कर सकता हूँ .....
अब ये बड़े हैं ......छोटे होते तो आदेश दे देता ......पर मै स्वयं इनसे छोटा हूँ .............।
बात तो सही थी ................बात सही कहि थी लक्ष्मण भैया नें ।
पर लक्ष्मण भैया समझ गए .................उपाय उनको सूझा ।
वो दौड़े श्री राघवेन्द्र की और ...................
सब लोग देख रहे हैं कि अब क्या होगा ....अब क्या होगा ।
लक्ष्मण भैया दौड़ते आये .............और अपनें बड़े भाई श्री राघवेन्द्र के चरणों में ही गिर पड़े ..................
मुझे हँसी आरही थी .................मै भीतर ही भीतर हँस रही थी ।
अब उठाओ अपनें छोटे भाई को ........मैने मन ही मन कहा ।
कुछ झुंझलाहट सी हुयी थी मेरे श्रीराम को .............
मानों कह रहे हों .........लक्ष्मण ! सारी भक्ति ससुराल में ही सूझी थी !
पर लक्ष्मण भैया उठे ही नहीं .........मानों श्री राम के चरणों में ही समाधि लगा ली ।
अब तो झुकना ही था ............श्री राघवेन्द्र सरकार झुके ......अपनें भाई को उठानें के लिए .......सीता जी नें जयमाला ..........
रुको रुको ! मेरी एक सखी फिर आगे आगयी ....और मुझे जयमाला पहनानें से रोक दिया .............
लक्ष्मण भैया चरणों में हैं श्रीराघवेन्द्र के ......और श्री राघवेन्द्र झुके हैं अपनें भाई को उठानें के लिए ............।
उस समय मेरी वो सखी आजाती है .....और हँसते हुए कहती है ......देखो ! मैने आपसे कहा था ना राम जी ! कि अकेले झुक जाओ इज्जत बनी रहेगी तुम्हारे रघुवंश की ............पर हमारी बात आपनें मानीं नही ...............अब देखो रघुकुल के दो दो सपूत हमारी श्री सिया जू के चरणों में झुके हुए हैं ................ये कहते हुए उस सखी ने स्वयं ताली बजाई ..........और मुझे कहा ......आप अब पहना दो जयमाल ।
तभी मैने आनन्दित होते हुए ....वह जयमाला श्री राघवेन्द्र के गले में डाल दी .............।
चारों ओर से जय जयकार होनें लगे थे ....................लोग नाचनें और गानें लगे थे ............फूलों की वर्षा तो अभी भी हो ही रही थी ।
चरण छूओ जीजी ! उर्मिला नें मुझ से कहा था ।
पर मैने चरण नही छूए ।
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आपनें चरण क्यों नही छूए ?
जयमाला पहनानें के बाद अपनें स्थान पर आकर जब मै बैठ गई .......
तब उर्मिला नें मुझ से पूछा था ।
तूनें छूए क्या ? मुझे भी मजाक सूझा ।
मै क्यों छुऊँ ? उर्मिला नें मुझ से कहा ।
नही मै तो लक्ष्मण भैया की बात कर रही थी ..............
जीजी ! तुम भी इन सबकी तरह मुझे छेड़ती रहती हो ।
अच्छा ! अच्छा मै अपनी बहना को कुछ नही कहूँगी ।
मैने उर्मिला को प्यार किया ..................फिर उर्मिला नें मुझ से पूछा ....जीजी ! बताओ ना ............आपनें क्यों चरण नही छूए ।
तब मैने अपनें कँगन दिखाए थे उर्मिला को ..........पाषाण को छूआ इन चरणों नें, तो नारी प्रकट हो गयी .......और मेरे इन कँगन में अगर इनके चरण छु जाते .....तो कहीं.......इतना कहकर मैने अपना मुख छुपा लिया था ।
मेरी बातें सुनकर सब हँसी थीं....................
शेष चरित्र कल ..........
Harisharan
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