आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 12 )
तेहि क्षण राम मध्य धनु तोडा ...
( रामचरितमानस )
******* कल से आगे का चरित्र -
मेरी वो जनकपुर की सखियाँ !
हँसी आती है उनकी एक एक बातें याद करके ........
( ये लिखते हुए सीता जी हँसती हैं......उनको हँसता हुआ देख वो सामनें फुदक रही गिलहरी ख़ुशी से उछलती है ......वन के पक्षी चहक उठते हैं ......हिरण के बच्चे जब देखते हैं ...."वनदेवी" आज हँस रही हैं .....तो वह भी ऊँची छलाँग लगाते हुए इधर उधर भागते हैं और अपनी ख़ुशी का इजहार करते हैं .......मोर अपनें पंख फैलाकर नाच उठते हैं ......अरे ! उस समय तो पूरा वन प्रदेश ही उत्सव की ऊर्जा से भर गया था )
जब लक्ष्मण भैया क्रोध कर रहे थे ..........और चिल्लाकर भरी सभा में कह रहे थे ........मै इस पिनाक को इसके मञ्जूषा सहित ही उठाकर फेंक दूँगा ..........तभी मेरे पिता जी नें उच्च सिंहासन में बैठनें का आग्रह किया था .....ऋषि विश्वामित्र को ......और साथ में इन अपनें शिष्यों सहित ...........।
ये सब लिखते हुए मैथिली हँस रही हैं ................बड़े राजकुमार नें इशारा किया ..............आँखें तरेरी छोटे राजकुमार को .........
हाँ.......तुम मत तोड़ना पिनाक, नही तो....मै कंवारा रह जाऊँगा ।
पीछे से आकर मेरी सखी, मेरे कान में बोल गयी थी .......यही कह रहे हैं बड़े राजकुमार अपनें छोटे से....देखो ! देखो ....आँखें दिखा रहे हैं ।
होनें वाला ससुराल है.......ज्यादा नही बोलते.........पीछे से सखियाँ बोले जा रही थीं .......मुझे ही सुना रही थीं .........मुझे हँसी आरही थी उन बदमाश सखियों की बातें सुनकर ।
होनें वाले ससुर जी हैं ........ज्यादा नही बोलते ...........
ये सारी आवाजें मेरी सखियों की थीं ...जो पीछे से कुछ न कुछ बोले जा रही थीं .............चुप रहो ..........मैने एक बार पीछे मुड़कर देखा ....और इशारे में ही कहा था ....चुप रहो ।
ओह ! बुरा लग गया ................अभी से बुरा लग गया ..........
चुप रहो ........कितना बोलती थीं मेरी सखियाँ..........।
उच्च सिंहासन में विराजे हैं अब ऋषि विश्वामित्र और उनके आजु बाजू दोनों अयोध्या के राजकुमार ..............
सभा स्तब्ध है ...............अभी भी छोटे राजकुमार के नथूने फुले हुए हैं.....क्रोध अभी भी है.........पर मर्यादा के चलते चुप हो गए हैं ।
सब की दृष्टि अब राजकुमारों पर ही टिक गयी है .........कि आगे अब क्या होगा ....................तभी -
*******************************************************
हे राम ! उठो और पिनाक को तोड़ दो ।
ऋषि विश्वामित्र नें आदेश दिया था ।
सब लोग देख रहे हैं .........श्री राम उठे .....................
अपनें गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया....और पिनाक की ओर बढ़ चले ।
मै अपनें पिता जी को देखनें लगी थी ...........कि इनको देखकर पिता जी की मानसिक स्थिति कैसी हो रही है .।
मेरे पिता जी प्रसन्न थे ..............वो कभी हाथ जोड़ रहे थे अपनें आराध्य भगवान शंकर को .......तो कभी श्री राम को देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ रहा था .............उनको लग रहा था .......मै कहूँ सावधानी पूर्वक पिनाक उठाना ..........पर कह नही पाये ......क्यों की कहीं ये कहना भी इनको बुरा न लग जाए ............मेरे पिता जनक जी आज तनाव भरी मानसिक स्थिति से गुजर रहे थे ..........क्यों की अब यही श्री राम ही अंतिम आस थे ........अगर इनसे पिनाक नही टूटा तो उनकी बेटी जानकी कंवारी ही रह जायेगी ...........।
मै अपनें पिता जी को जानती हूँ.......बेटी ही तो जानती है अपनें पिता को .....मै देख रही थी........अपलक नेत्रों से मेरे पिता श्रीराम को देखे जा रहे थे..........उनके चेहरे में विभिन्न भावों का उदय हो रहा था.........ये उत्तरीय बाँध लो वत्स ! इस पीताम्बरी को कमर में कस लो ............या मेरे पिता को लग रहा था ........पीताम्बरी को कस लेंगे तो शायद कुछ शक्ति आजाये ......और पिनाक टूट जाए .....।
हाँ ......पिनाक तो चिन्मय है ना ............एकाएक ये विचार भी कौंधा होगा मेरे पिता के मन में ............वो हाथ जोड़कर कुछ ही क्षण प्रार्थना की मुद्रा में आगये थे ..........मानों मुझे तो लगा ......पिनाक की ही स्तुति कर रहे थे ...............हल्के हो जाना पिनाक ।
राजिव नयन श्री राम मत्त गज की तरह शान्त भाव से चल रहे थे ...पिनाक की ओर .........
हाँ उस समय उन के मुख मण्डल में न ख़ुशी थी ......न चिन्ता ।
जैसे कोई महायोगी ! ऐसा मुख मण्डल था उस समय श्रीराम का ।
मै देख रही थी .........................
*****************************************************
महारानी सुनयना रो रही हैं ......उनके रोनें की आवाज आरही है ।
चुप हो जाओ ! महारानी ! सब ठीक हो जाएगा ।
मैने भी सुना मेरी माँ सुनयना रोनें लगी थीं .............
उनकी दासियाँ उन्हें समझानें में जुटी हुयी थीं ...........
अब क्यों ये नाटक करवा रहे हैं महाराज !
ये राजकुमार तो फूलों से भी कोमल हैं ............ये भला तोड़ पायेंगें इस पिनाक को .............क्यों हँसी का पात्र बना रहे हैं महाराज हमें ।
मेरी माँ का वात्सल्य प्रकट हो गया था श्री राम के प्रति ........।
अरे ! बड़े बड़े वीर, बड़े बड़े महावीर इस पिनाक को कम्पित भी नही कर पाये .........अरे ! रावण कोई कम वीर तो था नही .....पर क्या उस रावण से भी ये पिनाक कम्पित हुआ ..........नही हुआ ना !
फिर ये सुकुमार राजकुमार क्या उठा पायेंगें पिनाक को ........बन्द करो ये नाटक .......बन्द करो ।
महारानी ! आपकी पुत्री जानकी भी तो सुकुमार हैं ............आपकी पुत्री जानकी भी तो फूलों से भी ज्यादा कोमल हैं ............क्या राजकुँवरी नें पिनाक को नही उठाया .......?
हाँ ये तर्क ठीक दिया था माँ की एक दासी नें ..............।
छोटा कहकर किसी की अवहेलना तो उचित नही है ना ?
मन्त्र छोटा ही तो होता है .........पर क्या वो छोटा मन्त्र देवों को वश में नही करता ?
अंकुश कितना छोटा होता है महारानी ! पर बड़े बड़े हाथियों को भी वश में कर लेता है ............।
इसलिये कोई छोटा है कहकर उसकी अवहेलना न की जाए .........
और आगे क्या पता ...............विधाता नें क्या लिखा है ........।
उन ज्ञान वृद्ध दासी नें जब मेरी माँ सुनयना को इस तरह समझाया .....तब जाकर शान्त हुयी थीं मेरी माता ।
******************************************************
मै देख रही थी ..........मेरे समस्त नगर के गणमान्य व्यक्ति सब उस सभा में उपस्थित थे ..........और सब लोग हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे ...........कोई कोई तो अपनें जीवन का समस्त सुकृत ही श्री राम को दे रहे थे ...........इसलिये ताकि वो पिनाक को तोड़ सकें....।
कितना स्नेह था मेरे जनकपुरवासियों का मेरे प्रति ।
श्री राघवेन्द्र पिनाक के पास जाकर खड़े हो गए थे ......गम्भीर मुद्रा में ।
उन्होंने एक बार चारों और देखा था ..............फिर अपनें गुरुदेव को प्रणाम किया ।
उफ़ ! मेरी तरफ़ भी उन्होंने देखा ..................
मैने तुरन्त अपनी आँखें बन्द कर लीं ...............
हे गणेश जी ! कृपा करो .............हे गणपति! कृपा करो ........
मैने प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी .............
आपके पिता जी का ही पिनाक है ना ये ..........आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं ...........आप आज मेरे ऊपर कृपा बरसायें गणपति ।
मुझे कोई अहंकार नही है कि मै निष्काम भक्ता हूँ आपकी ..........मै सकाम हूँ ..........और ये कहते हुए मुझे खराब भी नही लग रहा ।
हाँ मै कह रही हूँ आपको हे गणपति ! मैने आज तक जितनी आपकी सेवा की है ....उसके फल स्वरूप मुझे आपसे आज यही चाहिए .....कि पिनाक इनके हाथों टूट जाए ..........बस इतना दे दो मुझे ।
हे पिनाक ! अब मै पिनाक से ही प्रार्थना करनें लगी थी ।
हे शिव धनुष ! मुझे देवर्षि नारद जी नें कहा था ......आप जड़ नही हैं आप चिन्मय हैं...........फिर तो आप मेरी प्रार्थना भी सुन लेंगें ना !
तो हे पिनाक ! मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि .......मेरे प्राण श्रीराम अभी जब आपको छुएंगे .......तभी आप फूलों के समान हल्के हो जाना ............क्यों की मेरे प्रभु श्री रम कोमल हैं ........इनके छूते ही आप स्वयं ही उठ जाना..........मेरी इतनी ही प्रार्थना है आपसे .....।
इतना कहकर मैने अपनें हाथों में जयमाला उठा ली ...........
सखियाँ बोलीं .......जयमाला क्यों ? अभी तो पिनाक टूटा नही है ।
अब टूटेगा................मैने पूर्ण विश्वास से कहा ।
वरमाला से मै अपनें श्री राम को देखनें लगी थी ..................
श्री राम नें फिर मेरी ओर देखा ....................
उनका वो प्यारा मुख मण्डल ..............उनके वें नयन .....उनका वो वक्ष ......उनकी वो पीताम्बरी......उनकी वे घुँघराली अलकें ........उनके वो बाहु विशाल ।
बस एक क्षण के लिए ही रुके होंगें वो राजीव नयन ..........
एकाएक विद्युत की भाँति पिनाक को एक ही हाथ से उठा लिया ....
और एक तरफ के भाग को धरती में टिकाकर .............उसकी डोरी दूसरे भाग में बाँधनें के लिए जैसे ही पिनाक को झुकाया .........
एक तीव्रतम ध्वनि के साथ ............ऐसी भीषण आवाज थी जैसे हजारों ज्वालामुखी फूट पड़े हों ........ भीषण विस्फोट हुआ हो ऐसा सबको लगा ...............पिनाक को तोड़ कर फेंक दिया श्री राम नें ।
धरती काँप गयी ..............चाँद तारे इधर उधर हो गए ............सूर्य अपनी गति भूल गया ..............ब्रह्माण्ड कम्पित हो गया .......।
ओह ! उस समय मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ...........आनन्द की मात्रा ज्यादा हो गयी थी ...........आनन्द के आँसू सबकी आँखों में थे ........
फूलों की वर्षा आकाश से होनें लगी थी .............
शहनाइयाँ बज उठी थीं ................मंच से कूदकर छोटे राजकुमार नीचे आगये थे ........और वो छाती तान कर सबको ऐसे देख रहे थे .....मानों कह रहे हों ........देखा ! मेरे श्री राम को ..............
मेरी सखियाँ उछल रही थीं ..................मेरे समझ में नही आरहा था कि मै क्या करूँ .........मेरा मन कर रहा था मै नाचूँ ! मै गाऊँ .......मै ख़ुशी मनाऊँ .................पूरा जनकपुर झूम उठा था ।
श्री अवधेश कुमार की ...जय .........
जयकारा लगवा रहे थे लक्ष्मण भैया ।
और सब लोग "जय जय जय" किये जा रहे थे ।
श्री कौशल्या नंन्दन की .....जय ......
श्री चक्रवर्ती कुमार की ....जय ......
श्री राघवेन्द्र प्रभु की ......जय जय जय जय ...............
शेष चरित्र कल...........
Harisharan
0 Comments