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"जनकपुर की राजदेवी" - एक कहानी

आज के विचार

("जनकपुर की राजदेवी" - एक कहानी )

सहज स्वभाव पर्यो नवल किशोरी जू को....
( श्रीहित ध्रुव दास )

कहाँ गयी  वो त्रिजटा ?   वो लंका की राक्षसी.......जगज्जननी श्री किशोरी जी   के साथ यही तो थी......लंका में.....अशोक वाटिका में ।

सरजू के किनारे मै भ्रमण कर रहा था.....बात है ये  रामनवमी की ।

तब मेरे साथ  एक अच्छे  वृद्ध रामायणी थे ...........वो मेरे साथ ही  सरजू जी की   शीतल और पावन हवा का आनन्द ले रहे थे ।

कहाँ गयी  वो त्रिजटा ?  क्या लंका में ही रही  ?   उसनें एक बार भी  श्रीकिशोरी जी से नही कहा - मै आपके साथ चलूंगी  ?

मेरे साथ वही  रामायणी जी थे ......ये प्रश्न भी मैनें उनसे ही किया ।

आपको क्या लगता है   पण्डित जी !    वो मुझे पण्डित जी ही कहते थे ।

उस त्रिजटा नें नही कहा होगा  ?      वो राक्षसी थी .......पर राक्षस कुल में भी  तो बड़े बड़े भक्त हुए हैं ...........ये बात  आप भली प्रकार जानते ही हैं .....।

सरजू  जी   की   वह शीतल हवा   मुझे बहुत प्रिय लग रही थी..........

और सहजता से  वो  रामायणी बाबा  बड़ी अच्छी एक कथा सुना बैठे ।

चलिये  आप भी सुनिये ...............................

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श्री किशोरी जी   चल पडीं थीं  अशोक वाटिका से ...........

अशोक वाटिका  के वृक्ष सूखते जा रहे थे ........जैसे जैसे श्री किशोरी जी  जा रही थीं ..........राक्षसियाँ पँक्तिबद्ध होकर खड़ी थीं ...........और बारी बारी से   किशोरी जी के चरण का स्पर्श करनें की कोशिश करतीं .....पर  श्री किशोरी जी  उन को उठाकर अपनें हृदय से लगा लेतीं  ।

सब राक्षसियाँ  सुबुक रही थीं ..................कोई  राक्षसी तो   चरणों में गिर कर बारम्बार क्षमा याचना कर रही थीं ........।

नही ......तुम्हारा क्या दोष  ?       माता मैथिली की  वात्सल्यमयी वाणी उस  अशोक वाटिका नें  अंतिम बार सुनी थी ......।

तुम्हे तो आदेश था  अपनें राजा का ..........तुमनें तो  अपनें राजा के आज्ञा का पालन ही किया है । .........मानों अमृत घुल रहा हो कानों में .....इतनी मधुर आवाज  ।

पर  इतना ही नही ............किशोरी जी नें चारों ओर देखा था ........पवनपुत्र नें  पूछा  - माँ   क्या देख रही हैं आप  ?  मुझे तो ऐसा लग रहा है किसी को खोज रही हैं  ?

हाँ  पवनपुत्र !   मै खोज रही हूँ .......मेरी  वो  लंका में अच्छी मित्र थीं ....अच्छी  अभिभावक के रूप में थीं.......मेरी अच्छी परामर्शदाता थीं ।

जगज्जननी  का स्नेहसिन्धु उमड़ पड़ा था .............एक  राक्षसी को भी  इस तरह का आदर देना  तो  ये  श्रीकिशोरी जी से ही सम्भव है ।

बताओ ना !  कहाँ है  वो    त्रिजटा ?     बिना  त्रिजटा से मिले .....कैसे चलीं जाएँ  किशोरी जी ।

पर  वो नही आयेगीं   देवी !     एक राक्षसी नें  सिर झुकाकर कहा ।

क्यों नही आएँगी ?      तुरन्त प्रश्न किया था  सीता जी नें ।

इसलिये नही आएँगी .........क्यों की  वो  आपके वियोग में तड़फ़ रही हैं  देवी !     उन्होंने अन्न जल का परित्याग कर दिया है .......

"मेरी मैथिली चली जायेगी"............बस यही कह कह कर  उनके आँसू नही रुक रहे ...............एक  राक्षसी नें,     जो त्रिजटा के सबसे करीब थी .........उसनें ये सारी बातें बता दी थीं  ।

नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे  वात्सल्यमयी  किशोरी जू के .......ओह !

बुलाओ उसे.....त्रिजटा को बुलाओ .......ये आदेश था सिया जू  का  ।

जैसे तैसे  आ तो गयी .....त्रिजटा ...........पर  शरीर में अब हिम्मत नही है ..........मेरी मैथिली !   तू चली  जायेगी ?      फिर इस त्रिजटा का क्या होगा  ?        मै तो प्राणों को त्याग दूंगी ..........सच कह रही हूँ .....।

ये कहते हुये   त्रिजटा गिर गयी थी   .....उसे देह की सुध कहाँ ? 

तो तू क्या चाहती है  ?    बोल  !    किशोरी जी   के दरवार में  दीनों का ही तो आदर है ..................किशोरी जी नें जब  "अपनी इच्छा बता" ......ये कहा त्रिजटा से .......तब त्रिजटा बोल उठी ..............

मुझे अपनें साथ अयोध्या ले चलो !     मै नही रहूँगी  इस लंका में  ।

बस मैथिली !   मेरी  इतनी बात मान लो ........कृपा करो मेरे ऊपर ।

अच्छा !   ठीक है ..............आजाना  अयोध्या  ।       स्पष्ट वाणी प्रकटी थी  जगज्जननी की ................।

नही ........मै ऐसे  नही  आसकती ...............न आऊँगी ।

हे मैथिली !   तू अपनें साथ ही ले ले मुझे ..............नही तो .....त्रिजटा  का  शरीर ही पड़ा मिलेगा  लंका में ..........प्राण निकल जायेंगें  ।

तू चल मेरे साथ !.............मै तुझे ले जा रही हूँ  अयोध्या !   चल !

किशोरी जी तो करुणा के वश में  हैं ..........।

त्रिजटा  आनन्दित होगयी ........मैथिलि को  अपनें हृदय से लगाया था त्रिजटा नें .............।

पर पवनपुत्र  अपनें आँसू पोंछ रहे थे .......... मृदुता, दयालुता, कृपालुता की राशि किशोरी जू का ये रूप कहाँ देखा था  पवनपुत्र नें  ।

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फिर क्या,   त्रिजटा आगयी  अयोध्या  ? 

      मैने उन रामायणी जी से पूछा था ............जो मुझे सरजू के किनारे ये कथा सुना रहे थे ।

हाँ ......श्री किशोरी जी नें   भगवान श्री राघवेन्द्र को कहकर  पुष्पक विमान में  ही  त्रिजटा को  भी बैठा लिया .........और  सबके साथ वो भी आगयी थी  अयोध्या  ।

पर ये कथा का प्रमाण क्या है  ?

मैने उन  रामायणी जी से पूछा  ।

मैने  किसी प्राचीनतम ग्रन्थ में  ये कथा नही पढ़ी है .........पर  मैने जिनसे  रामचरित मानस को पढ़ा ......उन मेरे गुरुदेव नें मुझे ये प्रसंग बताया था  ............वैसे पण्डित जी !   मेरा तो एक ही सिद्धान्त है ....सन्त जो कह दें   वही प्रणाम है.......सन्त की वाणी ही प्रमाण है ।

मै इसके आगे कह ही क्या सकता था .......बात  सही थी ........।

फिर आगे क्या हुआ  जब वो अयोध्या आई .....और अयोध्या में रही ?

मैने  उन रामायणी जी से  फिर पूछा ।

....मुझे भी लगा  कि मैने बेकार में ये प्रमाण वाली बात उठाकर कथा  की धारा में विघ्न डाल दिया ।

आप जितनें अच्छे वक्ता हैं  उतनें ही अच्छे श्रोता भी हैं  पण्डित जी ! 

इतना कहकर   वो फिर  आगे के प्रसंग को सुनानें लगे  थे ।

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समय बीतता जा रहा है ......त्रिजटा के भी   अयोध्या रहते हुए  बहुत  समय बीत  चुका था ..............एक दिन -

भक्त है  त्रिजटा  .......कोई योगी  या ज्ञानी तो नही  ..............

भक्त का कोई मापदण्ड तो होता नही है ........

.........ये बात  वो रामायणी  जी ही   बता रहे थे ...........।

भक्त के मन में  काम, क्रोध , लोभ,मोह, ....ये  सब हो  तो भी वह भक्त तो रहता ही है ...........समझे  पण्डित जी !    रामायणी जी का कहना था ।

देखो !  भक्त  कोई भी हो सकता है .............घास खानें वाला भी भक्त हो सकता है ......तो माँस खानें वाला  भी  भक्त हो सकता है  ।

बड़ी  विशाल दृष्टी लिए थे     ये रामायणी जी  तो ।

क्या आपको पता नही है.......भागवत में लिखा है  वृत्रासुर के बारे में ....और ये वृत्रासुर  राक्षस था .......ये लोगों को खाता था .....कच्चा ।

पर भागवत कहती है.......वृत्रासुर न हो  तो  भागवत , भागवत ही न हो ।

है की नही पण्डित जी ?    रामायणी जी बड़े विद्वान हैं ...........।

अब ये  भक्त है ....भक्ता है ............त्रिजटा ........कोई  ज्ञानी  या  योगी नही है   कि ....इसके मन से हिंसा चली गयी हो ...या  क्रोध समाप्त हो गया हो .......नही ..........वो उसके संस्कार हैं ... राक्षसी संस्कार ।

पंडित जी !   एक बार.......  अयोध्या का शाकाहारी भोजन कर कर के   ये त्रिजटा परेशान हो गयी थी...........इसके पूर्व संस्कार जाग उठे ।

ये  त्रिजटा  एक दिन अयोध्या से थोडी दूर चली गयी............वहाँ  एक ब्राह्मण रहते थे .......उनका एक ही पुत्र था ......सुन्दर था  .....अत्यंत कोमल उसका शरीर था ......त्रिजटा नें  देखा  उसे ......अकेला था ....पकड़ा ......और खा गयी  ।

फिर  !  आगे क्या हुआ  रामायणी  जी !     मैने पूछा था  ।

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हे राम !   ये  राक्षसी ,   मेरे इकलौते पुत्र को खा गयी है .......

आप न्यायप्रिय हैं ....न्याय कीजिये  !

त्रिजटा नें जिस ब्राह्मण बालक को खाया था ......उस का पिता ही  श्रीराम की  सभा में  आज  उपस्थित हुआ था  ।

अपनें वाम भाग में बैठीं  मिथिलेश दुलारी को देखा था भगवान राम नें ......क्यों की लंका से  अवध  इनकी करुणा ही  इसे  लेकर आई थी ।

बोलिये  श्री राम !     क्या न्याय करेंगें  ?

भगवान श्रीराम नें कहा ...मै इसे अभी  अपनें  अवध से निकाल रहा हूँ...

अभी .....इसी समय.......

.....बाकी  आप कुछ ओर   चाहते हैं   हे विप्रवर !  तो कहिये  !  

प्रणाम करके  निकल गए  वो ब्राह्मण ...........क्या कहते ........इस राक्षसी को मार कर   भी अपना पुत्र तो  मिल नही सकता था ।

त्रिजटा  बहुत दुःखी हो गयी ...................उसे  आदेश मिल गया था राजा राम का .......कि  तुम्हे अवध से अब निकलना ही होगा  ।

राजा राम की आज्ञा ?    क्या काल भी टाल सका है ...........!

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महल में आई थी त्रिजटा    अपनी प्राण मैथिली से मिलनें  ।

पर एक बार तो मना कर दिया मिलनें से ..........किशोरी जी नें .....।

पर बाहर  द्वार में  बहुत रोई थी... .....मैथिली !  बस एक बार !   एक बार मै तुमसे मिलना चाहती हूँ ............ऐसा मत करो मेरे साथ ..........मेरा कोई नही है इस जगत में ......अपना सिर पटक रही थी त्रिजटा ।

तभी ...........त्रिजटा !  क्यों किया तुमनें ऐसा ?       क्या इस हिंसात्मक वृत्ती को तुम खतम नही कर सकतीं  ?

नही .........मै   राक्षसी हूँ  मैथिली !    माँसाहार और हिंसा  हमारे खून में है .............और हम ये करें  तो हमें पाप भी नही लगता .......क्यों की हमारा आहार ही यही है  ।

हम लोग रजोगुणी और तमोगुणी हैं .........सत्वगुणी  हम  इस  राक्षसी जन्म में तो हो नही सकते.............।

भूख लगी थी मुझे...........मैने उस  मानव को देखा .......खा लिया ।

कोई  मारनें के लिए नही मारा था मैने......खानें के लिए मारा था ......।

और माँसाहार हमारा आहार है ..............हम  राक्षसी हैं  मैथिलि ।

त्रिजटा रो गयी .................मेरे कारण  तुमको कल लज्जित होना पड़ा ना  ...........कल सभा में .............क्यों की  राजा राम तुम्हारी ओर ही देख रहे  थे ..............मुझे क्षमा कर दो मैथिली ...........।

कुछ नही बोलीं ...........सीता जी  ।

त्रिजटा नें हाथ जोड़े  और कहा ..........मैथिली  !    जिस भूमि में  तुम्हारी सुवास हो ....सुगन्ध हो ......उस भूमि में मुझे भेज दो ............।

सीता जी नें  त्रिजटा की ओर देखा .................क्या ?   

तुम जनकपुर जाओगी ?        त्रिजटा ! मेरी प्यारी जन्मभूमि में  रहोगी ?

बोलो ? .............

तुरन्त  सीता जी को खींच कर अपनें हृदय से लगा लिया था ........त्रिजटा नें .......मैथिली !  तुम्हारी जैसी करुणा इस विश्व् ब्रह्माण्ड में किसी के हृदय में  नही है .....................

पर मेरी बात का उत्तर नही दिया ...........मेरे मायके जाकर रहोगी ?

सीता जी नें  इतराते हुए पूछा.............स्पष्ट बोलो  ना त्रिजटा ?

हाँ ...हाँ ...हाँ........मै तुम्हारे  जनकपुर में रहूँगी.......पर तुम मैथिली ?

मै  एक रूप से वहीँ तो हूँ ..........मैथिली नें  मुस्कुराते हुए कहा था ।

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आगयी थी त्रिजटा जनकपुर में ..........पर   किशोरी जी जिसे चाहें  उसे  कुछ भी   बना सकतीं हैं .........सबकुछ करनें वाली यही तो हैं ।

उन रामायणी जी नें सरजू के किनारे टहलते हुए मुझे बताया .।

राजदेवी !    तुम पूज्या  होगी ..............तुम्हारी जो पूजा करेगा ...उसकी हर मनोकामना पूरी होगी ...........सीता जी नें   "अपने जनकपुर"  आगमन पर ही त्रिजटा को  ये आशीर्वाद दे दिया था  .....

तुम्हारा नाम होगा ....राजदेवी !      भद्रकाली,  चण्डिका, कुमुदा  इन देवियों की तरह ही  तुम भी बलि स्वीकार करोगी  ।

क्यों की माँसाहार के बिना तुम रह नही सकती ।

इसलिये किशोरी जी नें त्रिजटा को ये व्यवस्था बना कर दी थी  ।

पण्डित जी !     आप जनकपुर नेपाल गए हो .......तो  आपनें वो मन्दिर देखा होगा ........राजदेवी का  ?    मुझ से रामायणी जी नें पूछा ।

हाँ ......रामायणी जी !   मैने श्री राम कथा भी सुनाई है  उसी क्षेत्र में ।

और मुझे अनुभव भी हुआ है ...............कि .............

क्या अनुभव हुआ है  आपको  ?     मुझ से पूछा  ..............

मैंनें कहा ..........रामायणी जी !    मुझे  किशोरी जी की कृपा का अनुभव हुआ था ..............कि एक त्रिजटा राक्षसी को भी अपनें मायके में लाकर ......देवी के रूप में स्थापित  करनें वाली   हमारी  श्रीकिशोरी जी की करुणा  अपरम्पार है ............।

हाँ ..........सही कहा   पण्डित जी ! आपनें ..........ऐसी  देवियाँ तो हमारी श्रीकिशोरी जू के एक नख चन्द्र छटा से प्रकट होती रहती हैं ।

रामायणी जी नें  ये विचित्र प्रसंग मुझे सुनाया था ...........सरजू के किनारे ..................

अब कोई मुझ से ये कहे कि प्रमाण क्या है  इस कथा का ........?

किस शास्त्र में लिखी है ये कथा .............? 

तो मेरे भाई !   सन्तों की वाणी ही सबसे बड़ा प्रमाण है .......

सहज स्वभाव पर्यो नवल किशोरी जू को,
मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि हैं ।

रामायणी जी को मैने ये पद सुनाया था .......सरजू जी के किनारे ।

Harisharan

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