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"साधो ! बनो संयमी" - एक कहानी

आज के विचार

("साधो ! बनो संयमी" - एक कहानी )

दम  इन्द्रिय संयमः
( योगदर्शन )

तुम्हे अध्यात्म में उन्नति करनी है ......तो इन्द्रियों का संयम करो ।

तुम्हे शरीर को स्वस्थ रखना है .....तो इन्द्रियों का संयम करो ।

तुम्हे समाज में  यश कीर्ति की चाहना है ......तो इन्द्रियों का संयम करो ।

विचित्र अवधूत  थे..........जो भी पूछो   बस एक ही जबाब .....इन्द्रियों का संयम करो ................।

हाँ .........बात है  3 वर्ष पहले की........हम गोवर्धन परिक्रमा करनें गए थे .....मेरे साथ में कई  लोग थे .....उनमें  से एक  नागा साधू  भी था  ।

वैसे उसका कहना था कि आपनें ही मुझे नागा बनाया है ..........जब जब उसे  दिक्कतें आती थीं .........तब तब वो यही कहता था  ।

मेरे मुँह से वैराग्य की बातें सुनकर   वो नागा बन गया था  ।

जोश में बना था,    होश में नही   ।

वो भी मेरे साथ  था  .................अवधूत थे  वो ,    गिरिराज  जी की तलहटी में ही विराजते थे ...............अद्भुत थे    ।

मेरे साथ के नागा नें  मोबाइल से  उन महात्मा जी का फोटो खींच लिया था ..........."बेकार में किसी को  डिस्टर्व क्यों करते हो  ?"

मोबाईल से स्वयं का  फोटो खींचनें पर .......कुछ नाराज से हो गए थे ।

पर साधू का नाराज होना क्या  ?       

अच्छा क्या पूछना चाहते हो  !......अवधूत  के आगे  वही नागा था ।

मै कुछ बोलनें के लिया आगे बढ़ा .......तो मुझे  चुप करा दिया .....बोले ...तुम  पहुँच चुके हो ........इससे बात करनें दो .......ये नया नया नागा बना है   ........मै चुप हो गया  था  ।

आध्यात्मिक उन्नति कैसे हो  ?  नागा नें पूछा था  ।

"इन्द्रियों का संयम करो".........अवधूत जी नें उत्तर दिया  ।

नागा नें मेरी ओर देखा .................मैने  उसे इशारे में कहा .......कितनी सही बात कही है ............।

फिर दूसरा प्रश्न  नागा का ही था ..........शरीर स्वस्थ रहे  इसके लिए ?

इन्द्रियों  का संयम करो ...........वही उत्तर  ।

"मन नही लगता है  भजन में"

...रटा रटाया प्रश्न था ......नागा का ......वो अवधूत जी मेरी ओर देख कर हँसनें लगे ........

अरे ! यार !    जो     लगता है पहले उसे तो लगाओ  ..........

नागा नही समझा ........पर  मुझे  बहुत आनन्द आया  इस उत्तर में ।

क्या बात कही है.......मैने उन अवधूत जी के चरणों में प्रणाम किया ........उन्होंने  अब मुझे उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया था  ।

तुम बाबा जी हो  ?   उन अवधूत नें मुझ से पूछा ............

मैने बड़ी विनम्रता से  हाथ जोड़कर कहा .......नही ,  मै गृहस्थ हूँ ......पर ये  साधू है  और  नागा भी है.........नागा नें मेरी तरह ही  हाथ जोड़कर प्रणाम किया ......पर उसकी ओर ध्यान नही था   अवधूत जी का ।

पर  सच्चे बाबा जैसे तो तुम लगते हो .......ये तो पूरा गृहस्थ लगता है  !

देखो !  तुम्हारे कान में भी कुछ नही है....उँगलियों में भी कोई अँगूठी नही है ....मोबाइल का प्रदर्शन भी नही है ......और  अंदर से ठहरे हुए हो  ।

और इसको देखो ........कानों में भी सोनें के कुण्डल !   अवधूत बोले ।

ये जो  कान के कुण्डल हैं..... जो सोनें के  हैं .....ये किसी भक्त नें मुझे  दिया था ...प्रेम से दिया था  तो मैने लगा लिया ..........नागा नें अपनी सफाई दी ।

कोई प्रेम से सूगर देगा ......पालोगे  ? 

   अवधूत की भाषा कोई लाग लपेट की भाषा तो होगी नही...सीधे बोले ।

नागा को बुरा लगा ..........वो सुस्त होकर बैठ गया ............

तब बड़े प्रेम से  उसको समझाते हुए वो अवधूत साधू बोले थे ........

देखो !   नागा !       इन्द्रियों का संयम अगर जीवन में नही है .....तो तुम कुछ भी  उन्नति .....चाहे वो आध्यात्मिक उन्नति हो  या भौतिक,  कुछ भी नही कर सकते ..........समझो इस बात को  ।

देखो !    आज   जिधर देखो   महात्माओं की निन्दा हो रही है .........अब निन्दा करनें वाले ही  गलत हैं ......ऐसा तुम नही कह सकते .......।

निन्दा करनें वाले भी तो कुछ देखकर सुनकर ही   निन्दा कर रहे हैं ......कमी हममें होगी ना .........तभी तो निन्दा के पात्र हम लोग होते जा रहे हैं ......है ना  !     कितनें प्रेम से समझाया था  उन सिद्ध अवधूत नें ।

हमेँ गिरिराज जी की परिक्रमा भी करनी थी ..........तो हम उन अवधूत जी   को  प्रणाम करके  आगे निकल गए  ।

*******************************************************

क्या  बेकार महात्मा थे......हर  प्रश्न का उत्तर यही ....  बस यही .....कि संयमी बनो ।

नागा हँसा था........गोवर्धन की परिक्रमा हम लोगों नें शुरू कर दी थी ।

नागा नें  अपनें जैसे लोगों को इकट्ठा कर लिया था ..............फिर वो सब लोगों   को   लेकर मेरे पास आया...........वो परिक्रमा में  कभी हमसे आगे ..........तो कभी हम से पीछे चल रहा  था  ।

एक कहानी सुनाता हूँ  महाराज  आपको.......हँसते हुए नागा बोला था ।

एक वैद्य जी थे ...........उनके पास  कोई गया .......और उसनें जाकर कहा ......मुझे बुखार है वैद्य जी  !     वैद्य जी नें अपनें बेटे से कहा....इसको  दस्त की पुड़िया दे दो  ।

नागा के साथ जितनें थे  सब हँसे ..............फिर हँसते हुए नागा बोला .....महाराज !     एक दूसरा मरीज आया .....वैद्य जी !   मेरा सिर दूख रहा है .......वैद्य जी ने कहा ......इसे  दस्त की दवा दे दो ।

और हद् तो तब हुई .........जब एक महिला नें आकर कहा .......मेरे बेटे को  सर्दी  खाँसी हो गयी है .......तब भी  उन वैद्य जी नें अपनें बेटे से  यही कहा ......बेटे !   दस्त होनें की दवा  दे दो  ।

नागा हँसा ......उसके साथ के सब हँसे ..........

फिर नागा बोला -  ऐसे वैद्य जी  सफल होंगें ?  मुझे तो लगता है - नही  ।

कम ही असफल होते होंगें  ऐसे वैद्य लोग  ........मैने कहा  ।

क्यों ?     नागा नें पूछा  ।

मैने कहा ..............तुम ये कहानी मुझे इसलिये सुना रहे हो ना .....कि उन सिद्ध अवधूत बाबा नें    तुम्हे  हर समस्या का समाधान संयम बता दिया ..........है ना  ?

अब  सुनो  नागा !      उस वैद्य के बारे में ..........जो हर रोग के लिए दस्त की ही दवा देता था .............

पता है तुम्हे ......सारे रोग  पेट से ही निकलते हैं  ! 

अगर पेट साफ़ नही होता .....कब्ज की शिकायत रहती है ......तो  रोग वहीँ से पनपते हैं ................।

पेट साफ रहे ................तो  सम्पूर्ण शरीर ठीक रहता है ...........बाकी थोडा बहुत  रोग कहीं है ......तो  दवाओं में   परिवर्तन करके    दूसरी दवाई दी जा सकती है .........पर  मेरी दृष्टि में तो     वो वैद्य जी ही सफल हैं .....जो जड़ का ही इलाज कर रहे हैं  ।

ऐसे ही  नागा जी !   वो   अवधूत थे ना ....सिद्ध थे ........उन्होंने  मूल बात ही बता दी  तुम्हे .......वो चाहते  तो  तुम्हारी वाह वाही भी कर सकते थे .......पर नही किया ।

क्यों की  वो  तुम्हे  सच्चा  साधू , सच्चा महात्मा, सच्चा बाबा , और सच्चा नागा बनाना चाहते थे ....इसलिये   उन्होंने  तुमको ये शिक्षा दी  ।

संयम  अगर जीवन में आजाये ....तो वह कहीं भी असफल नही होगा ।

इसपर विचार करो ...........मैने कहा  ।

पर  संयम से रोग कैसे ठीक होंगें  ?    और   संयम से कोई कैसे  ग्रह गोचर के  कोप से बच जाएगा .....क्या  संयम करनें से.. ...ग्रह  दूसरी राशि में चले जायेंगें  ?   

ये तर्क था नागा का ...............।

मैने कहा ..........असंयम के कारण ही रोग होते हैं .....इस बात को मानते हो या नही  ?   

नागा कुछ देर सोचकर बोला ........हाँ  मानता हूँ   ........क्यों की मनुष्य  जब संयम को त्याग देता है ..........और जीभ के वश में होजाता है .....तब  वो रोग को आमन्त्रित करता है ..........।

मैने कहा .......मात्र  पराये धन , और पराई स्त्री की ओर नज़र गढ़ाना  अगर मनुष्य छोड़ दे   तो  क्या उसे उन्नत होनें से कोई रोक सकता है ?

नागा मेरी बातें  सुनता रहा .......सुनता रहा .............।

मैने कहा ............नागा !     अनुष्ठान क्या है ?      ग्रह के कोप से बचनें के लिए  लोग जो अनुष्ठान करते हैं .............शनि के लिए ....राहू के लिए ..बृहस्पति का जाप ........ये सब क्या है  ?          इससे भी  क्या  ग्रह  तुम्हारी राशि को छोड़कर  किसी और राशि में चले जायेंगें  ? 

नही जायेंगें  नागा .............।

अच्छा अब  बताओ ...... अनुष्ठान क्या है ?   

तप ही अनुष्ठान नही है ?  .....तपस्या ही अनुष्ठान नही है ?

और तपस्या करनें से .....यानि सहन करनें से .....ग्रह का प्रभाव कुछ कम हो ही जाता है ......।

ऐसे ही  संयम  क्या  अपनें आपमें  एक तपस्या नही है ?

संयम करनें वाला मनुष्य  कहीं हारता नही है .......

क्यों की  संयम मुख्य रूप से दो ही  होती है........

एक जीभ का संयम  यानि  स्वाद का संयम ......ज्यादा स्वाद के चक्कर में मत पड़ो ..........नही तो  रोगी होना ही पड़ेगा   ।    और एक  शिश्न का संयम । यानि  पराई स्त्री को देखकर ......वासना जागे  तो  संयम करो ......सहो..........।

नागा !   अवधूत बाबा नें बड़ी अच्छी बात बताई है ....काश ! आजकल के  साधू इस बात को समझ लेते ...........।

क्यों    संयम से दूर होते जा रहे हो ?.......और वो भी साधू होकर ?

मै बोल रहा था .........रात्रि का समय था .............शीतल हवा चल रही थी .............गिरिराज जी की भूमि में   हम लोग बस चले जा रहे थे ।

तभी ...........सामनें से  वही अवधूत आते हुए दिखाई दिए ।

वो मुस्कुराते हुए आरहे थे ...........मैने उन्हें देखा .....मै दौड़ा ।

उन्होंने मुझे अपनें हृदय से लगा लिया ............

फिर नागा की ओर देखते हुए .......बोले  -   

बस दो  इन्द्रियों का संयम कर लो ...........तो  तुम्हारी साधुता सध गयी  समझना ..............।

एक जीभ और एक लिंग.........अवधूत हैं ....भाषा फक्कड़ी बोलते  हैं ... .......फक्कड़ महात्मा को क्या  लाज  !

बस इन दो को  संयम में रखो ....................जीभ को संयम में रखोगे तो कभी झगड़ा फसाद नही होगा ................जीभ को  संयम में रखो ......झगड़ा नही होगा .......तो कानून कचहरी  ये सब तुमसे दूर रहेंगें .....बच गए ना ....जीभ के संयम से  तुम ।

अब   लिंग का अगर संयम नही है  तो ................

अवधूत खूब हँसे ..............जेल में  अपनी जिंदगी बिताना  ।

और यहाँ के जेल से बच भी गए .....तो ऊपर वाला छोड़ देगा  ? 

इसलिये  सारी समस्या का समाधान है .........संयम ! 

वो  अवधूत   फिर  जाने लगे ..........मैने उनके चरण पकड़ लिए थे  ।

महात्मन् !     चलिये ना  हमारे साथ परिक्रमा में ...............मैने कहा ।

आप चलेंगे   तो और भी  बातें  बताते और समझाते रहेंगें ...............

"पहले  कानों नें  आज जो खुराक ली है ......उसको तो पच जानें दो"

इतना कहकर  वो भागे ...........हाँ  भागे ही कहूँ .........भले ही उनकी  वो सहज चाल थी .......पर  हमारी चाल को देखते हुए तो मै उन्हें  "वो भागे ही कहूँगा "  ।

कितनी  अच्छी बात बताई थी अवधूत बाबा नें  ......संयम  आवश्यक है .................

पर  लोग  समझें  तो  !       है ना !

Harisharan

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