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एक बार एक हवाई जहाज को मजबूरी में घने जंगल में उतरना पड़ा, उसका पेट्रोल खतम हो गया था।
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हवाई जहाज का पायलट और उसके सहयोगी जंगल में खोजने निकले कि कोई रास्ता मिले, कहीं से पेट्रोल…!
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कहां जंगल में पेट्रोल ! बहुत खोजते-खोजते बामुश्किल उन्हें राह मिली शहर तक जाने की।
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वे शहर तो पहुंच गए, लेकिन लौट कर कभी उस हवाई जहाज को लेने आए नहीं। लाना ज्यादा झंझट का काम था।
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वह हवाई जहाज पड़ गया आदिवासियों के हाथ में। आदिवासी हवाई जहाज को क्या समझें !
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उन्होंने सब तरफ से जांच-पड़ताल की, उन्होंने कहा कि हो न हो, यह नये ढंग की बैलगाड़ी है।
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सो उसमें दो बैल जोड़ दिए और बैलगाड़ी की तरह हवाई जहाज को चला कर वे बड़े प्रसन्न थे। उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था।
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फिर किसी ने, जो शहर होकर आया था, उसने यह सब देखा। उसने हवाई जहाज तो नहीं देखा था, लेकिन उसने ट्रक और बस इत्यादि देखी थीं।
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उसने कहा कि अरे पागलो, यह बैलगाड़ी नहीं है, यह बस है।
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मैं जाऊंगा, शहर से पेट्रोल लाकर तुम्हें बताऊंगा कि यह बस है, इसमें बैल जोड़ने की जरूरत नहीं है।
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वह शहर गया, पेट्रोल लाया, बैल हटा दिए गए, हवाई जहाज का उपयोग एक बस की तरह होने लगा।
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और आदिवासी थे, उसमें ढोते भी क्या–कभी घास, कभी लकड़ी !
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फिर कभी कोई यात्री शहर से जंगल में आया, कोई शिकारी, उसने यह देखा।
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उसने कहा, पागलो, यह क्या कर रहे हो ! यह हवाई जहाज है। यह आकाश में उड़ सकता है।
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उसने उन्हें उसे आकाश में उड़ा कर दिखाया।
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जैसी यह कहानी है, करीब-करीब ऐसी ही हमारी अवस्था है।
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जो देह परमात्मा से मिलने का सेतु बन सकती है, उसे हम बैलगाड़ी की तरह उपयोग कर रहे हैं।
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कोई धन, कोई पद, कोई प्रतिष्ठा–कौड़ियां बटोरने में लगा रहे हैं।
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जिससे मालिकों का मालिक पाया जा सकता है, उससे हम गुलामों की सेवा कर रहे हैं।
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भिखारी बने हैं, जब कि सारा साम्राज्य हमारा हो सकता है।
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पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।
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इतना प्यारा, इतना सुंदर, इतना सुभग, इतनी क्षमताओं वाला शरीर पाकर भी तुम ऐसे ही बीत जाओगे, व्यतीत हो जाओगे–खाली के खाली !
ओशो
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