Full width home advertisement

Post Page Advertisement [Top]

श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 4

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्री शंकराचार्य चरित्र - भाग 4 !!

गेयं गीता नामसहस्त्रं  ध्येयं  श्रीपति  रूपमजस्त्रम्...
( श्रीशंकराचार्य )

( साधकों !   "शाश्वत की कहानियाँ" जिसमें  शाश्वत  आद्यजगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के जीवनी से शुरुआत करता  है ।

विशेष टिप्पणी -  लिखता है  शाश्वत ...............

" आप अद्वैत को नकार नही सकते.......भक्ति के भी  हर सम्प्रदाय नें अद्वैत को स्वीकार किया ही है ।    माध्वाचार्य का "द्वैत"  एक अपवाद के रूप में ले लें ..........किन्तु  अन्य जितनें भक्ति के सम्प्रदाय हैं ......सबनें  अद्वैत को ही मान्यता दी है .......भले ही   श्री निम्बार्काचार्य पहले द्वैत की बात करते हैं .....फिर  अन्त्य में  अद्वैत ही उन्हें  मान्य लगता है  ....इसलिये तो उनका दर्शन ही है ......द्वैताद्वैत ।

अब श्री बल्लभाचार्य जी भी तो "शुद्ध" शब्द अपनी तरफ से जोड़कर ......बाद में  अद्वैत को  ही उन्होंनें स्वीकार किया .....शुद्धाद्वैत ।

आचार्य श्री रामानुज नें भी   "विशिष्ट" शब्द  पहले जोड़कर  ......  फिर बाद में अद्वैत को स्वीकार किया ही है .........इनका सिद्धान्त भी  "विशिष्टाद्वैत" ही है  ।

कुछ गम्भीर बातें  लिखता है  शाश्वत ..................

आप श्री शंकराचार्य को  नजर अंदाज नही कर सकते ..........ये  विशुद्ध अद्वैतवादी हैं.....इन्हीं के अद्वैत नें   समन्वय का काम किया  भारत में ।

मात्र एक भाषा संस्कृत को लेकर   इन्होनें   दक्षिण भारत से  उत्तर भारत ......फिर  पूर्व से पश्चिम ............ऐसे कई बार  इन्होनें यात्रा की ।

उद्देश्य बस एक ही ..............."सनातन धर्म में बिखराब न हो" ........

वैदिक सनातन धर्म की वैज्ञानिकता सब स्वीकार करें ...........सनातन धर्म में ही मानवता के बीज है .....देवत्व को जगानें की सम्भावना है ...मुक्ति के द्वार सहज  यहीं से खुलते हैं ............।

इसी  बात को जन जन तक पहुंचाया आचार्य शंकर नें  ।

हाँ ............शाश्वत लिखता है .......श्री शंकराचार्य जी   तिब्बत गए .....

वहाँ  तिब्बत में    अलकनन्दा नदी  में  बद्रीनाथ भगवान  का विग्रह बौद्ध लोगों नें डाल दिया था ...........श्री शंकराचार्य जी ने  बौद्धों को  शास्त्रार्थ में हराया ..... उन्हें  अपना शिष्य बनाकर  लेकर आये  ।

मुझे तीन दिन से शाश्वत नही मिला........मैने उसे खोजनें की कोशिश की......वो "मदन मोहन घेरा" में रहता है .....वहाँ भी गया मै ......पर मुझे बताया कि ......वो बरसानें गया है .....एकान्त वास करनें के लिए ।

मुझे शाश्वत से यही पूछना था कि .........जो वर्णन "तिब्बत में श्री शंकराचार्य जी गए" ......और वहाँ से  बद्रीनाथ की मूर्ति लेकर आये" .....इसका वर्णन कहाँ है  ?    किस ग्रन्थ में है इसका वर्णन ....मुझे पूछना है .........।

पर  जो भी हो.......शाश्वत बिना प्रमाण के कुछ लिखता नही है .....कुछ तो प्रमाण होगा ही उसके पास........जब मिलेगा  ....मै उससे पूँछ लूंगा ।

अभी तो आप   जगद्गुरु श्री श्री शंकराचार्य जी के चरित्र का आनन्द लीजिये .......  अद्भुत लिखा है   शाश्वत नें  )

******************************************************

कल से आगे  का प्रसंग .................

काशी से ही पैदल चल पड़े थे  अपनें  सन्यासी युवा शिष्यों के साथ .....श्री शंकराचार्य जी  ।

प्रेरणा हुयी थी ....श्री पति   नारायण भगवान की.........

उत्तराखण्ड में  नर नारायण पर्वत है .............वो धाम अत्यंत पवित्र है .......हे आचार्य शंकर !    आप  जाइए वहाँ .........और  वहाँ जाकर  मेरा स्वरूप जो  बद्री विशाल में  स्थित है ..............दर्शन कीजिये ।

साक्षात् नारायण भगवान नें ही आकर ये प्रेरणा दी थी  ....शंकराचार्य जी   को  ।

बस  एक पारिब्राजक सन्यासी  को और क्या चाहिये.......निकल पड़े अपनें सन्यासियों के साथ  उत्तराखण्ड की यात्रा में  ।

इनकी आयु  इस समय 17 वर्ष की थी   ।

और आजकल की तरह  सुगम यात्रा कहाँ थी  उस समय ...........पर  नाना संकटों को  झेलते हुए  आचार्य शंकर पहुँचे थे बद्रीनाथ धाम ।

पर ये क्या ?    बद्रीनाथ भगवान का विग्रह ही नही है यहाँ तो ?

आचार्य  शंकर के हृदय में अपार कष्ट हुआ ..............यात्री  यहाँ तक आता है .......और बड़ी श्रद्धा लेकर आता है ......पर   यहाँ  उसे  बद्रीनाथ भगवान के दर्शन नही होते  !

क्या यहाँ कोई प्राचीन विग्रह नही था  ?      

एक  पर्वतीय ब्राह्मण से  ही पूछा था   आचार्य शंकर नें ।

वह ब्राह्मण वृद्ध थे ........वयोवृद्ध .................उनके नेत्रों से अश्रु टपकनें लगे थे   ।

हे यति !    यहाँ  भगवान बद्री विशाल की  एक स्वयं प्रकट विग्रह शिला  थी .....उसकी हम लोग पूजा अर्चना भी किया करते थे ।

पर  .................इतना कहते ही  फिर वो  ब्राह्मण रो पड़ा  ।

आचार्य नें उसे  धैर्य रखनें को कहा ........।

अपनें आपको सम्भालनें के बाद ......उस ब्राह्मण नें जो कहा ....उसे सुनकर  आचार्य शंकर का भी हृदय पुकार उठा  ..........

हे नारायण !     

पास में ही   तिब्बत है ...........वहाँ बौद्ध धर्मावलम्बियों  की संख्या  दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है .....हे यति !  ..........    उस ब्राह्मण नें आचार्य शंकर को सारी बातें बताईं   ...........और  अन्त्य में ये भी कहा कि ......हमारे बद्रीनाथ भगवान के विग्रह को  वही  बौद्ध लोग  चुराकर ले गए हैं .......और अलकनन्दा में  छुपा दिया है  ।

शंकराचार्य विचार करनें लगे .........श्री गौतम बुद्ध से ही तो  बौद्ध धर्म की शुरुआत हुयी है ना ?   हाँ  इनके यहाँ   एक बुद्ध नही ......अनेक बुद्ध हुए हैं  .......पर  बुद्ध बननें की शुरुआत  तो गौतम बुद्ध से ही है  ! 

और गौतम बुद्ध हमारे शास्त्रों में    24 अवतारों  में से एक अवतार हैं ।

उनका धर्म  हमारे  यहाँ से प्रकट हुआ है ............उन्होंने   जो कुछ पाया है ....हमारे कारण पाया है .......फिर  हमारी श्रद्धा पर चोट क्यों ?

चलो !     मै जाऊँगा   तिब्बत !    

अपनें  सन्यासी शिष्यों की ओर देखा......और चल पड़े ...शंकराचार्य ।

अलकनन्दा नदी के किनारे किनारे  से ही चलते रहे  .........आगे शंकराचार्य और उनके पीछे   उनके सन्यासी ।

अलकनन्दा  का उदगम   तिब्बत से ही है ..............अलकनन्दा  और सरस्वती नदी  का संगम ...........केशव प्रयाग में हुआ है ........जो  तिब्बत की सीमा में लगा हुआ है  ।

चलते चलते .......पहुँच गए थे   शंकराचार्य जी     तिब्बत  ।

******************************************************

कोई हिन्दू  सन्यासी आया है ..............

बौद्ध गुरु  "बोधि सत्वम्"    को आकर सूचना दी .......उनके शिष्यों नें ।

तिब्बत में   बौद्ध केंद्र  चारों ओर खुले हुए थे ............जब से शंकराचार्य नामक  सन्यासी निकला है .......भारत में   बौद्ध मठो को  चलाना अब मुश्किल पड़ रहा है  ।

इसकी जानकारी  पूरी रखता था  ये "बोधिसत्वम्"  ।

सन्यासी ?  कौन सन्यासी  ?     

पहाड़ी से नीचे देखा    बोधिसत्वम् नें ..................

युवा,   अत्यंत तेजवान   गैरिक वस्त्र पहना हुआ ........

ओह !  ये तो   शंकराचार्य है .............

मुट्ठी भींच ली थी ..........बोधिसत्वम्  ने  ।

इसी नें   बौद्ध धर्म की नींव हिलाकर रख दी है  भारत में ..........

मै इसे  छोड़ूंगा नही ................

बौद्ध धर्म में भी सिद्धि का प्रयोग होता है .............

वही किया .........पर   जगदम्बा का वरदहस्त  शंकराचार्य जी के शीश पर था .............कोई क्या बिगाड़ेगा  इनका  ।

बौद्धधर्म गुरु की सारी सिद्धियाँ  फेल साबित हुयीं   ।

अब तो पचासेक   बौद्ध भिक्षुओं के साथ  ..........बोधि सत्वम्   शंकराचार्य जी के पास में आया  ।

और नम्रता से प्रणाम करके   स्वयं बैठा  ...........और  आचार्य को भी बैठाया  ।

किस तरह से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करेंगें  आप  हे आचार्य ?

बोधि सत्वम्   सच में   जानना चाहता था   कि अद्वैत  क्या है !

शंकराचार्य जी नें   उन सभी बौद्ध मतावलम्बियों  को बताना शुरू किया.........

एक ही है  ..............एक ही नित्य निर्गुण सत्ता है ..........

वो सत्ता जड़ नही है ..........चिन्मय है ........  चैतन्य  है   ।

समस्त जगत और जगत में  जो प्रपञ्च दिखाई दे रहा है .............वो मात्र   रेगिस्तान में  जल का जैसे भान होता है ......ऐसे ही है ।

जीव मरता और जन्म लेता  है  .....वो अज्ञान के कारण ।

यह अज्ञान ही  जन्म और मरण का हेतु है  ..............।

फिर इस अज्ञान का निराकरण कैसे होगा  ?

क्यों की बिना अज्ञान के निराकरण के.....मुक्ति तो सम्भव ही नही है ना ।

अज्ञान का निराकरण  होगा ....श्रवण , मनन, और निदिध्यासन ।

अज्ञान के कारण ही  द्वैत का भान होता है .....जीव को .....वैसे सत्य बात ये है कि ...द्वैत  कुछ है ही नही .......सब अद्वैत है .........।

बोधि सत्वम्      समझदार था .........वो समझ गया ..........

वासना के उन्मूलन की ओर ध्यान देंने मात्र से .....कुछ नही होनें वाला  .........जब तक "सर्वम् खलु इदम् ब्रह्म"..........सब कुछ ब्रह्म  है ........इसकी अनुभूति नही होगी  तब तक  ।

बोधिसत्वम्  प्रभावित होता जा रहा था  आचार्य शंकर से  ।

हे बोधिसत्वम् !     तुम लोग  नित्य तत्व को नही मानते ......तुम लोग सब कुछ प्रवाह मान है ....ऐसा मानते हो ..........ये संसार दुःख रूप है ....सब कुछ क्षणिक है ........

हे बोधि सत्वम् !  तुम बौद्ध मत वाले मानते हो  कि    शरीर परमाणु प्रवाह रूप है  .........कामनाओं को खतम करना ही  तुम लोगों का उद्देष्य है ।

और पुर्नजन्म भी कामना के प्रवाह के कारण ही है .........वासना का खतम होना ही ........मुक्त होना है ..........इसी को तुम लोग निर्वाण कहते हो  ।

शंकराचार्य जी की वाणी  हिमालय की चोटियों में गूँज रही थी ।

पर मैने  और मेरे वेद वेदान्त  नें  ये अनुभव किया है  कि .....मै वासनाओं से भरा हुआ पुतला नही हूँ .........मै   कामनाओं को संग्रहित करके रखनें वाला  अन्तःकरण  नही हूँ ...........मै तो स्वयं  चैतन्य हूँ ...........मै वही हूँ ।

मै उससे किंचित् भी अलग नही हूँ ...............सोहम् !   

तत्वमसि !  .........

तेरी शक्ति अनन्त है .....तू स्वयं अनन्त है.......अनन्त ही तेरी सत्ता है ।

तू ही ब्रह्म है .............अहं ब्रह्मास्मि !      मै ही ब्रह्म हूँ   ।

बोधिसत्वम्  चरणों में गिर गया   आचार्य शंकर के  ।

पर    बौद्ध धर्म के अन्य  गुरु लोग  शंकराचार्य से चिढ गए  थे ।

हे बोधि सत्वम् !   मुझे    अब जानें दो ...............पर  मै जिस कार्य के लिए आया हूँ ........उस कार्य में तुम मेरी सहायता करो  ।

आज्ञा दीजिये   आचार्य !    बोधिसत्वम् चरणों में ही है  ।

मेरे  आराध्य  श्रीबद्रीनाथ भगवान का श्री विग्रह मुझे लौटा दो  !

आचार्य ने प्रार्थना नही की ..........आदेश दिया था   ।

अलकनन्दा  नदी में  बद्रीनाथ भगवान के विग्रह को  डाल दिया था इन लोगों नें ............बोधिसत्वम्   अलकनन्दा से निकाल कर ले आया  बद्रीनाथ का विग्रह ......और  भगवान शंकराचार्य को  दे दिया ।

आप जाएँ  अब  यहाँ से ............बोधिसत्वम् नें   प्रार्थना की  ।

क्यों की   पीछे से  हजारों की संख्या में बौद्ध लोग     शंकराचार्य को मारनें के लिये  दौड़ पड़े  थे ।

शंकराचार्य को क्या मतलब था इन सबसे .............इन्हें अपनें आराध्य बद्रीनाथ का विग्रह प्राप्त करना था ......वो इन्होनें कर लिया ।

बोधि सत्वम्  को महावाक्य  "तत्वमसि"   "तू वही है"  ........

सुनाकर  ............माना गाँव से उतरते हुए  बद्रीनाथ में आगये  ।

और पूर्ण वैदिक रीती से ...........फिर बद्रीनाथ  भगवान के विग्रह की स्थापना  स्वयं आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी नें की थी   ।

ऐसे  सनातन  धर्म ध्वजा फहरानें वाले  श्री मद् शंकराचार्य जी के चरणों में मेरा प्रणाम है   ................।

शेष चरित्र कल ............

Harisharan

No comments:

Post a Comment

Bottom Ad [Post Page]