( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 11 !!
भक्तिवश्य भगवान, सुखनिधान...
( श्रीरामानुजाचार्य )
( साधकों ! कल मै शाश्वत के साथ श्रीराधाबल्लभ मन्दिर दर्शन करनें गया था......।
वो अत्याधुनिक महिला चिल्ला रही थी .............लोगों से गुहार लगा रही थी ..........कुछ देर में वो रोनें भी लगी थी ।
शाश्वत और हम दोनों ही वहीं खड़े हो गए थे .........तुरन्त तो हमारी कुछ समझ में नही आया ......पर कुछ ही देर में ये समझते देर नही लगी कि ......इन आधुनिक प्रौढ़ महिला का बैग बन्दर ले गया है ।
और वो चिल्ला और रो इसलिये रही थीं कि ..........उस हैंड बैग को दांतों से काट कर बन्दर नें फाड़ दिया था ...............
अब उस महिला का रोना और ज्यादा हो रहा था ।
मैने धीरे से पूछा उस महिला से .........कितनें पैसे हैं उस बैग में ?
ढ़ाई लाख हैं............फिर रोनें लगी ।
पर बन्दर भी तो बन्दर ही है .......उस महिला को रोता देखकर उसे और मज़ा आरहा था.....अब तो उसनें बैग में से ........एक गड्डी निकाली ...पाँच सौ की........और करारे करारे नोट निकाल कर फेंकनें लगा ।
फिर दो हजार के नोटों की बारिश............
एक ब्राह्मण बालक नें कहा ......फ्रूटी दो .........।
बस फ्रूटी उसी बालक ने लाकर दी बन्दर को.... ....बन्दर नें उस बेग को नीचे फेंक दिया.......वो महिला अपना बैग पाकर पैसा गिननें लगीं ।
जमीन के पैसे उठाकर लोग दे रहे थे उसे ।
पैसे पूरे हैं ?
शाश्वत नें पूछा ।
नही ........दो हजार का एक नोट कम है ।
शाश्वत बोला .....कोई बात नही ......अब रोनें से कोई लाभ नही है ।
कैसे कोई बात नही ! क्या पैसों की कोई कीमत नही है ?
वो महिला तो चिल्लानें लगी थी ।
शाश्वत नें हँसते हुए मेरा हाथ पकड़ा और मुझे खींचते हुए उस महिला को बोला .....बन्दर को बोलो .......मै नही ले गया था तुम्हारा बैग ।
फिर शाश्वत बोला - माता जी ! ढाई लाख ही चले जाते तो क्या करतीं ?
अब दो हजार का एक नोट गायब है ...........इसलिये तुम फिर रो रही हो ......... गया हुआ वापस आगया .......उसकी ख़ुशी नही है तुम्हे ।
काश ! .......ऊपर देखते हुए ......लम्बी साँस लेकर कहा शाश्वत नें ।
क्या काश ? वो महिला आज ज्यादा ही तनाव में थी ।
माता जी ! काश ! जितना तुम इन कागज के नोटों के लिए रो रही हो ....चिल्ला रही हो ...........इतना अगर राधा बल्लभ जी के लिए किया होता तो सच कह रहा हूँ वो तुम्हारे सामनें खड़े होते ।
वो मूर्ति ? महिला की कच्ची श्रद्धा थी ......जो इस बन्दर की घटना से उसकी आज श्रद्धा ढह गयी थी ।
प्रेम करके तो देखो ..............शाश्वत बोला ।
इन कागज के टुकड़ों से प्रेम करके क्या होगा ?
ये किसी के नही होते माता जी ! ..........चाहे रोओ .....चाहे चिल्लाओ ।
पर राधा बल्लभ जी से ......"तू मेरा है"......इतना भी एक बार बोल दोगे ना ...........तो बस वो तुम्हारे हो गए .......ये पक्का है ।
शाश्वत बोल रहा था ......पूरे विश्वास से बोल रहा था .........मै उसे देखता रहा.......कितना विश्वास है इसे अपनें आराध्य श्री कृष्ण पर ।
हाँ ......इसके विश्वास का प्रमाण तो ये "शाश्वत की कहानियाँ" ही हैं जो इसनें लिखी हैं ......और पूरे विश्वास से लिखीं हैं ।
हम दोनों अब श्री राधा बल्लभ जी के सामनें खड़े थे ......मै .हाथ जोड़कर खड़ा था.........पर शाश्वत हाथ नही जोड़ता .........वो कहता है हाथ जोड़ता हूँ तो लगता है ये कोई गैर है..........मै तो प्रेम से इसे निहारता हूँ ........और प्रेम से देखना ही सबसे बड़ी ईबादत है ।
बात तो सही करता है शाश्वत ........है ना ?
*****************************************************
कल के प्रसंग से आगे ..................
श्रीरामानुजाचार्य जी इन दिनों मैसूर में थे ..........वहाँ का राजा जो बौद्धमत का था ..........उसको वैष्णव बना दिया था ........भक्त बना दिया था ...........श्री रामानुजाचार्य जी नें ।
उसके बाद लौटकर आगये थे अपनें श्री रंगम में ।
एक दिन स्वप्न आया श्रीरामानुजाचार्य जी को ।
भगवान नारायण नें स्वप्न में कहा ........मेरा सुन्दर सा विग्रह दिल्ली में बादशाह के पास है ......हे स्वामी जी ! आप उस उत्सवमूर्ति को यहाँ ले आएं......।
स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी तुरन्त ही दिल्ली के लिए चल पड़े ।
साथ में सैकड़ों शिष्य थे .......जो सभी दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर चल रहे थे ।
उसी समय वृन्दावन के भी दर्शन किये थे श्री रामानुजाचार्य जी नें ...वृन्दावन की भूमि को प्रणाम किया...और आगे के लिये बढ़ गए थे ।
दिल्ली कोई दूर तो है नही वृन्दावन से ...........
यमुना जी के किनारे किनारे चलते हुए पहुँच ही गए थे दिल्ली रामानुजाचार्य जी और उनके परिकर ।
रात्रि यमुना जी के किनारे ही विश्राम किया था सब लोगों नें ।
******************************************************
हे बादशाह !
हमारे भगवान की मूर्ति तुम्हारे पास है..........मुझे वो मूर्ति चाहिए ।
रामानुजाचार्य जी की स्पष्टवादिता के कारण ही ये सबमें लोक प्रिय थे ।
दिल्ली के बादशाह के सामनें खड़े होकर आज.......दृढ़ता से अपनी बात रख रहे थे ।
मन्त्री जी ! इस हिन्दू फकीर को संग्रहालय ले जाओ ....और उस संग्रहालय में जितनी मूर्तियां हैं सब दिखा दो ।
मन्त्री नें बादशाह की बात मानी ............और रामानुजाचार्य को संग्रहालय में ले गया ।
पर नही ........वहाँ ऐसी कोई मूर्ति नही थी ।
निराश होकर फिर यमुना किनारे आगये ...........थके हुए थे ......तो रात्रि में नींद भी जल्दी लग गयी ।
हे रामानुज ! मै बादशाह के पास कहाँ हूँ....मै तो शहजादी के पास हूँ ।
आप तो बादशाह को कहिये ...........कि आपकी पुत्री के पास है ........वो मूर्ति ।
स्वप्न में बता रहे हैं भगवान नारायण ।
पर आप उस शहजादी के पास क्यों हैं ? रामानुज नें पूछा ।
क्यों की रामानुज ! वो मुझ से बहुत प्रेम करती है ।
इतना कह ही रहे थे भगवान नारायण .......कि नींद खुल गयी रामानुज की ।
सुबह ही फिर चल पड़े बादशाह के पास ।
*****************************************************
हे बादशाह ! वो मूर्ति तुम्हारी बेटी के पास है ।
रामानुज नें आकर फिर कहा ।
तुम्हे कैसे पता ? बादशाह चिल्लाया ।
मुझे स्वप्न में मेरे भगवान नें आकर कहा है ।
बादशाह नें सुन रखा था......कि हिन्दू फकीर बड़े चमत्कारी होते हैं ।
जाओ ! मेरी बेटी को बुलाकर ले आओ ....दासियों को आज्ञा दी थी ।
*********************************************************
बेटी ! हम लोग बुत परस्त नही हैं .............बुत को तो ये काफ़िर हिन्दू लोग ही पूजते हैं .......इसलिये मैनें सुना है कि तुम्हारे पास कोई मूर्ति है .........इस हिन्दू फकीर को दे दो .....वो मूर्ति ।
नही पिता जी ! मै नही दे सकती । दो टूक मना कर दिया उसनें ।
बेटी ! ऐसे नही कहते .......तुम जानती नही हो ...ये लोग बहुत बड़े चमत्कारी होते हैं ............पता नही क्या कर दें ।
नही पिता जी ......चाहे कुछ भी हो जाए पर मै मूर्ति नही दूंगी ।
पर क्यों ? क्यों बेटी ?
मुझे प्रेम हो गया है .....उस मूर्ति से ........मै उससे बातें करती हूँ .......तो वो मूर्ति मुझ से हँसती है ...........वो मूर्ति मेरे हाथों से खाती है ।
मै उसके बिना नही रह सकती अब्बु ।
पर तू जानती नही है ....ये लोग कुछ भी कर सकते हैं ।
अच्छा ! कुछ भी कर सकते हैं ......तो कल हमारी महफ़िल सजेगी ......वो बुलाएं अपनें भगवान को .......अगर सब लोगों के सामनें वो मूर्ति इनके पास चली आये .....तो फिर ठीक है .....मै मान जाऊँगी ।
ये शर्त रामानुजाचार्य जी को भी बताई गयी थी ....जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था .........।
******************************************************
शान्ताकारं भुजगशयनम पदमनाभम सुरेशं ...........
पूरी सभा लगी हुयी है ..............वो भगवान नारायण की प्यारी सी मूर्ति .....बीच में रखी हुयी है ।
सभा के एक तरफ रामानुजाचार्य जी और उनका शिष्य परिकर बैठा है ....तो दूसरी तरफ .......शहजादी और उसके लोग भी बैठे हैं ।
सिंहासन में बादशाह बैठा है ।
शान्ताकारं भुजगशयनम ..............आँखें बन्द करके रामानुजाचार्य जी नें श्लोकों का गान शुरू किया ।
पर नही .....मूर्ति में कोई हलचल भी नही हुयी ।
फिर दूसरा श्लोक ....फिर तीसरा ................पर कोई फर्क नही पड़ा उस मूर्ति में ।
बादशाह बोला ..................अब हमारी शहजादी की बारी है ।
गायन शुरू किया शहजादी नें ।
वो गा रही थी ..........उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे .............बादशाह भी चौंक गया था ......शहजादी की ऐसी स्थिति देखकर .........ये इतना प्यार करती है .....इस बुत से ।
पर ये क्या ? बादशाह चौंक गया ..........मूर्ति हिलनें लगी थी .........शहजादी गा रही है प्रेम से ..............
मूर्ति चलनें लगी ..........( इसमें शाश्वत लिखता है .....कोई आश्चर्य नही है ........सच्चा प्रेम हो तो पत्थर भी बोल उठते हैं )
रामानुजाचार्य जी को बड़ा अचम्भा लगा .......और अपना अपमान भी महसूस होनें लगा ।
भगवान का विग्रह उस यवनिका के पास जा रहा था ...........क्रोध आगया रामानुजाचार्य जी को ....भगवान के ऊपर ।
उठकर खड़े हो गए .........और चिल्लाकर बोले .........तुम्हे अगर इसी के साथ रहना था .....तो मुझे सपना दिखानें का क्या मतलब ?
मुझे क्यों कहा ........कि मुझे यहाँ से ले जाओ ............।
क्रोध से लाल हो गया था चेहरा रामानुजाचार्य जी का ।
और आवेश में आकर बोले ..........मै ये तुम्हारा दण्ड अभी तोड़ता हूँ ......तुम्हारी ये कण्ठी माला मस्तक में लगा हुआ ये तिलक .......सब तोड़ और पोंछ रहा हूँ मै ............।
ऐसा जैसे ही कहा रामानुजाचार्य जी नें..........
तभी शहजादी के गोद से उतर कर .......ठुमुक ठुमुक चलते हुए रामानुजाचार्य जी के पास आगये भगवान ।
रामानुजाचार्य जी नें उन्हें अपनें पास रखा....और वहाँ से जानें लगे ।
शहजादी रामानुजाचार्य जी के चरणों में गिर गयी .........
मत ले जाइए इन्हें यहाँ से.........मै इनके बिना मर जाऊँगी ।
मै इनसे प्रेम करती हूँ .......ये भी मुझ से प्रेम करते हैं .....पर आप के सामनें बोल नही पा रहे ...............मै आपसे गुज़ारिश कर रही हूँ .......इन्हें आप मत ले जाइए ।
पिता जी ! आप कुछ तो बोलिये.......मै इस मूर्ति के बिना जी नही पाऊँगी ।
बादशाह कुछ नही बोला....क्या बोले.....चमत्कार सब देख चुका था ।
मूर्ति लेकर रामानुजाचार्य जी जब चल ही दिए ......तब तो पागलों की तरह वो शहजादी भी पीछे पीछे चल दी ।
बादशाह भी क्या करे .......प्रेम होता ही ऐसा है ....इसका कोई ऐसा संविधान तो होता नही .....कि इसी से प्रेम होगा .......इससे नही होगा ......ये प्रेम तो किसी से भी हो सकता है .....मूर्ति से भी ।
*****************************************************
"श्री रंगम" पहुंची थी वो मूर्ति ................
पर जैसे ही श्री रंगनाथ भगवान के पास वो मूर्ति जानें लगी ........
पीछे शहजादी थी ........उसे रोक दिया गया ।
तुम यवन हो .......मन्दिर में नही जा सकतीं ।
वो रोनें लगी ......वो गिड़गिड़ानें लगी ।
रामानुजाचार्य जी को दया आगयी ...............उन्होंने एक झरोखा दे दिया उस शहजादी को ............और कहा ...इस झरोखे से अपनें प्रेमी नारायण भगवान को देखती रहना .......।
पर प्रेम सन्तोष क्यों करे ?
प्रेम तो मिले तो पूरा ......न मिले तो कुछ भी नही ।
सन्तोष कहाँ होता है प्रेम में ?
मेरे ही प्रियतम आज मुझ से इतनें दूर ? झरोखे में जाकर बैठती वो शहजादी और रोती रहती ........तुम क्या इन हिन्दुओं के ही हो ?
तुम मेरे नही हो ?
मैनें तो सुना था तुम जगत के नाथ हो ......पर यहाँ आकर मै क्या देख रही हूँ ......तुम तो मात्र हिन्दुओं के ही नाथ हो ।
शयन आरती हो गयी थी श्री रंगनाथ भगवान की ...........सब पुजारी लोग बाहर आगए थे . ................।
उस समय वह शहजादी मन्दिर में ही थी ...............
बाहर से मन्दिर बन्द था ............किसी को पता नही कि शहजादी मन्दिर में ही आज चली गयी है ........झरोखे से कूद कर मन्दिर में चली गयी थी ये ।
तभी एकाएक मन्दिर के द्वार खुल गए ............एक प्रकाश छा गया ............सामनें खड़े थे भगवान नारायण ......मुस्कुराते हुए ........दोनों हाथों को उठाये ......मानों उस शहजादी को आलिंगन देनें के लिए ।
वो खुश हो गयी .........वो दौड़ पड़ी ..................उसे अपनी मुराद मिल रही थी ......उसे और कुछ चाहिये भी नही था ।
मेरे नाथ ! मेरे प्रिय ! .............तुम मेरे हो ..........तुम मेरे हो ।
वो दौड़ी ............उसी मूर्ति में से एक प्रकाश निकला ..........वो उसी प्रकाश में ही विलीन हो गयी .....मूर्ति में समा गयी वो शहजादी ।
प्रकाश छा गया था मन्दिर में ..........................
उस समय मुस्कुराते हुए रामानुजाचार्य जी नें केवल इतना ही कहा था .....
"भक्तिवश्य भगवान"
......यानि "भगवान तो मात्र भक्ति के ही वश में हैं" ।
शेष प्रसंग कल ............
Harisharan
0 Comments