*अंगद जी के माध्यम से गोस्वामी जी ने बड़ा सुंदर विषय श्रीरामचरितमानस में रखा।*
प्रसंग है, कि जाम्बवन्त जी के पूछने पर कि कौन सागर पार जा सकता है?
"अंगद कहई जाई मैं पारा।
जिय संसय कछु फिरती बारा॥"
मैं चला तो जाऊँगा, पर वापिस आ पाऊँगा या नहीं, यह मन में संशय है।
विचार करें कि कारण क्या है? जो एक निश्चित दूरी तक छलांग एक बार लगा सकता है, वह दूसरी बार नहीं लगा पाएगा? क्या थकान हो जाएगी या बल घट जाएगा?
देखें, लंका का दृश्य कैसा है? सोने के महल हैं। हमें सोना रखना हो तो लोहे की तिजोरी चाहिए। जहाँ तिजोरी ही सोने की बनी हो, वहाँ के ऐश्वर्य की कल्पना भी कौन करे? यही नहीं, देवताओं, नागों, मनुष्यों, गंधर्वों की कन्याएँ हैं, जो बड़े बड़े मुनियों का मन भी मोह लेने में सक्षम हैं।
अंगद जी का कहना है कि मुझमें भगवान के प्रति अनुराग तो है, पर संसार के विषयों के प्रति वैराग्य नहीं है। अनुराग के बल से मैं चला तो जाऊँगा, पर वैराग्य के अभाव में लंका की चकाचौंध में, लक्ष्य भूलकर, कि-
"तुझे मालूम है किस वास्ते इस बाग में आया,
वो क्या मकसद है जिसके वास्ते मालिक ने भिजवाया।
कभी भूले से भी ना इस तरफ कुछ गौर फरमाया,
कि मैं हूँ कौन, जाता हूँ किधर, किस काम से आया॥"
मैं वहाँ जाकर, क्या करने आया था यही भूल कर, वहीं रह जाऊँगा, वापिस कैसे लौटूंगा?
मेरे देखे, यहाँ सभी अंगद ही हैं। सब इस देह रूपी लंका में आए तो भगवान का काम, भक्ति रूपी सीताजी की खोज करने ही थे, पर यहाँ की चकाचौंध में भुलाए गए हैं। सीताजी की खोज छोड़, विषय भोग में लगे हैं, और कारण वही है, वैराग्य नहीं है।
और यह भी नहीं है कि कोई याद न दिलाता हो। पर लाख बार याद दिलाने पर भी, याद न आए तो जिम्मेदारी किसकी है?
अब सोए को तो जगा भी दें, बनावटी सोए को कौन जगाए?
"आया जहाँ से खोज करने अ मुसाफ़िर तूं यहाँ,
था खोज करके लौट जाना मुक्त तुमको फिर वहाँ।
पर खोज करना भूलकर निज घर बनाकर टिक गया,
कर याद अपने देस को परदेस में क्यों रुक गया॥"
*जय सीताराम*🌹🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*🌻🌻कृष्णं वन्दे🌻🌻*
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