( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्री आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य !!
शंकरः शंकर साक्षात् ...
( श्री वेदव्यास )
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आज अनुष्ठान पूरा हुआ था ........श्री शिव गुरु का ........और इनकी धर्म पत्नी जिनका नाम था ......विशिष्टा देवी ।
ये केरल प्रदेश के उच्च ब्राह्मण थे ..............इन्होनें अनुष्ठान किया था भगवान शंकर का ....श्रावण मास में ये नित्य सुबह पूर्णानदी में जाते थे .....स्नानादि करके .........पार्थिव शिव लिंग बनाकर पूर्ण समर्पण से आराधना करते थे ..........शिव गुरु तो प्रातः के समय बैठते .......तो कब समय बीत गया पता ही नही चलता था इन्हें ......।
इनकी धर्मपत्नी विशिष्टा ये तो मानों शिव पिण्डी में आँसूओं से ही अभिषेक करतीं थीं ।
ये दोनों दम्पति भाव भक्ति से शिवाराधन में लीन थे ।
सुनिये ! सुनिये !
एक दिन रात्रि के समय अपनें पति को उठाया था विशिष्टा नें ।
क्या हुआ ? शिव गुरु शान्त भाव से उठे ............वो सोये ही नही थे ........वो तो बस पञ्चाक्षरी मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) का ही जाप करते रहते थे .....और रात्रि में भी उनका ये जाप चलता ही रहता था ।
मेरे उदर में भगवान शंकर आये हैं ...............हाँ .....मै सच कह रही हूँ ..... ...वो आशुतोष , वो देवो के देव , वो महामृत्युंजय , उन्होंने मुझे दर्शन दिए ..........और मुझे वरदान माँगनें के लिए कहा .......
देवी ! ये स्वप्न है ...................शिव गुरु नें समझाना चाहा ।
क्या स्वप्न में देवों के दर्शन का कोई फल नही होता ?
शिव गुरु की पत्नी साधारण नही थीं ।
जब अशुभ स्वप्नों का फल मिलता है .....तो क्या शुभ स्वप्नों का फल नही होता ?
बात तो सही थी ........शास्त्रों में स्वप्न के शुभाशुभ पर विचार तो किया ही गया है ...........।
होता है .............शिव गुरु को स्वीकार करनी ही पड़ी ये बात ।
फिर देखो ना .................मैने उनसे वरदान माँगा ! आँखें बन्दकर के विशिष्टा नें अपनें पति को बताया ।
क्या माँगा ? मेरे पुत्र बनिए ! सजल नेत्रों से कहा विशिष्टा नें ।
हँसे शिव गुरु.......सो जाओ अब....महादेव आगये तुम्हारे गर्भ में ।
आपको विश्वास नही हो रहा ? .............इतना कहकर अपनें पति के हाथ को ले जाकर अपनें उदर में जैसे ही छुवाया ...............
ओह ! शिव गुरु को झटका सा लगा ..............जैसे विद्युत का करेंट ।
और ध्वनि गूँज रही थी .................ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ।
विशिष्टा तेज़ से भर गयीं थीं ..........उनका मुख मण्डल शान्त और दिव्य हो गया था ।
चकित होकर शिव गुरु देखते रहे अपनी पत्नी के मुख मण्डल को ।
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वि . सं . 8 4 5, सन् 7 88 वैशाख शुक्ल पंचमी दक्षिण भारत के केरला प्रान्त में पूर्णानदी के किनारे ......कालटी नामक गाँव में ।
शिव गुरु के घर में आज आनन्द छा गया ................
विशिष्टा माँ बन गयीं ...................स्वयं आशुतोष ही इनके गर्भ से जन्म लेकर आये थे ..........।
गाँव धन्य हो गया ............प्रदेश धन्य हो गया ......देश धन्य हो गया ....अरे ! ऐसे भगवत्पाद बालक को पाकर तो ये पृथ्वी ही धन्य हो गयी थी ।
कितनें प्रेम से पिता शिव गुरु नें इस बालक का नाम रखा .....शंकर ।
क्यों की उन्हीं की सेवा और कृपा का फल ही तो थे शंकर !
पर माँ विशिष्टा शंकर की कृपा का फल कहाँ मानती थीं ........वो तो स्वयं भगवान शंकर ही मान रही थीं .......और ये थे भी भगवान शंकर के अवतार ।
पर माँ का वात्सल्य जब उमड़ा धीरे धीरे ......तब ये भगवान का भाव कम होता गया ...........जो स्वाभाविक भी था ।
महाकाल के आगे किसकी चली है .............
पिता शिव गुरु एक दिन एकाएक शरीर को त्याग दिए ।
उस समय 4 वर्ष के थे शंकर ।
माता का रो रोकर बुरा हाल था ...........कितना विद्वान् बनाऊँगा अपनें बालक को ...........सोचा करते थे .........पर !
हृदय को कठोर बनाकर 5 वर्ष की अवस्था में ही यज्ञोपवीत संस्कार कराकर .......गुरुकुल में भेज दिया माँ नें बालक शंकर को ।
बस दो वर्ष में ही सम्पूर्ण वेदवेदांगों का अध्ययन करके शंकर घर आगये ।
यानि 7 वर्ष की उम्र में ही.....सम्पूर्ण शास्त्रों ज्ञान पा लिया था शंकर नें ।
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बड़े हो रहे थे शंकर अब ...............
माता भूलनें लगीं थीं कि मेरा पुत्र भगवान शंकर का अवतार है ।
गांव की महिलाएं आतीं .......तो ये कहतीं कोई कन्या हो तो बताओ ना .......मेरे शंकर के लिए ।
अब सोचती हूँ कि .....उसका विवाह कर दूँ ।
पर बहन ! तेरा शंकर तो आँखें बन्दकर के ध्यान में ही बैठा रहता है .......उसका व्याह कर दोगी ............तो बेचारी कन्या का क्या होगा ।
कुछ महिलाएं हँसती .........पर कुछ कहतीं ........ऐसे हँसी मत उड़ाओ ......शंकर कोई साधारण बालक नही है ।
पता है ............हमारे पड़ोस में एक दिन भिक्षा के लिए गया था .......तब उस पड़ोसन नें मन में विचार किया ......मेरे पास तो कुछ है नही .....और खाली हाथ ब्राह्मण को लौटाउं कैसे ?
तब उसनें आँवले का एक फल दे दिया .....और बड़ी श्रद्धा से बोली ....
ब्रह्मचारी ! मेरे पास इसके अलावा कुछ नही है ।
तब शंकर नें उस माता से कहा था ..............आँवले तो हैं घर में ?
हाँ ....हैं ।
जितनें हैं लेकर आओ .....और अपनें हाथों में रखो ।
वो महिला सारे आँवले ले आई .....और अपनें हाथों में उसनें रखा .....
तब आँखें बन्द करके ......इसनें "कनकधारा स्तोत्र" गाया ........स्वयं ही बनाकर इसनें गाया था .......लक्ष्मी जी का आव्हान किया ।
तभी देखते ही देखते ............उस महिला के हाथ में रखे हुए जितनें आँवले थे सब सुवर्ण के बन गए ।
पता है विशिष्टा देवी ! ये चमत्कार पूरे गाँव में चर्चा का विषय बना हुआ है ।
हाँ ......वो तो सही है ........पर विवाह हो जाए शंकर का .......मै तो यही चाहती हूँ ......शंकर की माता को अब यही दुःख रह गया ।
तभी शंकर आगये ...............और जैसे ही शंकर को देखा .........
सब महिलाएं वहाँ से चली गयीं ।
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पुत्र ! विवाह कर ले !
भात थाली में रखते हुए माता नें अपने पुत्र शंकर से कहा ।
मुस्कुराये शंकर............तो यही सब बातें होतीं हैं आप लोगों में ?
देख ! मै बूढी हो गयी हूँ ...........अब मुझ से कुछ नही होता ....तेरे लिए भात भी नही बना पाऊँगी अब तो मै .........इसलिये शंकर ! माँ की बात मान ले ...शादी कर ले ।
माँ ! ऐसे मत बोल ! मुझे विवाह करनें की इच्छा नही है ।
इतना कहकर उठ गए शंकर ।
सुबह 4 बजे जाती थीं माँ पूर्णानदी में स्नान करनें के लिये ।
एक दिन .............शारीरिक कमजोरी के कारण गिर पडीं .......क्यों की घर से नदी दूर भी थी ।
शंकर को पता चला ....................
वो दौड़ पड़े ...................नदी को खोद कर ...........नदी की धारा को बदल दिया ...........और वही पूर्णानदी अब शंकर के घर के पास बहनें लगी थी ।
माँ ! माँ ! देख ! पूर्णा नदी हमारे घर के पास से बह रही है ..........
शंकर नें आकर बताया .....।
बिस्तर में पडीं हैं माँ .........बेटा ! शंकर ! चाहे कुछ भी कर ले तू ....
पर मेरी सही सेवा तो तभी होगी ......जब तू मेरे लिए बहु लेकर आएगा ।
माँ ! तुम बहू बहू मत कहो ना ! शंकर को झुंझलाहट होती है ।
क्यों न कहूँ ............मेरी सब पड़ोसन सासू बन गयीं हैं ..........सबके घर में बहु आगयी है ......एक तू ही है ..........।
शंकर क्या कहते ? वो बस चुप हो जाते थे ।
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माँ ! माँ ! माँ ! बचाओ ! बचाओ ! मगरमच्छ नें मेरे पैर पकड़ लिए ।
किनारे में बैठ कर कपड़े धो रही थीं माँ ..........
और नदी में स्नान करनें को उतर गए थे शंकर ।
तभी एकाएक चिल्ला उठे ।
माँ ! माँ ! माँ ! बचाओ ! बचाओ ! मगर नें मेरे पैर पकड़ लिए ।
माँ चिल्लाई ! मेरे शंकर को बचाओ ! कोई बचाओ !
माँ ! ये तो कोई मायावी लगता है मगरमच्छ .......ये कुछ बोल रहा है ?
शंकर नें अपनी माँ को बताया ।
क्या कह रहा है ? पुत्र ! क्या कह रहा है मगर ?
ये कह रहा है ........मै सन्यास लूंगा..... ऐसा वचन इसे दूँ, तो ये मुझे छोड़ देगा ।
माँ के नेत्रों से अश्रु बह चले थे................
बेटा ! ले ले सन्यास ! बेटा बोल दे इस मायावी मगर को .....कि तू सन्यास लेगा ।
पर माँ ! मुझे लेना ही पड़ेगा ........मै झूठ कैसे बोलूँ ?
ले लेना .....................।
आपकी आज्ञा है माँ ?
हाँ है मेरी आज्ञा ! कलेजे में पत्थर रखकर माँ नें कहा ।
ये सब किया धरा शंकर का ही था ........इन्हें सन्यास जो लेना था ।
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पुत्र ! मरते समय अब तू मेरे पास नही होगा ना ?
क्यों की सन्यासी.... क्यों आनें लगा अपनी माँ के पास !
रो रोकर बुरा हाल है माँ का.... ....शंकर की माँ का ।
नही माँ ! मै आऊंगा .............माँ ! मै भले ही सन्यासी हो जाऊँ ....पर तू मेरी माँ है ..........रहेगी .........।
बस तू मुझे याद करना ...........ये शंकर तेरे पास होगा ।
माँ नें हृदय से लगाया अपनें कलेजे के टुकड़े को .............
शंकर भी बहुत रोये हैं .........अपनी माँ से विदा लेते हुए ।
प्रत्यक्ष देव कौन ? इसका उत्तर दिया है शंकर नें ......
माँ ! माँ ! माँ !
बहुत मानते थे शंकर अपनी माँ को .........माँ के लिये तो बस उनका पुत्र ही था.....पर वो आज छोड़कर चला गया......सन्यास लेनें के लिए ।
*** आगे का प्रसंग कल .............
Harisharan
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