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श्री भक्तमाल – श्री चोखामेला जी

संत श्री चोखामेला भगवान् श्री विट्ठल के अनन्य भक्त थे। पंढरपुर के पास मंगलवेढा नाम के गाँव में श्री चोखामेला निवास करते थे ।मरे हुए जानवरो को उठाना और साफ़ सफाई की सेवा आदि इनका कार्य था ।जाती से यह चतुर्थ वर्ण के थे अतः उस काल में इनको दूर से ही भगवान् का दर्शन करना पड़ता ,इस कारण से उन्हें दुःख होता । यद्यपि एकनाथ ज्ञानदेव आदि अनेक संतो ने कभी किसीके साथ भेद भाव नहीं रखा और न कभी संतो की जात पूछी परंतु उस समय के ज्ञानी और उंच नीच मानने वाले लोग उनको ताने मारते और हीन जाती का समझते ।
काम धंदा करते समय हृदय की धड़कन समान सतत चोखामेला के श्रीमुख से भगवान् का नामस्मरण होता रहता। अनेक तीर्थो में भ्रमण करने के बाद जब ये पंढरपुर आए तब इनका मन यही लगा रह गया । संतो का सहवास, नामस्मरण ,कीर्तन ,विट्ठल दर्शन से इनका मन पंढरपुर धाम को छोड़ कर जाने को नहीं होता था।

बीच बीच में संत चोखामेला पंढरपुर आते जाते रहते थे। इनके गुरु संत श्री नामदेव जी थे। एक दिन रात्रि में मंदिर के महाद्वार के सामने एक शीला पर बैठे चोखामेला भगवान्  को याद करके अभंग (पद) गाने लगे। हीन जाती का होने के कारण उनको दूर से ही भगवान् का दर्शन करना पड़ता परंतु भगवान् की भक्ति में किसी तरह का जाती भेद नहीं होता यह प्रभु को प्रकट करना था । भक्ति करने का अधिकार सभी को है इस बात को प्रकट करने के लिए संत श्री चोखामेला आदि अनेक संतो का प्राकट्य अन्य अन्य जातियो में हुआ

भक्त हमारे निकट नहीं आ सकता ,भक्त रोज हमारे द्वार पर खडा रहता है यह जानकार भगवान् स्वयं मंदिर के बहार आ गए। संत बाबा आनंद में गाने लगे और भगवान् उनके साथ नृत्य करने लगे। भक्त का संग पाकर प्रभु अतिआनंद में मग्न हो गए और अपने कंठ का रत्नहार प्रभु ने संत जी के गले में डाल दिया । रात अधिक हो गयी और भगवान् मंदिर में जाकर सो गए ,बाबा भी मंदिर के बहार सीढ़ी पर सो गए। प्रातः काल बाबा उठे और मंदिर का परिसर साफ़ करने की सेवा में लग गए । तुलसी माला पुष्पहार उतारते समय पुजारियो ने देखा की भगवान् के गले का रत्नहार गायब है। उन्होंने यहाँ वहाँ देखा तो दृष्टी चोखामेला पर पड़ी । पता चला की हार चोखामेला के गले में है। 

पुजारियो ने संत जी पर चोरी का आरोप लगाया। लोगो की भीड़ जमा हो गयी और कुछ लोग संत जी को मारने पीटने लगे । बाबा ने बताया की वे निर्दोष है और भगवान् ने स्वयं हमको हार पहनाया है पर वे लोग संत की बात न माने। अंत में उन्होंने श्री भगवान् का स्मरण किया ।अपनी वाणी में उन्होंने भगवान् को पुकारते हुए कहा है – प्रभु आप दौड़ कर हमारी मदत को आइये ,धीरे धीरे मत चलिए । मुझे ये लोग मार रहे है,ऐसा मैंने कौन सा अपराध किया है? मै तुम्हारे द्वार का इमानी कुत्ता हूं। ऐसे प्रसंग में मुझे अपने आप से दूर मत करो ,मेरी रक्षा की जिम्मेदारी अब आपकी है ।

संत जी के गले का हार अब भगवान् के कंठ में जा पंहुचा । पुजारी लोग संत बाबा के कंठ से रत्नहार निकालने गए तो रत्नहार कंठ में नहीं था। उन्होंने पूछा – कहा गया रत्नहार?कहा छुपाया तुमने ?

बाबा ने कहा – मेरे प्रभु ने मेरी विनती सुन ली, वो हार भगवान् के कंठ में ही है। पुजारियो ने मंदिर में देखा तो हार भगवान के कंठ में ही था। उन्होंने मारने वालो को रोका और उन्हें पता चल गया की इस चोखामेला में कुछ विशेष शक्ति है अतः कुछ दिन वह चुप रहे।

एक दिन किसी निंदक ने संत चोखामेला की हँसी उड़ाने के लिए उनके सामने कहा – तुमपर यदि भगवान् का प्रेम है तो भगवान् ने तुम्हे कभी मंदिर के भीतर क्यों नहीं बुलाया?ऐसा है तो दिन रात भगवान् के भजन करने से तुम्हे क्या लाभ?
संत जी ने नम्र वाणी में कहा – श्री भगवान् के दर्शन करने की हमारी योग्यता कहा?हम दूर से ही प्रणाम् कर लेते है और हमारा प्रणाम् हमारे प्रभु को प्राप्त हो जाता है,भगवान् हम से बहुत प्रेम करते है।

भगवान् सब बात जान गए और उस रात भगवान् श्री कृष्ण संत जी की कुटिया में गए और उनका हाथ पकड़ कर उनको मंदिर में ले गए। बहुत समय तक संत चोखामेला और भगवान् बाते करते रहे। प्रातः पुजारी लोग जल्दी उठ कर मंदिर की प्रातः काल सेवा की तैयारी करने लगे तब उन्हें अंदर से कुछ आवाज आने लगी। उन्होंने चोखामेला की आवाज पहचान ली । पुजारीयो ने कहा – चोखामेला ,दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था बताओ तुम भीतर कैसे आये? चोखामेला ने कहा – श्री भगवान् ने ही मुझे हाथ पकड़कर यहाँ लाया है। इस घटना से उनलोगो ने यह समझ लिया की भगवान् अपवित्र हो गए और चोखामेला से ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सर्वत्र बात फैला दी की चोखमेला की वजह से भगवान् अपवित्र हो गए।

संत नामदेव उस दिन चोखामेला से भेट करने उनके घर गए। श्री नामदेव जी से चोखामेला को हरिनाम का प्रसाद प्राप्त हुआ था। संत श्री नामदेव यद्यपि चोखामेला के गुरु थे परंतु नामदेव जी को संत चोखामेला की भक्ति का प्रताप भलीभांति ज्ञात था। वे जानते थे की संत चोखामेला बहुत उच्च होती के महात्मा है अतः नामदेव जी ने चोखामेला के चरणों में प्रणाम् किया । चोखामेला ने भी नामदेव जी के चरणों में प्रणाम् किया । नामदेव जी को चोखामेला की पत्नी और पुत्र से मंदिर में घटित प्रसंग का पता चला । थरथराते स्वर में चोखामेला बोले – वो विट्ठल पांडुरंग हमारा भगवान् हमारा सर्वस्व हमारे मन से जाता नहीं। उससे मिले बिन कुछ अच्छा नहीं लगता।

प्रभु को मेरे स्पर्श से कोई आपत्ति नहीं और उन लोगों का कहना है की चोखामेला ने भगवान् को अपवित्र कर दिया। नामदेव जी हम आपके जैसे ज्ञानी नहीं है परंतु संत चरणों का और भगवान् का ही हमको आधार है।

नामदेव जी बोले – बाबा,केवल मंत्र स्तुति स्तोत्र अथवा पुराणों का पारायण करके मन में भक्ति नहीं है तो क्या उपयोग? प्रभु तो केवल भाव के भूखे है,केवल भक्तिभाव मांगते है और वह भक्ति भाव् आपके ह्रदय में कुट कुट कर भरा है। हमारा साखा पांडुरंग होते हुए हमें लोक निंदा से क्या? इनपर आप क्रोध करे ,इनको गालियां दे इतनी भी इनकी पात्रता नहीं। संतो से डांट खाना, संतो का क्रोध भी सबको नहीं प्राप्त होता।

बाबा आपको जिन्होंने मारा है वे महामूर्ख है और आपके स्पर्श से जिनको आपत्ति होती है न उनके भाग्य में आपका पुण्यस्पर्श लिखा ही नहीं है। आज आपकी, सोयराबाई ,परिसा ,नरहरी ,बंका ,सावता काका आदि सब संतो ,पांडुरंग और गुरुदेव भगवान् की कृपा से कितना सत्संग है ।कौन पूछता है इन निंदकों को? ऐसे वचन कहकर नामदेव जी चले गए। बाबा के हृदय में आनंद हुआ और वे नाम की मस्ती में मस्त हो गए।

संत चोखामेला की पत्नी सोयराबाई भी महान भक्ता थी ।उसके कोई संतान नहीं होने के कारण वो दुखी रहती थी और प्रभु से प्रार्थना किया करती की हमारे घर संतान नहीं है इसलिए मन व्याकुल होता है । एक दिन भगवान् ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और चोखामेला के घर के सामने आये ,उनके हाथ में डंडा, कंठ में तुलसी माला और मस्तक पर चन्दन और बुक्का(काली वैष्णव बिंदी अथवा श्याम बिंदी) था।

भगवान् उनके घर के बहार आकर पूछने लगे – ये घर किसका है ,घर पर कितने बालक है ,घर के सदस्य क्या काम करते है इत्यादि।  सोयराबाई ने वृद्ध वेशधारी भगवान् को प्रणाम किया और कहा – ये घर भगवान् पांडुरंग का है। भगवान् उत्तर सुनकर कहने लगे – अरे !पांडुरंग का घर है। सोयराबाई ने आगे कहा – हमारे घर के लोगो को गोविंद का छंद है ,वे सब रातदिन उनका समरण करने का काम करते है, हमारे घर संतान का सुख नहीं है बाबा,हमारे घर कोई बालक नहीं।

वृद्ध ब्राह्मण बोला – इस मार्ग से मै निकला था,मुझे बहुत भूक लगी है कुछ भोजन प्रसाद मिल जाये तो अच्छा होगा ! उसपर सोयराबाई बोली – बाबा हम नीच जाती के है ,आपको हमारे घर का अन्न कैसे चलेगा ?बाबा बोले – भक्तो की कैसी जाती ,जो हरी भजे सो हरी का है, हमको बहुत भूक लगी है ऐसा कहकर उन्होंने हाथ पसारे । सोयराबाई ने सोचा अतिथि भगवान् बिना खाये गए तो अच्छा नहीं और अन्न दिया तो लोग हमको मारेंगे। उसने कहा – बाबा आपको हमने इस घर का अन्न दिया तो लोग हमें मारेंगे हमारी निंदा करेंगे ।

इसपर वृद्ध ब्राह्मण बोले – बेटी जाती का विचार तुम मत करो , कल का बासी अन्न होगा तो भी हम खा लेंगे,पर इस घर का अन्न हमको थोडा खाने को दे दो। सोयराबाई अंदर गयीं और उसने दही चावल लाकर वृद्ध बाबा को दे दिया, दही चावल पाकर बाबा संतुष्ट होकर बोले – बोलो बेटी क्या चाहिए तुम्हे ? उसने कहा आपकी कृपा हमपर बनी रहे । वृद्ध महात्मा ने उसको बचा हुआ सीथ प्रसाद दे दिया और आशीर्वाद दिया की तुमको निश्चित पुत्र होगा । सोयराबाई को प्रभु कृपा से कर्ममेला नाम का पुत्र हुआ,आगे चलकर कर्ममेला भी महान भक्त और कवी हुए ।

भगवान् ने एक दिन विचित्र लीला की। अचानक एक दिन चोखामेला के मन में संसार की असारता और पीड़ा का दुःख मन में आया और वे घर परिवार का विचार किये बिना एकांत में निकल गए। रास्ते में बहन निर्मालाबाई का घर पड़ा , निर्मालाबाई ने हरिनाम का प्रसाद संत चोखामेला से ही प्राप्त किया था। उनको जब पता चला की चोखामेला घर परिवार की जिम्मेवारी से भाग रहे है तब उन्होंने अपने गुरुदेव होने पर भी चोखामेला को शिष्य की भाँति डांट दिया ।

जब ये सब चल रहा था तब चोखामेला की पत्नी सोयराबाई को प्रसुति की पीड़ा होने लगी और आस पास कोई नहीं था। स्वयं भगवान् श्री कृष्ण निर्मालाबाई का वेश धारण करके उनके पास पहुंचे और संपूर्ण सेवा की। पुत्र जन्म लेने पर पूरे एक महीने भगवान् ने सोयराबाई का ध्यान रखा । समय बीतने पर जब चोखामेला को ये बात पता चली तो उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने भगवान् की भक्तवत्सलता का अनुभव किया । वे जान गए की हमारी पत्नी महान भक्ता है और इसके गर्भ से जन्मा यह पुत्र जिसने जन्म लेने पर सबसे प्रथम ही प्रभु के दर्शन एवं स्पर्श प्राप्त किये है वो भी महान् संत होगा।

संत श्री चोखामेला के विषय में यह दिव्य कथा संत श्री एकनाथ जी महाराज ने वर्णन की है। स्वर्ग के अमरपुरी में अमृत का घड़ा रखा होता है। स्वर्ग के नाग सर्प आदि उसमे मुख डाल कर पान करते है, झूठा करते है। देवता तो स्वर्ग में आने वालो को केवल अमृत सुंघा देते है ,पान नहीं कराते। पंढरपुर में संत श्री सावता माली बहुत उच्च कोटि के भक्त हुए परंतु वे अपने को बहुत तुच्छ समझते । बहुत से निंदक उनको छोटी जाती के है कहकर ताने मारते ,पीड़ा पहुँचाते । एक दिन प्रभु ने विचित्र लीला रची । स्वर्ग के अमृत को एक बार रोग हो गया, उसका प्रभाव बहुत कम हो गया। अमृत सड़ने लगा ।

देवराज इंद्र के ध्यान में जब यह बात आयी तब उन्हीने देवर्षि नारद जी का स्मरण किया। देवर्षि नारद को इंद्र ने इसका समाधान पूछा । नारद जी ने बताया की मृत्युलोक में भूतल पर पंढरपूर नाम का दिव्य धाम है जहां बहुत से सिद्ध पवित्रात्मा संतो का जन्म हुआ है । साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण ईट पर भक्त पुण्डलिक के द्वार पर खड़े है । भगवान् वहां मधुराती मधुर लीला करते है एवं भक्तो के कीर्तन करने पर नृत्य करते है । आप अमृत लेकर वह जाएं ,वही पर अमृत शुद्ध होगा ।

यह सुनकर इंद्र के ह्रदय में संतोष हुआ। देवराज इंद्र एकादशी के दिन विमान से पंढरपूर में आये उस समय संत श्री नामदेव जी का कीर्तन चल रहा था , बहुत सी दिव्य आत्माए और देवता वहाँ विराजमान थे। एकादशी किं रात में कीर्तन चलता था, चंद्रभागा किनारे पर यह कीर्तन चल रहा था परंतु संत चोखामेला वहां नहीं थे। वे घर पर ही रह कर नामस्मरण कर रहे थे ।उच्च कोटि के नामजपक होने से उनमे सिद्धभाव आ गया था, एकाएक संत चोखामेला को अनुभव हुआ की प्रभु द्वादशी के पारायण में हमारे घर पधारने वाले है । उन्होंने पत्नी से कहा ,प्रभु पारायण करने हमारे घर आने वाले  है। प्रभु के साथ इंद्र आदि देवता भी संत भगवान् के घर प्रसाद पाने की इच्छा करने लगे।

श्री नारद जी ने जाकर संत चोखामेला से कहा की इन्द्रादि सभी देव भी आपके घर पर पधारने वाले है। प्रभु ने ऋद्धि सिद्धि को आदेश दे रखा था की भोजन समग्री की व्यवस्था ठीक से कर के रखना ।भगवान् रुक्मिणी माता के संग संत बाबा के घर पधारे। संत जी ने दण्डवत् किया। प्रभु ने संत बाबा को उठा कर आलिंगन दिया।  संत बाबा के घर के आँगन में प्रसाद पाने पंगत बैठी, संत बाबा की पत्नी भोजन प्रसाद परोसने की सेवा करने लगी।

इंद्र ने अमृत कलश लाकर भगवान् के सामने रख दिया तब भगवान् ने संत चोखामेला से कहा – बाबा यह देवलोक का अमृत आप शुद्ध कर दीजिये ।चोखामेला बोले – ये कैसा अमृत है ?आपके मधुर नाम का अमृत, जिसे सब चख सकते है वह नामामृत इस स्वर्ग के अमृत से बहुत अधिक श्रेष्ठ है ।जैसे शुकदेव जी ने स्वर्ग से अमृत को तुच्छ कह दिया था उसी तरह श्री चोखामेला ने भी भगवन्नाम और कथामृत के सामने स्वर्ग के अमृत को तुच्छ बताया । प्रभु के नाम का माहात्म्य और हरिनाम की मधुरता कहते कहते बाबा के आँखों से दो बूँद अश्रु उस अमृत कलश में गिरे। प्रभु ने कहा – हो गया शुद्ध, हो गया शुद्ध । सबने देखा की सडा हुआ अमृत शुद्ध हो गया। इस तरह संत श्री चोखामेला कितने उच्च कोटि के संत है और उनके भजन का बल कैसा विलक्षण है यह प्रभु ने सबको दिखलाया।

संत महीपति महाराज द्वारा भक्तिविजय ग्रन्थ की रचना हुई ,जिसमे भक्त चरित्रों का वर्णन है । इस ग्रन्थ के अध्याय २३ में लिखा है की भगवान् का हार चोरी करने के पीछे चोखामेला का हाथ है ऐसा मंदिर के पुजारी और कुछ ज्ञानी समझते। यद्यपि प्रभु ने लीला करके हार वापस अपने गले में डाल लिया था पर उन लोगो के ह्रदय में चोखामेला के प्रति ईर्ष्या थी। भगवान् के मंदिर में भीतर घुस आने वाली बात से खासकर वे लोग क्रोधित थे और उन्होंने समझ लिया था की भगवान् अपवित्र हो गए है  अतः उन्होंने कुछ चाल चलने की सोची । उन्होंने चोखामेला से चंद्रभागा नदी की दूसरी ओर रहने के लिए कह दिया, उन्होंने चोखमेला से कहा – चले जाओ नदीपार, यहाँ नहीं रहना । चंद्रभागा के दूसरे किनारे एक छोटे से पांडुरंग मंदिर में चोखामेला और उनकी पत्नी सेवा करने लगे । वह उन्होंने एक दीपमाला बाँध दी और वही पास निवास करने लगे।

भगवान के प्रिय भक्त जहा रहते वही प्रभु भोजन करने भी चले जाया करते । एक दिन नदी के पास वृक्ष की छाया में प्रत्यक्ष भगवान् श्री कृष्ण संत चोखामेला के साथ बैठ कर प्रेम से भोजन प्रसाद पा रहे थे ।मंदिर का एक पुजारी उधर किसी काम से गया हुआ था । पुजारी वहा आकर सब लीला देखने लगा उसी समय वृक्ष की डाल पर एक कौवा आकर बैठा । चोखामेला ने उस से कहा की यहाँ भगवान् भोजन कर रहे है ,तुम जाकर किसी दूसरी डाल पर जा बैठो। पुजारी ने समझा की इसने हमको ही कौवा कह दिया और पुजारी ने संत बाबा से बहस छेड दी और बात बात में पुजारी ने संत जी के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। उस समय संत जी की पत्नी भगवान् की सेवा कर रही थी, उसके हाथ से दही के बर्तन से थोडा दही प्रभु की पीताम्बरी पर गिर गया ।

गड़बड़ी में पुजारी ने थप्पड़ तो जड़ दिया पर उसको भय लगा की  हम अकेले है आस पास के कोई लोग अथवा ये पति पत्नी मिलकर हमें पीट न दे अतः पुजारी वहा से से भाग गया और मंदिर मे आ गया। मंदिर में उसने देखा की भगवान् के भगवान् अश्रुपात कर रहे है ,उनके गाल में सूजन है ,गाल सूज कर फूल गया है और पीताम्बर पर दही गिरा हुआ है। पुजारी समझ गया की हमसे संत का अपराध हुआ है और भगवान् ने संत की चोट स्वयं पर ले ली है। उसे बाबा की भक्ति के प्रताप ज्ञात हो गया, भागता हुआ वो बाबा के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा।

संत बाबा तो क्रोध कभी करते ही न थे । वे तो सर्वथा प्रशांत थे। बाद में अनेक उपाय करके भी प्रभु के गाल की सूजन दूर नहीं हो रही थी । संत चोखामेला जब मंदिर में जाकर प्रभु से जा लिपटे तब तत्काल प्रभु का गाल पूर्ववत हो गया। पुजारी ने स्वयं कहा – श्री भगवान् जात पात का भेद नहीं मानते,वे प्रेम के भूखे है। अब हम भी कभी भेद नहीं करेंगे। उस दिन से श्री श्री विट्ठल मंदिर में किसी को भगवान् के श्रीविग्रह को स्पर्श तक करने का अधिकार प्राप्त है।

कुछ समय बीतने पर मंगलवेढा गांव की सीमा पर सुरक्षा हेतु बड़ी दिवार बाँधने का काम निकल आया। मुग़ल शासन था और आस पास के क्षेत्रो से सख्ती और जोर जबरदास्ती कर के मजदूरी हेतु आदमी लाना सैनिको ने शुरू कर दिया । उसमे संत चोखामेला को भी पकड़ा गया।  बाबा कहने लगे – हमको भगवान् के धाम से बहार मत ले जाओ, यहाँ पंढरपुर के अंदर जो मिले वो काम मै करने को तैयार हूं परंतु किसने उनकी बात नहीं सुनी । दीवार बनाने का काम आरम्भ हुआ। संत चोखामेला का शरीर तो मंगलवेढा में था परंतु मन से वे भगवान् के पास पंढरपुर से ही रहते । एक रात्री में सब मजदूर श्रमित हो कर दीवार को लग कर सो गए और उसी रात्रि में तूफ़ान आ गया । उनकी नींद खुलने से पहले दीवार गिर गयी और सबका शरीर छूट गया, उसमे संत चोखामेला भी थे ।

पंढरपुर में वार्ता आयी। सभी परिवार को एवं संतो को बहुत दुःख हुआ । नामदेव जी उस समय पंजाब से वापस पंढरपुर आ रहे थे। नामदेव आने पर उनका सर्वत्र जयजयकार हुआ । वहाँ सब संतो के दर्शन नामदेव को प्राप्त हुए और नामदेव जी सबको क्षेमकुशल पूछने लगे।  उन्होंने एक वारकरी भक्त से पूछा – चोखामेला काका नहीं दिख रहे? वे कहा है? वह वारकरी रोने लगा और रोते रोते कहने लगा – नाम ,हमारे चोखामेला काका हमको छोड़ कर …..

नामदेव जी को संत के विरह से बहुत दुःख हुआ। नामदेव बहुत देर तक चोखोबा काका की याद कर के रोते रहे । किसी तरह संभलकर वे सोचने लगे की हम चोखामेला के परिवार के सदस्यों से कैसे मिले? उनको सांत्वना कैसे देंगे ? नामदेव सीधे विट्ठल मंदिर गए और उन्होंने प्रभु से कहा – क्षेमकुशल पुछु अथवा चोखामेला के विषय में कहूं ? उनके जैसे संत मिला नहीं करते । प्रभु आप केवल देखते रह गये? बाबा तो आपके परमभक्त थे ,आपने उनको अपने पास बुला लिया पर हमारा क्या? भगवान् भी मौन होकर रो रहे थे । प्रभु ने कहा चोखामेला जगत में आये और कार्य करके चल गए  पर सत्य कहू तो वे आये भी नहीं और गए भी नहीं। शरीर का वस्त्र क्या चोखामेला है क्या? नाम तुम तो ये सत्य जानते हो । चोखामेला तो भक्तो का निर्मल प्रवाह है वे आये भी नहीं और गए भी नहीं ।

नाम मेरी एक इच्छा है जो तुम्हे पूर्ण करनी है । तुम्हे विनती करता हूं । नामदेव जी ने कहा प्रभु आप आज्ञा करे । नामा चोखामेला की भक्ति का आदर्श संसार में अमर रहे ऐसी हमारी इच्छा है। उनके जैसे संतो के कारण ही तो हमारी भगवत्ता है । नाम तुम मंगलवेढा जाओ और संत बाबा की अस्थियां ले आओ और हमारे सामने मंदिर के महाद्वार पर उनकी समाधी बनवाओ । नामदेव जी ने भक्तवत्सल भगवान् की स्तुति की और कहा -प्रभु वहाँ बहुत से लोग दीवार के निचे दबकर मृत्यु को प्राप्त हुए उनमे चोखामेला की अस्थियां कैसे पहचाने ?

भगवान् ने कहा – नामा, तुमको यह भी हम ही बताये क्या?नामदेव ने अपना मस्तक प्रभु के चरणों पर रखा। भगवान्  ने दो अश्रु नामदेव के मस्तक पर गिरे। नामदेव मंगलवेढा आये । सर्वत्र बिखरे मांस और हड्डियों में बाबा की हड्डियां ढूंढने लगे। चोखामेला की अस्थि हाथ में आते ही उनसे दिव्य सुगंध प्रकट हो जाती और विट्ठल नाम सुनाई पड़ता । हड्डियों जैसी निर्जीव वस्तु ,मल मूत्र मांस से भरे शरीर में भी दिव्य सुगंध और हरी नाम प्रकट करना यह तो संतो की भक्ति का प्रताप ही है ।अस्थियां लेकर नामदेव जी पंढरपुर में आये और मंदिर प्रमुख के पास जाकर भगवान् की आज्ञा सुनाई । मंदिरप्रमुख को बात पर विश्वास नहीं हुआ और उन्होंने समाधी के लिए जगह देने से मना कर दिया।

दूसरे दिन नामदेव जी के साथ कुछ वारकरी संत और चोखामेला के परिवार के सदस्य भी मंदिर प्रमुख के पास गए और समाधि के लिए जगह देने की विनती करने लगे। इतने सबको देख कर मंदिरप्रमुख कुछ डर गए और उस समय उनको चालाकी सूझी। उन्होंने सोचा ये सब दरिद्र है ,इनको बड़ी रक्कम मांग लेता हूं तो ये चले जायेंगे। उसने कहा  – मै आपको जगह देता हूं पर महाद्वार की जगह है, महँगी है । आप लोग एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं लाकर दो तो कुछ बात बनेगी। सारी संत मंडली निराश होकर लौट गयी।

विजय प्राप्त हो गया सोच कर मंदिरप्रमुख घर आये । दोपहर का भोजन आया। बढ़िया बढ़िया व्यंजन थाली में पत्नी ने परोसे । उन्होंने थाली से रोटी उठायी और मुख में डालने गए तो मुख में आ गयी स्वर्ण मुद्रा । खीर की कटोरी मुख की ओर ले गए तो वह भी मुद्राओ से भर गयी। मुख में डालने के लिए निवाला उठाते तो स्वर्ण मुद्रा और निचे रखते तो पुनः अन्न हो जाता। पानी पिने के लिए प्याला उठाया तो उसमे भी स्वर्ण मुद्रा। अब वह परेशान हो गया और क्रोध में जाकर नरम गद्दी पर जाकर विश्राम करने लेट गया । उसके शरीर में कुछ कठोर लगा, उठ कर देखा तो वह स्वर्ण मुद्राओ पर सोया था। अब उसको समझ आ गया की हमने संतो को जगह देने से मन किया,हमारे कारण संतो को कष्ट हुआ।

पगड़ी पहनी और सीधा भागकर नामदेव जिनके चरणों में जा कर पड गया ।उसने कहा हमसे अपराध हो गया,हमको क्षमा करो ।आपका सामर्थ्य जानकार भी हमने आपकी बात नहीं मानी। आप संत चोखामेला की समाधि का निर्माण कार्य आरम्भ करें । नामदेव जी ने उनको उठाया और प्रतिनामस्कार किया ।उनके आँखों में अश्रु आ गए और संत चोखामेला की समाधी महाद्वार में भगवान् के सामने बाँध दी गयी। संत मंडली और भगवान् पांडुरंग को परमानन्द हुआ, अब तो प्रभु के नेत्रो के सामने सदा सदा के लिए संत चोखामेला विराजमान हो गए। भक्तवत्सल भगवान् की जय।

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