**सच्ची समानता**

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एक राजा था। वह एक दिन शाम के वक्त अपने महल की छत पर घूम रहा था। साथ में पाँच-सात आदमी भी थे। महल के पीछे कुछ मकानों के खण्डहर थे।

उन खण्डहरों की तरफ संकेत करते हुए अपने आदमियों से पूछा कि- “यहाँ एक सन्त आकर ठहरा करते थे न?”

उन्होंने कहा कि- “हाँ महाराज! आया करते थे, पर कुछ वर्षों से उनको यहाँ आते देखा नहीं।”

राजा ने कहा कि- “वे बड़े विरक्त, त्यागी संत थे। उनके दर्शन से बड़ी शान्ति मिलती थी। वे मिलें तो उनसे कोई बात पूछें। उनका पता लगाओ।”

राजा के आदमियों ने उनका पता लगाया तो पता लगा कि वे शरीर छोड़ गये। मनुष्य की यह बड़ी भूल होती है कि जब कोई मौजूद होता है, तो पूछते नहीं बाद में रोते हैं।

राजा ने कहा कि- “अहो! हमसे बड़ी गलती हो गयी कि हम उनसे लाभ नहीं ले सकें! अब उनका कोई शिष्य हो तो उसको ले आओ, हम उससे मिलेंगे।”

कर्मचारी ने खोज की तो एक साधु मिले। उनसे पूछा कि- “महाराज! क्या आप उन सन्त को जानते हैं?”

वे बोले कि- “हाँ, जानता हूँ। वे बड़े ऊँचे महात्मा थे।”

राजापुरुषों ने फिर पूछा कि- “क्या आप उन सन्त के शिष्य हैं?”

साधु ने कहा कि- “नहीं, वे किसी को शिष्य नहीं बनाते थे। हाँ, मैं उनके साथ में जरुर रहा हूँ।”

राजा के पास यह समाचार पहुँचा तो राजा ने उनको ही लाने की आज्ञा दी।
राजा के आदमी उस साधु के पास गये और बोले कि- “महाराज! राजा ने आपको बुलाया है, हमारे साथ चलिये।”

वे बोले कि- “भाई! मैंने क्या अपराध किया है?”

कारण कि राजा प्रायः उसी को लाने की आज्ञा देते हैं, जिसने कोई गलती की हो।

कर्मचारी ने कहा कि- “नहीं महाराज! आपको तो वे सत्संग के लिये, पारमार्थिक बातें पूछने के लिये बुलाते हैं। आप हमारे साथ पधारें।”

वे साधु” अच्छा” कहकर उनके साथ चल दिये। रास्तें में वे एक गली में जाकर बैठ गये। कर्मचारी ने समझा कि वे लघुशंका करते होंगे। गली में एक कुतिया ने बच्चे दे रखे थे। साधु ने उनमें से एक पिल्ले को उठा लिया और अपनी चद्दर के भीतर छिपाकर कर्मचारी के साथ चल पड़े।

राजाओं के यहाँ आसन (कुर्सी)- का बड़ा महत्व होता है। किसको कौन-सा आसन दिया जाय, किसको कितना आदर दिया जाय, किसको ऊँचा और किसको नीचा आसन दिया जाय-इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। राजा ने साधु के बैठने के लिये गलीचा बिछा दिया और खुद भी उस पर बैठ गये, जिससे ऊँचे-नीचे आसन का कोई विचार न रहे।

बाबाजी ने बैठते ही अपने दोनों पैर राजा के सामने फैला दिये। राजा ने सोचा कि यह मुर्ख है, सभ्यता को जानता नही! कभी राजसभा में गया नहीं, इसलिये राजाओं के सामने कैसे बैठना चाहिये-यह इसको आता नहीं।

राजा ने पूछ लिया- “पैर फैलाये कब से?”

बाबाजी बोले- “हाथ सिकोड़े तब से।“

तात्पर्य है कि कुछ लेने की इच्छा होती तो हम हाथ फैलाते और पैर सिकोड़ते, पर हमें लेना कुछ है ही नहीं, इसलिये हाथ सिकोड़े लिये और पैर फैला लिये। ऐसा कहकर बाबाजी ने हाथ-पैर ठीक कर लिये।

राजा ने उत्तर सुनकर विचार किया कि ये मुर्ख नहीं है, प्रत्युत बड़े समझदार, त्यागी और चेताने वाले हैं। राजा ने संत की चर्चा की तो साधु ने कहा कि वे बड़े अच्छे सन्त थे, वैसे सन्त बहुत कम हुआ करते है।

राजा ने पूछा- “आप उनसे साथ रहे हैं न?”

साधु ने कहा- “हाँ, मैं उनसे साथ रहा तो हूँ।“

राजा ने पूछा- “आपने उनसे कुछ लिया होगा?”

साधु ने कहा- “हमने लिया नहीं राजन!”

राजा बोला- “तो क्या आप रीते ही रहे गये?”

साधु ने कहा- “नहीं, ऐसे सन्त के साथ रहने वाला कभी रीता रह ही नहीं सकता। हमने लिया तो नहीं, पर रह गया।“

राजा ने पूछा- “क्या रह गया?”

साधु ने कहा- “जैसे डिबिया में से कस्तूरी निकालने पर भी उसमें उसकी सुगंध, चिकनाहट रह जाती हैं, ऐसे ही सन्त के साथ रहने से उनकी सुगन्ध, चिकनाहट रह गयी।“

राजा बोला- “महाराज! वह सुगन्ध, चिकनाहट क्या है- यह मुझे भी बताइये।“

साधु ने कहा- “राजन्! यह हम साधुओं की, फकीरों की बात है, राजाओं की बात नहीं। आप जानकर क्या करोगे?”

राजा ने कहा- “नहीं महाराज! आप जरुर बताइये।“

साधु ने चद्दर के पीछे छिपाया पिल्ला बाहर निकाला और राजा के सामने कर दिया।

राजा ने कहा- “हम समझे नहीं महाराज!”

साधु ने कहा- “आप बुरा तो नहीं मानोगे?”

राजा ने कहा- “अरे, मैं तो पूछता ही हूँ, बुरा कैसे मानूँगा? आप सच्ची बात कह दें।“

साधु ने कहा- “राजन्! मेरे को आप में और इस पिल्ले में फर्क नहीं दीखता; यह समता ही उन सन्त के संग की सुगन्ध, चिकनाहट है! यह पिल्ला बहुत साधारण चीज है और आप बहुत विशेष हैं- यह बात सच्ची है, पर मेरे को ऐसा नहीं दीखता। आप में भी प्राण हैं और इसमें भी प्राण हैं। आपके भी श्वास चलते हैं और इसके भी श्वास चलते हैं। आपका शरीर भी पाँच भूतों से बना हैं और इसका शरीर भी पाँच भूतों से बना है। आप भी देखते है, यह भी देखता है। आप भी खाते-पीते हैं, यह भी खाता-पिता हैं। आप में और इसमें फर्क क्या है? संसार के सभी प्राणियों में कोई-न-कोई विशेषता है ही। किसी में कोई विशेषता है तो किसी में कोई विशेषता है, आखिर में तो सब बराबर हुए! आप ऊँचे पद पर हैं और यह नीचा है- यह फर्क तो तब होता है, जब मेरा स्वार्थ का सम्बन्ध हो। मेरा किसी से स्वार्थ का सम्बन्ध है ही नहीं, न आपसे कुछ लेना हैं, न कुत्ते से कुछ लेना है, फिर मेरे लिये आपने बताने का आग्रह किया, इसलिये साफ बात कह दी। मैं आपका तिरस्कार नहीं करता हूँ, प्रत्युत सत्कार करता हूँ; क्योंकि आप प्रजा के मालिक हैं।“

तात्पर्य है कि हमें संसार से कुछ लेना होता है, तब हमें कोई धनी और कोई दरिद्र दीखता है। धनी मिले या दरिद्र मिले, हमें उनसे कुछ लेना है ही नहीं तो फिर दोनों में क्या फर्क हुआ?
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