साधन का उपदेश होता है अधिकारी को। जिस प्रकार डाक्टर मरीज की परीक्षा करके निदान करता है कि उसे क्या रोग है ? तब दवा सोचता है। उसी प्रकार गुरु शिष्य की परीक्षा करता है तब उसे यथाधिकार उपदेश देता है।
एक सज्जन गये गुरु के पास और बोले--मुझे उपदेश दीजिये। गुरु ने कहा तुम्हें क्रोध बहुत आता है। तुम एक वर्ष तक क्रोध पर विजय प्राप्त करो फिर आओ। और हाँ, नहा कर आना।
एक वर्ष बाद वे आये। गुरुजी ने मेहतरानी से कह दिया कि देखो, एक काम करना। यह सज्जन जब स्नान करके आयें तो इनके बगल से झाडू देना जिससे थोड़ी गर्द उड़े। इन्हें छूना नहीं। जब वे स्नान करके तैयार होकर गुरुजी के पास उपदेश प्राप्त करने के लिये आने लगे तब मेहतरानी ने गर्द उड़ा दी। इनको थोड़ी गर्द लगी तो ये गुस्सा हो गये। उसे मारने दौड़े तो वो भाग गयी। फिर गुरुजी के पास आये तो गुरुजी ने कहा--तुम्हें अभी क्रोध आता है। तुम मारने के लिये दौड़ते हो। अभी एक वर्ष और अभ्यास करो। अपने को अधिकारी बनाओ।
पुनः एक वर्ष बाद वे फिर वहाँ आये। इस बार गुरुजी ने मेहतरानी से कह रखा था कि वे जब आयें तो जरा-सा झाडू स्पर्श करा देना। मेहतरानी बोली--वह मारेगा। गुरुजी बोले--मारेगा नहीं। तुम ऐसा करना। जब वे स्नान करके तैयार होकर आये तो मेहतरानी वहाँ खड़ी थी। उसने झाडू छुआ दिया। वे उसे मारने को उद्यत तो नहीं हुए पर दुर्वचन बोले। उन्होंने कहा--तुमने मेरी दो साल की मेहनत बेकार कर दी। फिर गुरुजी के पास आये और बोले--महाराज ! बोध प्राप्त कराइये।
गुरुजी बोले--अभी बोध प्राप्त करोगे ? अभी तो तुम गाली बकते हो। एक वर्ष और अभ्यास करो, तैयारी करो। क्रोध नाश होने पर उपदेश मिलेगा। वह व्यक्ति सच्चा था, अन्यथा कहता--छोड़ो ऐसे गुरु को, आते हैं उपदेश प्राप्त करने को और साल-साल भर तक नाक रगड़ाता है। हमें तो अभी ब्रह्मज्ञान चाहिये। ऐसे लोगों को ब्रह्मज्ञान मिल भी जाता है और वे मान भी लेते हैं परन्तु वह होता है-- भ्रमज्ञान। ब्रह्म के बदले भ्रम होता है।
तीसरे साल जब वे सज्जन आये तो गुरुजी ने मेहतरानी से कहा कि जब वे मेरे पास आने लगें तो इनके ऊपर कूड़े की टोकरी उड़ेल देना। वह बोली--मारेगा। गुरुजी बोले--आज तो बिल्कुल नहीं मारेगा। इसकी तीन वर्ष की साधना हो गयी है। वे बेचारे जब गंगा स्नान करके आने लगे तो मेहतरानी भी तैयार खड़ी थी।
गुरुजी ने उससे कह रखा था कि डरना नहीं, आज कुछ नहीं करेगा। उसने उनके ऊपर कूड़े की टोकरी उड़ेल दी। उसके टोकरी उड़ेलते ही वे दण्डवत गिर पड़े और बोले--मैया ! तुम ही मेरी गुरु हो। तीन वर्ष तक तुम्हीं ने परीक्षा करके मुझको इस योग्य बनाया। मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। माँ ! मैं तेरा ऋणी हूँ। वह गदगद हो उठी।
ये सज्जन फिर स्नान करने गये और तैयार होकर गुरुजी के पास आये और निवेदन किया। गुरुजी ने कहा--अब तुम योग्य हो गये। आज तुम अधिकारी हुए। आज तुम्हें ज्ञान देंगे।
"सरस प्रसंग"
- "श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार" (श्रीभाईजी)
"जय जय श्री राधे"
0 Comments