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“विशुद्ध प्रेम"

         जहाँ प्रेम केवल प्रेम के लिये होता है वहाँ प्रेम की विशुद्धि बनी रहती है। जहाँ प्रेम किसी दूसरे आधार पर उपस्थित हो गया और किसी दूसरे को वह चाहने लगा तब वह प्रेम कलंकित हो जाता है और प्रेम का केवल प्रेम नाम रह जाता है।
         एक कथा है। समर्थ रामदासजी शिवाजी के गुरु थे। शिवाजी ने अपना सारा राज्य समर्थ गुरु रामदासजी को समर्पित कर दिया था।रामदासजी ने उसे स्वीकार किया था और भगवा झण्डा उस राज्य का निशान था। रामदासजी ने राज्य के अमात्य के रुप में शिवाजी को नियुक्त करके राज्य का संचालन उन्हें सौंप दिया। उन्होंने कहा कि तुम राजा के प्रतिनिधि के रूप में राज्य का संचालन करो।  वे संचालन करने लगे। रामदासजी महाराज बड़े सिद्ध पुरुष थे। वे महात्मा थे, सन्त थे। सन्तों के पास जब भीड़ लगती है तो वह भीड़ केवल प्रेमियों की ही नहीं होती। न जाने कितनी-कितनी भावना से लोग आते हैं। किसी को धन चाहिये, किसी को बीमारी से मुक्ति चाहिये, किसी को पुत्र चाहिये, किसी को उपाधि चाहिये, किसी को पाप-नाश चाहिये, किसी का पुण्य उदय होना चाहिये, किसी पर कोई देवता प्रसन्न हो जायँ, किसी को कहीं लाभ हो जाय, इस प्रकार न मालूम कितने लोग इकट्ठे हो जाते हैं। यह सब मैं अनुभव की बात कह रहा हूँ। इन भावनाओं से जमा लोग तभी तक रहते हैं जबतक मिलने की आशा होती है नहीं तो सब भाग जाते हैं। जो रह जाते हैं वे सत्य होते हैं।
          एक महात्मा ने मुझे एक सच्ची घटना सुनायी। उन्होंने कहा-- एक महात्मा थे। उनके बहुत भक्त थे। वे कहते थे हम तो आपके चरणों की पूजा करेंगे। हम तो आपके चरण का अँगुठा धोया पीयेंगे। सब अँगूठा पीने के लिये आतुर। उनको कोढ़ हो गया। शरीर से मवाद चूने लगा। अब वहाँ एक बचा बाकी निकल गये। उसने कहा कि जैसे मैंने स्वस्थ और सुन्दर चरणों का चरणोदक पान किया है उसी प्रकार आपकी अस्वस्थता में भी पान करूँगा। वह पान करने से कोढ़ी हो गया। दोनों कोढ़ी हो गये। अब लोगों ने कहा हम तो बुद्धिमान निकले, बच गये। परन्तु उन दोनों का कोढ़ तो मायिक था निकल गया। वैसे आने वाले सभी चले गये।
          इसी प्रकार की एक घटना रामदासजी के जीवन में भी एक बार हुई। रामदासजी के पास भीड़ लग गयी। सुबह से रात दो बजे तक रामदासजी महाराज न सो सके न उठ सके। सब भगवान् का भजन करें और सभी कहें कि हम बड़े प्रेमी--हम बड़े प्रेमी हैं। प्रेमी तो कोई था नहीं, परन्तु कोई रंचमात्र भी अपना प्रेम कम नहीं मानता था। सब मानते कि हमारा उससे अधिक है, परन्तु यह कोई नहीं मानता कि मेरे में प्रेम कम है, और यदि कभी कहता तो व्यंग्य में कहता कि हमारा तो कम रिश्ता है आपके प्रति। वहाँ पर सभी प्रेम का दावा करने लगे। अब रामदासजी को मुश्किल हो गयी। रामदासजी ने सोचा इस परेशानी से कैसे छुटकारा मिले ? वे महात्मा थे। उन्होंने एक युक्ति सोची। एक दिन उनका पैर फूल गया। पैरों में सूजन आ गयी। उन्होंने पैरों में पट्टी बाँध ली और करहाने लगे। लोग इक्ट्ठा हो गये और बोले-- महाराज ! दर्द बहुत है। क्या करें ? डॉक्टर, बैद्य बुलायें ? लोग दवा लाने लगे, धन लगाने लगे कि येन-केन- प्रकारेण महाराज का दर्द समाप्त होना चाहिये। हमारे प्राण चलें जायँ, परन्तु आपका दर्द मिट जाय, आपका पैर ठीक हो जाय। महाराज जी सब सुनते रहे। दूसरे दिन मंडली बैठी थी। सारे त्याग करने क़ तैयार थे। लोगों ने सोचा कि आखिर महाराजजी कौन सा त्याग यहाँ पर माँगेंगे ? महाराजजी बड़े दक्ष थे, उन्होंने कहा-- मैंने इसकी दवा सोच ली है। किसी और उपाय से तो यह अच्छा होगा नहीं। इस पैर के अँगूठे में मवाद भर गयी है। इस मवाद को कोई भक्त मुँह लगाकर चूसे, उसे फेंके नहीं बल्कि पी जाय तब वह तो मर जायेगापरन्तु मेरा पैर अच्छा हो जायेगा। एक ने कहा-- महाराज ! यह बात तो आपने ठीक कही है। शेष में से लोगों ने सोचा कि किसीतरह से यहाँ से भागें फिर यहाँ कौन आयेगा। अब किसी को लघुशंका लगी, किसी ने कान पर यज्ञोपवीत लगाया, किसी को खाँसी आ गयी, किसी के घर का आदमी आ गया और किसी को कुछ समाचार आ गया वे निकल गये। किसी ने कहा-- महाराज ! क्या करें, मैं तो बीमार रहता हूँ सबके सब चल दिये। आश्रम खाली हो गया। केवल एक भक्त बचा। उसने कहा महाराज ! आपने जैसा सोचा है, मैं वैसा ही करूँगा। उन्होंने कहा-- मर जाओगे। वह बोला--मर ही तो जायेंगे, आपका यह पैर तो अच्छा हो जायेगा। उन्होंने कहा--हाँ पैर तो अच्छा हो जायेगा। रामदासजी ने पुनः कहा-- फिर चूसो और सबको बुला दो। उसने सबको बुलाया और अँगूठा चसने लगा। अब सब लोग आने लगे धीरे-धीरे कि यह तो चूस रहा है ; अब अपना नम्बर तो आयेगा ही नहीं। लोग आकर कहने लगे कि मैं तो आ ही रहा था परन्तु यह कार्य आ गया अन्यथा मैं तैयार था। यह इसके भाग्य में था। मेरे भाग्य में ऐसा कहाँ ? मैं चाहता था कि यह पुण्य मुझे मिले, यह सेवा मुझे मिले परन्तु मेरा भाग्य ही ऐसा था कि अमुक कार्य में फँस गया। अब सबके सब श्रेय लेने को तैयार थे। यह बिल्कुल मनोवैज्ञानिक तथ्य है। वहाँ था क्या ? रामदासजी को तो भीड़ हटानी थी। इसलिए उन्होंने एक पका हुआ तोतापुरी आम अपने अँगूठे में बाँध लिया था। आम का मुँह सामने था। वह ऊपर हे ऊँचा और आखिर में नीचा चोंचदार था। आम रस भरा मीठा था। वह भक्त जब चूसने लगा तो उसको स्वाद आने लगा और मजे में पूरा चूस गया। फिर बोला-- महाराज ! यह मवाद नहीं है। यह तो बहुत मीठा है। गुरुजी ने कहा-- गुरु की मवाद ऐसी ही होती है, जो चूस लेता है उसी को पता लगता कि वह कैसी है। आम चूसने के बाद सिर्फ गुठली बची। महाराजजी ने जाकर गुठली फेंक दी। उनका पैर अच्छा हो गया ; अच्छा तो था ही।.उन्होंने पैर साफ कर लिये। लोगों ने कहा महाराज !हम भी ऐसा कर लेते। उन्होंने कहा-- तुम लोग यहाँ से भागो। जिसने मवाद चूसी है सिर्फ वही रहेगा। शेष तुम लोग चले जाओ। उन सबको भागना ही था, वे भाग गये। इस प्रकारका प्रेम, प्रेम होता है।
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                          "जय जय श्री राधे"

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