*आज के विचार*
*( त्रिपुरासुन्दरी द्वारा अर्जुन को "राधाभाव" का उपदेश )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 116 !!*
************************************
गतांक से आगे -
भगवती त्रिपुरा सुन्दरी को प्रसन्न करनें में अर्जुन को ज्यादा समय नही लगा था........और वैसे भी त्रिपुरा सुन्दरी पार्थ से प्रसन्न ही थीं ।
कृष्ण सखा, नर के अवतार अर्जुन से कौन प्रसन्न नही होगा ।
अर्जुन ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ........माँगों क्या वर चाहिये ?
दिव्य वस्त्रों में सुशोभित गौर वर्णी भगवती त्रिपुरा सुन्दरी अर्जुन के सामनें प्रकट हुयी थीं ।
महर्षि शाण्डिल्य नें वज्रनाभ को बताया ।
अर्जुन नें दर्शन किये भगवती के ...........साष्टांग प्रणाम किये ।
हे भगवती ! मुझे कुछ नही चाहिये..........अगर आप मुझे अधिकारी जानें तो निकुञ्ज के दर्शन करा दीजिये ...........हे त्रिपुरा भगवती ! मैने अपनें श्रीकृष्ण चन्द्र के मुखारविन्द से "श्रीराधा भाव" की चर्चा सुनी है...........ये नाम "राधा" कहते ही मुझे रोमांच होंने लगा है ......अनायास ही नयन मेरे गीले होनें लगे हैं .........हे ललिताम्बा ! मेरे पास सब कुछ है ..........हाँ क्यों न कहूँ सब कुछ है ....? है ........सबसे बड़ी बात मेरे साथ मेरा सखा है .......मेरा कृष्ण है .......फिर मुझे क्या चाहिये ..........पर मैने देखा है ........मेरे सखा कृष्ण को, अकेले में रोते हुए.......अकेले "राधा राधा" कहकर आहें भरते हुए मैने बहुत बार देखा है...........हे भगवती ! मैने उन करुणानिधान वासुदेव से जब इन श्रीराधा के बारे में पूछा तो......उनका उत्तर था...........वृन्दावन की सीमा में मानसरोवर है .......वहाँ जाकर भगवती त्रिपुरा की आराधना करो........त्रिपुरा सुन्दरी मेरी श्रीराधारानी की प्रिय सखी ललिता हैं........हे भगवती ! आप मेरी इन इच्छाओं को पूरी करो......मुझे श्रीराधाभाव के सम्बन्ध में कुछ अनुभव कराओ ......मुझे "निकुञ्ज तत्व" के बारे में बताओ ......हे भगवती ! आप ही इन रहस्यों को उजागर कर सकती हैं ....मेरे ऊपर कृपा करें ।
इतना कहकर अर्जुन फिर साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे ।
हे पार्थ ! ये तुमनें क्या माँग लिया ?
धन , यश, बल, कीर्ति, यौगिक सिद्धियाँ समाधि........जो चाहिये मैं प्रसन्नता पूर्वक दे देती हूँ .......पर ये तुमनें क्या माँग लिया ?
भगवती त्रिपुरा सुन्दरी भाव में डूब रही थीं.......उनके नेत्रों से अपूर्व स्नेह का उदय हो रहा था.........प्रेम रस से भींग गयी थीं ।
हे स्वामिनी ! हे राधिके ! हे किशोरी !
त्रिपुरा सुन्दरी के रोम रोम से ये पुकार निकलनें लगी थी ।
अर्जुन स्तब्ध हो गए .......उनके कुछ समझ में नही आरहा था ।
त्रिपुरा सुन्दरी की शक्ति के आगे कौन टिक सका ?
पर ये भी "श्रीराधा" कहते हुए ..........अपनें आपको धन्य अनुभव कर रही हैं.......आश्चर्य चकित अर्जुन देखते रह गए थे ।
हे अर्जुन ! श्रीराधा ब्रह्म की अल्हादिनी शक्ति हैं .........
प्रेम की उच्चतम अवस्था हैं ...........श्रीराधा ।
महाभाव का साकार रूप हैं श्रीराधा ।
अर्जुन के सामनें त्रिपुरा सुन्दरी भाव विभोर हो गयीं थीं "महाभाव" की चर्चा करते हुये ।
हे अर्जुन ! तुम कृष्ण सखा है........नारायण के अनादि सखा हो ......श्रेष्ठतम "नर" हो तुम........इसलिये सुनो .......ये अत्यन्त रहस्यमय और गोप्य चर्चा हैं.........अनधिकारी के सामनें इस महाभाव की चर्चा न करना ही श्रेष्ठ है ..........अर्जुन ! इस "महाभाव" का अनुभव तो बड़े बड़े ऋषि योगी तपश्वी तक नही कर पाते .........ब्रह्मा का भी प्रवेश "बृज लीला" तक ही है...........हाँ भगवान शंकर को प्रवेश मिला है ......और वो भी तब, जब गोपी बनकर वह आये ।
हे भगवती ! जब ब्रह्मा की गति नही.......भगवान शंकर भी गोपी बनकर प्रवेश किये उस महाभाव के रास में........तब मैं क्या हूँ ?
पर इतना पूछना चाहता हूँ कि .......ये "महाभाव" किसे कहते हैं ?
अर्जुन नें पूछा ।
प्रेम की अपनी चाल है..........हे पार्थ ! ...............
सामान्य रूप में आगयी थीं त्रिपुरा सुन्दरी ............वह दैवीय रूप अब छुप गया था त्रिपुरा का ..............
मान सरोवर की दिव्य सीढ़ियों में बैठकर चर्चा करनें लगीं थीं ....अर्जुन से ।
अब "भगवती" मत कहो पार्थ ! ललिता सखी .........हाँ "निकुञ्ज राज्य " में मुझे इसी नाम से जाना जाता है ...........
मैं वहाँ, समस्त शक्तियों की स्वामिनी ब्रह्म को आनन्द देनें वाली .....आल्हादिनी महाभाव रूपा श्रीराधारानी की सखी हूँ.......अर्जुन ! "सखी" तो वह करुणामयी कहती हैं ......मैं तो उनकी सेविका हूँ ।
अब सुनो ध्यान से ........तुमनें पूछा है ....."महाभाव" किसे कहते हैं ।
तो सुनो अर्जुन ! प्रेम अपनी अटपटी चाल से चलता रहता है .......प्रेम कभी रुकता या ठहरता नही है........वो चलता रहता है ।
प्रेम के चलनें से ......आगे आगे बढ़नें से ........उसमें स्वाभाविक गति होती है ........तो प्रेम की प्रथम गति.. ....स्थिति है .........
1) स्नेह ।
प्रेम जब प्रथम हृदय में आता है ......तो वह हृदय को पिघला देता है ......कठोर से कठोर हृदय भी पिघलते देखे गए हैं प्रेम में ........इस पहली स्थिति का नाम है - स्नेह ।
2 ) मान ।
प्रेम जब स्नेह से आगे बढ़ता है .......तब अपनत्व घना होनें लगता है .....अपनापन गहरा हो जाता है .........उस स्थिति में प्रियतम से रूठना सहज है .............बाहर से देखनें में भले ही लगे कि प्रियतम से वह क्रोध कर रही है ..........पर वह क्रोध नही ..........वह प्रेम का ही एक रूप होता है ...........जिसे कहते हैं - मान ।
3) प्रणय ।
ये "मान" से आगे की स्थिति है ...........इस अवस्था में प्रेमी को लगता है ......हम दोनों एक हो रहे हैं ..........हम दोनों का तादात्म्य एक होता जा रहा है ..........इसे - प्रणय कहते हैं ।
4 ) राग ।
प्रियतम का वियोग हो गया है ..............पर उस वियोग में भी .....अपार दुःख कष्ट को सहते हुए .......लगे कि ये तो प्रियतम की कृपा है .........दुःख में भी सुख का अनुभव करनें लगे ......इसे कहते हैं - राग ।
5 ) अनुराग ।
प्रेम के विकास क्रम में ..........ये एक पड़ाव आता है .........ये विचित्र स्थिति होती है........जिसमें प्रेमी को अपनें प्रियतम के लिये जड़ बनना भी स्वीकार होता है .........जैसे - मैं उनके मार्ग की धूल बनूँ .......ताकि उनके चरण तो मिलेंगें.........जल बनूँ उस सरोवर का ........जिस सरोवर में मेरा प्रियतम नहाता हो , आदि आदि.......इस स्थिति को "अनुराग" कहते हैं ।
6 ) भाव ।
हे पार्थ ! तमोगुण का नाश रजोगुण से करे साधक ..........फिर रजोगुण का नाश सत्वगुण से करे ............अब सत्वगुण ही है हमारे अन्तःकरण में .........जब विशुद्ध सत्व होगा ........तब ईश्वर के प्रति अटल विश्वास होगा ..........तब लगनें लगेगा कि हमारा सनातन सखा तो ईश्वर है ...........तब उसकी तड़फ़ जागेगी .............
पर भाव, उच्च स्थिति है.......इस स्थिति में प्रेमी प्रियतम से मिलनें के लिये तड़फता है ........दिन रात तड़फता रहता है ........आग में जलता है ........विरहाग्नि में......पत्ता भी वृक्ष से गिरता है तो लगता है कि कहीं प्रियतम तो नही आगया ! ये स्थिति बनी रहती है उसकी ।
इसे ही कहते हैं भाव ।
7 ) महाभाव ।
ये उच्चतम स्थिति है प्रेम की ......इससे ऊँची स्थिति नही ......ये प्रेम की समाधि है .....महाभाव ।
हे अर्जुन ! भाव घनीभूत, परिपक्व हो जाए ........तो उसे ही महाभाव कहते हैं .............महाभाव में स्थित प्रेमी से मिलनें के लिये तो भगवान स्वयं तड़फते हैं .........इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता ..........क्यों की महाभाव की स्थिति शब्द से परे है ..........और इसी महाभाव की स्वरूपा हैं ..........श्रीराधारानी ।
इसलिये तो श्रीराधारानी से मिलनें के लिये कृष्ण भी आतुर है ......
ब्रह्म बेचैन है........उसे अपनी अल्हादिनी से एक होकर मिलना है ।
इतना कहकर ललिता देवी शान्त हो गयीं .....और उस दिव्य मान सरोवर को देखनें लगीं ।
हे ललिता सखी जू ! कृपा करो मेरे ऊपर ............उन महाभाव श्रीराधारानी के दर्शन कराओ .........युगलवर जहाँ निरन्तर विहार करते हैं उस निकुञ्ज के भी दर्शन कराइये .........अर्जुन नें प्रार्थना की ।
मुस्कुराईं ललिता सखी ..................
कितनी सहजता से बोल गए तुम अर्जुन !..........इतना सरल नही है निकुञ्ज में प्रवेश ..........और प्रेम का साकार रूप श्रीराधारानी का दर्शन ! हँसी ललिता सखी ।
कुछ तो उपाय होगा ...........मेरे लिये उपाय बताइये ललिता जी ।
चरण में पड़ गए अर्जुन ।
ध्यान करके बैठीं ललिता ................कुछ ही देर में उनके हृदय में प्रकाश हुआ ............युगल सरकार हृदय में प्रकट हो गए थे ।
पर ये क्या ! अर्जुन आनन्दित हो उठे ..............दिव्य युगल महामन्त्र गूँज रहा था चारों दिशाओं में ........अर्जुन नें सुना उसे .......
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।।
हे पार्थ ! ये मन्त्र बहुत गोप्य है ..........प्रेम के उपासकों का यह मन्त्र प्राण है ...........ये कल्पतरु है .........जो माँगों ये मन्त्र वही दे देता है .....प्रेम प्रदाता है ये मन्त्र ........मुक्ति और भुक्ति भी देता है .......पर इससे बड़ी बात ये है कि ..........प्रेम को देने वाला भी यही मन्त्र है ........निकुञ्ज का अधिकारी भी यही मन्त्र बना देता है ।
हे अर्जुन ! इस मन्त्र का जाप करो .......हृदय में दिव्य सिंहासन रखो ....उसमें युगलवर को विराजमान कराओ ...........अष्ट सखियाँ चारों ओर सेवा में लगी हुयी हैं .......ऐसे दर्शन करते हुए इस महा प्रेममय मन्त्र का जाप करो........आज्ञा मिली त्रिपुरा सुन्दरी से अर्जुन को .......
और अर्जुन नें आँखें बन्द कीं......और युगल मन्त्र की साधना शुरू कर दी थी ।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
शेष चरित्र कल -
Harisharan
No comments:
Post a Comment