*आज के विचार*
*( कही-अनकही श्रीराधा की )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 98 !!*
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वो प्रेम विरह !
आप कैसे रह सकते हो इस मथुरा में.........
वो श्रीराधा !
उद्धव बोल रहे हैं .......और श्रीकृष्ण सुन रहे हैं ।
विरह की आग जल रही है हृदय में ........पर किसी को दिखाना नही है ।
उस आग को कोई देख भी नही सकता ........हाँ .........जिसके अंदर जल रही है वह देख सकता है .....या जिसनें सुलगाई है वह ।
उद्धव नें आँसू पोंछते हुए कृष्ण की ओर देखा ।
श्रीराधारानी अपनें प्रेम को छुपाती हैं........अंदर अंदर ही सुलग रही हैं ........पता है आपको ! कभी हँसती हैं जोरों से ......तो कभी रोती हैं........जब कोई रोती राधा को चुप करानें आगे आता है .....तब वह पूछती हैं ......क्या हुआ मुझे ? मैं ठीक हूँ.......तुम जाओ यहाँ से .......हे कृष्ण ! वो रात रात भर सोती नही हैं ....।
उद्धव सन्ध्या के समय पहुँचे थे मथुरा .......अब रात्रि होनें को आगयी ।
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कौन है ?
उद्धव नें पूछा .........क्यों की कक्ष का द्वार किसी नें खटखटाया था ।
भोजन नही किया है श्रीकृष्ण चन्द्र जू नें !
बाहर देवकी माता की दासी खड़ी थीं ।
नहीं ..........मैने माखन खा लिया है .........मुझे नही खाना अब कुछ ....आप जाओ और माता देवकी से कह देना ........मैने माखन खा लिया है .......पेट भर गया है ........श्री कृष्ण ने कहा ।
द्वार भी नही खोला........दासी लौट कर चली गयी थी ।
हाँ ....उद्धव ! अब बताओ ....मेरी राधा कैसी है ?
श्रीकृष्ण को बस अपनें "प्रेमिन" की बातें ही सुननी हैं ।
हे गोविन्द ! तुम्हारी श्रीराधा की दशा विचित्र हो गयी है ..........
मैं छ महिनें तक वृन्दावन में रहा .........कभी नन्दगाँव में रहता .....कभी बरसानें में घूमता .......कभी गिरिराज की तलहटी में बैठकर तुम्हारे चरण चिन्हों को देखता रहता था ................
बरसानें में जाते ही .........मेरा हृदय भाव से भर जाता था ...........
वो श्रीराधा रानी ! मैं उन्हें देखता था ...........वो खोयी रहती थीं तुममें ही ..........उनके सारे वस्त्र गीले रहते थे , मैने देखे ..........
मैने ललिता सखी से कहा भी था - ये श्रीकृष्णप्रिया हैं .......ये वृन्दावनेश्वरी हैं .........आप लोग इनका ध्यान क्यों नही रखते ........देखो ! इनके सारे वस्त्र भींगें हैं ........बदल क्यों नही देतीं ?
मैने कह तो दिया था ललिता सखी से ......पर ललिता नें मुझे जो उत्तर दिया ........हे गोविन्द ! ........कुछ देर तक उद्धव बोल ही नही पाये ......फिर अपनें आपको सम्भाल कर बोले - ललिता नें मुझे कहा ।
उद्धव ! कितनी बार वस्त्र बदलें ? दिन में पचासों बार वस्त्र बदलते रहते हैं श्रीजी के........पर फिर गीले हो जाते हैं ।
उद्धव ! इनके अश्रु नही बहते........इनके आँखों से तो पनारे बहते हैं......जब से श्याम सुन्दर गए हैं वृन्दावन छोड़कर......तब से ये रोती ही रहती हैं ........श्रीराधा के नेत्रों से बहनें वाले आँसुओं के पनारे क्षण क्षण में वस्त्रों को भिगोते रहते हैं ।
उद्धव जब ये बता रहे थे तब श्रीकृष्ण का ध्यान केवल उद्धव में ही था .........वो उद्धव के एक एक शब्द को मानों पी रहे थे ।
श्रीराधारानी कभी कभी चेतन - अचेतन का भेद मिटाकर सबसे बातें करनें लगती हैं ......वो अन्धकार में कभी कभी दौड़ पड़ती हैं ...........
क्यों ? क्यों उद्धव ! कृष्ण नें अपनें अश्रु पोंछते हुए पूछा ।
उन्हें अंधकार भी "तुम" लगते हो.....काली अंधियारी रात को देखकर उन्हें तुम्हारा स्मरण हो उठता है.......और वो "श्याम सुन्दर श्याम सुन्दर" कहते हुए तुम्हे आलिंगन करनें के लिए दौड़ पड़ती हैं ।
कभी उनके चरण चिन्हों में पीताम्बरी से तुमनें छायाँ की होगी .........उन्हें याद है ...........वो उसी जगह जाकर धूप में घण्टों खड़ी रहती हैं ...........ताकि तुम आओ .............पर तुम कहाँ !
हे कृष्ण ! उस समय वो पसीनें से नहा गयी होती हैं ........पर विचित्रता वहाँ घट जाती है.....जब श्रीराधा रानी के पसीनें की सुगन्ध को पाकर भौरें फूलों को छोड़कर उनके दिव्य देह पर मंडरानें लगते हैं .......श्रीराधा भावावेश में मूर्छित हैं ......और भँवर उनके ऊपर मंडरा रहे हैं.......हे कृष्ण ! सखियाँ बहुत मुश्किल से खोज पाती हैं उन्हें ।
जब पूर्णिमा आती है .......हर पूर्णिमा को ..........
तब जिद्द करके बैठ जाती हैं श्री किशोरी .......कि आज तो महारास है .....मुझे सजा दो सखियों ! .....जल्दी करो .......महारास की बाँसुरी बजनें वाली है .........फिर सज धज कर बैठ जाती हैं.........कहती हैं अब सुनो ! अब बजेगी बाँसुरी मेरे प्रियतम की ।
पर बाँसुरी कहाँ बजे ?
सबकुछ है वृन्दावन में .......पर सब कुछ होनें के बाद भी लगता है कोई चला गया वहाँ से .........सब कुछ तो है !
उद्धव कहते हैं - हे गोविन्द ! सन्ध्या वैसी ही आती है ..........रात भी वैसी ही है .........पर वो प्रेम के गीत नही हैं ।
छमछम करती घुँघरू है ......पायल भी बजती है ...............पर इन सबका बजना सार्थक नही होता ......क्यों की बाँसुरी नही बजती अब ।
कोई चोर नही है वृन्दावन में अब ................
ये बात श्रीराधा रानी नें ही मुझे कही थी ।
क्यों ? मैं कुछ समझा नही था उस समय ।
श्रीराधा रानी नें उत्तर दिया - वो सब कुछ चुराकर ले गए.....हमारे पास अब है क्या ? इसलिये कोई चोर नही आते यहाँ ।
हाँ वो मन का चोर था.........मन ही सबकुछ होता है.......हमारा मन ही चुराकर ले गया........
श्रीराधा रानी हँसती भी हैं - आँखों का काजल चुरा ले ......और पता भी न चले, वाह ! चोर हो तो ऐसा ।
वो चोर सबकुछ चुराकर ले गया........हमारे पास अब कुछ नही है ।
ये कहते हुये वो हँसती हैं .............उनकी हँसी सुनकर पूरा वृन्दावन रोता है ...........उफ़ ! उद्धव नें अपनें आपको सम्भाला ।
पर ये क्या ?
हा राधे ! हा प्राणेश्वरी ! हा राधिके !
कहते हुए श्रीकृष्ण देह भान भूल कर धरती में गिर पड़े थे ।
उद्धव घबडा गए ......जल का छींटा देंने लगे .......पँखा करनें लगे ।
हे नाथ ! नेत्रों को खोलिए......उद्धव हिलकियों से रो रहे हैं ।
श्रीकृष्ण के रोम रोम से "श्रीराधा राधा राधा" ....यही निकल रहा है ।
हा भानु नन्दिनी !
अर्धरात्रि में जाकर कुछ होश आया था श्रीकृष्ण को .......और यही शब्द निकला था उनके मुखारविन्द से ।
उद्धव मन ही मन सोच रहे हैं .....श्रीराधारानी नें मुझे कहा था .....समझाया था कि ......हमारे इस विरह दशा का वर्णन हमारे प्राणनाथ के सामनें जाकर मत करना ............
उद्धव चौंक गए एकाएक...... अत्यधिक रुदन के कारण परिश्रम भी हो गया श्रीकृष्ण को......उनके पसीनें निकलनें लगे थे देह से ......पर चौंक गए उद्धव कि............ श्रीराधा रानी से जो गन्ध प्रकट होती थी .......वही, वैसी ही गन्ध श्रीकृष्ण के भी अंग से निकल रही थी ।
हे वज्रनाभ ! उद्धव कुछ समझ नही पा रहे थे............
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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