"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 41

41 आज  के  विचार

(  "गोपीगीत" - एक  दिव्य प्रेमगीत  )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 41 !! 



क्या  श्याम सुन्दर आगये ?        

एकाएक  उठ गयीं थीं  श्रीराधा रानी  ।

नही आये,   वे निष्ठुर कन्हाई नही आये.....सखियों नें दवे स्वर से कहा ।

ओह !   अभागिन हैं हम  कि हमारे प्राण भी नही निकलते !

कराहते हुये श्रीराधा रानी बोली थीं  ।

हे  वज्रनाभ !     श्रीराधा रानी नें  सब गोपियों को कहा ........अब आगे  न  चलो ......यहीं  बैठ जाती हैं  हम सब  ।

पर क्यों ?        सखियों नें पूछा  ।

क्यों की  सखियों !  वे  जिद्दी हैं .....हम उन्हें खोजनें जा रही हैं  तो वे  हमसे आगे आगे  और आगे बढ़ते ही जा रहे हैं ........उफ़ ! कितनें काँटे गढ़ रहे होंगें  उनके चरणों में ......वैसे ही उनके चरण कितनें कोमल हैं  ।

इसलिये  अब उन्हें और  न भगाओ .......हम सब यहीं बैठ जाती हैं ........आना होगा  वे आजायेंगें......इतना कहकर  चुप हो गयी  श्रीराधा रानी ........श्रीराधा रानी की बातें सबको अच्छी लगी थी.....तो सब  वहीँ बैठ गयीं........और  श्रीकृष्ण का चिन्तन सहज करनें लगीं.......कृष्ण का चिन्तन होते ही ........फिर  वियोग नें जकड़ लिया इन गोपियों को ........रुदन फिर शुरू हो गया ...........

वीणा के झंकार की तरह बोली थी  इन गोपियों की.....उसी  बोली में जब  हृदय के उदगार    प्रकट हुए ......तब  वही गीत बन गए.......हे वज्रनाभ ! इसे "गोपी गीत" कहते हैं .....ये गीत बड़ा प्रसिद्ध है.....बड़े प्रेम से .....भावपूर्ण होकर  गोपियों नें इसका गान करना शुरू कर  दिया  था ।

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हे प्यारे  !   कह तो रही हैं हम कि  -  "तेरी हैं"   !  

हाँ गलती हो गयी,   माफ़ करो....कि कह दिया -  "तुम हमारे हो" ! 

नही....."लहरों का  समुद्र नही होता...समुद्र का लहर है".....वैसे  अनपढ़ हैं हम....नही जानती  इन भाषा के  भेदों को.....तुम हमारे कैसे ?     हाँ ....."हम सब तुम्हारी हैं".....अब तो खुश !   आजाओ ना  अब  ! 

मर जातीं हम तो ........पर  तुम्हे  बिना देखे  ये प्राण भी  जानें को मान नही रहे .......उफ़ !  हम क्या करें  ?          

दासी हैं तुम्हारी .......वो भी बिना मोल की प्यारे !       

इसीलिये  हमें मार रहे हो ?           अबला  नारी को ..........वो भी इस भयावह वन में लाकर ..........अर्ध रात्रि के समय ..............हमारे  प्राण ले रहे हो   ?   क्यों  ?       

क्या कहा  ?        हमनें कहाँ प्राण लिए तुम्हारे .....झूठी गोपी  ।

नही  ....झूठे तुम हो ..........वध कर रहे हो  हमारा  तुम ........फिर पूछते हो ......कैसी हो  ?        वाह  जी !       

नही .......मात्र शस्त्र से मारना ही वध नही कहलाता........तुमनें अपनी  तिरछी निगाह से हमें मारा है ........हमें  देखो !    अभी भी कैसे तड़फ़ रही हैं ......घायल कर दिया  हमें .....बोलो ?   हम क्या करें  अब  ?    

हम "अपनें आपसे" प्रेम करती हैं ............तुम्हे कोई दिक्कत ?   

और हाँ  एक बात और कहे देती हैं  तुमसे ........हम ही क्यों   इस दुनिया में हर जीव  अपनें  आप से ही प्रेम करता है .......... सब  जीव   अपनी "आत्मा" से ही प्रेम करते हैं  !   झूठ बोलते हैं   वो लोग  जो कहते हैं  हम  पति से ,  पत्नी से ,  परिवार से ,  अपनें बच्चों से ,  अपनें घर से  प्रेम करते हैं ........नही,  कोई नही करता  किसी से प्रेम   इस जगत में......हर जीव अपनी आत्मा से ही प्रेम करता है ..........आत्मा की अनुकूलता के कारण ही प्रेम करता है........क्या ये बात  सच्ची नही है ? 

अच्छा !    अब  तुम बताओ -  तुम कौन हो ?     

हम ही बता देती हैं  - तुम कौन हो  !   

तुम  यशोदा के पुत्र नही हो ......तुम नन्द के सुत भी नही हो .......तुम यदुवीर भी नही हो ........तुम,    तुम  सबके  भीतर  विराजमान तत्व  आत्मा  हो ......और  हम  अपनी आत्मा से ही प्रेम कर रही हैं ......जो सब करते हैं.......हम को पता है .......लोग बेहोशी में  करते हैं  ।

तप रही हैं  हम......जल रही हैं  हम विरहाग्नि में......हमें  बचा लो ।

हे प्राण !      रख दो  अपनें अधर  इन प्यासे अधरों पर ..............

  वे अधरामृत.......उन्हीं  से हमारी तपन बुझेगी  ।

इन चरणों को  हमारे वक्ष में रख दो .......जल रहा है  हमारा  हृदय ।

क्यों ?      क्यों भाव खा रहे हो  यार !       

क्या हमारे वक्ष  उन कालिय नाग के फनों से भी विष बुझे हैं .......अब बुझा दो ना  इस अगन को .....हे हरि  !

बन्द करो !   नही सुननी  उस कृष्ण की कथा ........नही सुननी हमें ।

क्या है  उसकी कथा में ..............कपट ही कपट ........जैसे  वो छलिया  छल करता है  हमारे साथ ......ऐसे ही  उसकी कथा  भी हमारे साथ छल करती है ............देखो !    ये दशा   किसके कारण हुयी है ........उस कपटी कृष्ण की कथा सुननें के कारण ..........छोड़ो जी !  उस कपटी की बातें .........छोडो  ।

कुछ तो सोचो  प्यारे !       हमनें तुम्हारे लिये सब कुछ छोड़ दिया .....पति , पुत्र, परिवार   सब ......तुम्हारे लिए ....सिर्फ तुम्हारे लिये....पर तुमनें क्या किया  ?       तुमनें हमें छोड़ दिया.......अब हम कहाँ जाएँ ?

ए कपटी !      ये क्या अच्छी बात है   वन में अकेले छोड़ देना स्त्री को ।

ए  कपटी !       हमें रुलाना  ,   ये अच्छी बात है  ? 

तुम ही थे  जो एकान्त में  हमसे बड़ी मीठी मीठी बातें करते थे ...........कपटपूर्ण बातें ...........सच में  छलिया हो  तुम ......छली गयीं  हम सब  तुमसे .........अब क्या करें  ?

तुम्हारे मुख को बिना देखे ........एक पल भी चैन नही आता  था हमें ।

और जब तुम सामनें होते ........तब  तो  इन आँखों में गिरनें वाले पलक, हमें और दुःख देते थे .......बारबार गिरते रहना ............तब हमें पलकों पर बड़ा गुस्सा आता था .............और  ये गुस्सा  कभी कभी  ब्रह्मा पर भी उतरता ..............कि उस विधाता नें पलकें क्यों बनाएं ..........अगर ये पलकें न होती ...........तो  और इन नयनों से  तुम्हारे   रूप सुधा का पान करतीं  ..........पर  ।

अब आओ ना !   प्यारे !  

कब से राह देख रही  हैं  तुम्हारा .....आओ ना अब  ।

झाड़ू बुहार कर   बाट जोह रही हूँ ...........तुम आये तो ......पर   हवा की तरह आये ......फिर पता नही कहाँ चले गए ................

देखो !  मैनें तुम्हारा मन्दिर भी सजाया है .........ये मन ही  मन्दिर है ......इसमें मैने झाड़ू  खूब  अच्छे से लगाया है ........काम क्रोध लोभ मोह की गन्दगी  सब निकाल बाहर फेंक दिया है .......अब  तो आजाओ  ।

हृदय से प्रकटे  इन गीतों को गाते हुए  -  श्रीराधा रानी  "हा कृष्ण"  कहते हुए  धड़ाम से पृथ्वी में फिर  गिर पडीं ................

ललिता सखी   "हा सखे"   कहते हुये  विलाप करनें लगीं ।

अन्य  सखियाँ  - कोई "कान्त" कह रही थीं ....कोई  हा रमण !  कह रही थीं ...........किसी की तो वाणी ही अवरुद्ध हुयी जा रही थी  ।

हे वज्रनाभ !   सब गोपियों नें  आगे श्रीराधा रानी को रखकर  इस प्रेम गीत को गाया.........एक स्वर में गाया ..........एक   ही "भाव रस"  सबके हृदय में प्रवाहित हो रहा था  ।

हे वज्रनाभ ! सुबुकते हुए गाये गए  इस "प्रेम गीत"  का इतना प्रभाव पड़ा कि ......पक्षी से लेकर  पशु तक ......वृक्ष से लेकर लताओं तक ......फूलों  से लेकर  कण्टक  सब ,   अरे !  सम्पूर्ण वृन्दावन तक रो गया था  ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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