"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 40

40 आज  के  विचार

( गहरो प्रेम समुद्र को )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 40 !! 



ब्रह्म और जीव का सरस विहार ही नित्य है .....बाकी सब अनित्य है ।

यह मधुर मिलन ही सत्य है .......बाकी सब  मिथ्या है   ।

पर सत्य बात ये है  वज्रनाभ !  कि  इस विहार की अधिकारिणी तो एक मात्र बृज गोपिकाएँ ही हैं......उनका प्रेम !   उनकी  अनन्यता ......मेरा गहरा मतभेद है  उन रसिकों से .......जो   बृज बालाओं के प्रेम का बखान करते फिरते हैं .......नही .......कोई  बखान नही  कर सकता,   कोई भी  ठीक ठीक  चित्र नहीं खींच सकेगा   इन मधुर रति की साधिकाओं के   ।

किसकी वाणी में ताकत है !      इन गोपियों की अनन्यता !

हाँ  कोई रसिक अगर ये कहे कि .....गोपियों के बारे में कुछ बोलकर मैं अपनी वाणी को धन्य कर रहा हूँ ........तो  मुझे स्वीकार्य है  ।

क्यों की  हे वज्रनाभ !   मैं  भी यही कर रहा हूँ ..........मैं भी कहाँ गा सकूँगा  इन  बृज नारियों के   प्रेम की महिमा को  ।

फिर हँसते हैं  महर्षि शाण्डिल्य ..........अब तुम ही विचार करो ........कि जब कोई गोपी प्रेम को नही गा सकता ......तो फिर  श्रीराधा प्रेम  ? 

पर  मैं  भी  अपनी वाणी को  ही  धन्य  कर रहा हूँ  ।

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वह हजारों रमणी    प्रेमोन्मत्त हो .......वृन्दावन में  रात्रि की वेला में  "हा कृष्ण कृष्ण कृष्ण" .......कहती हुयी ........अब  "मैं ही कृष्ण हूँ" ......उस स्थिति में पहुँच चुकी थीं   ।

एक परदा ही तो है .......जो हमारे और हमारे प्रियतम के बिच में है .....वह परदा  अहंकार है......बस इसी  परदे को  हटाना है ।

पगली !  तूनें क्या कर दिया आज  !     अनमोल हीरा हाथ लगा था  युगों के बाद .....पर  तेनें उसकी कीमत न जानी ?      वो हीरा था हीरा ......तू उसे काँच समझ बैठी ..............मिल तो गया था तुझे तेरा प्यारा ........पर  तू परदा डाल के पड़ी रही ............वो तुझे देखना चाहता था ....पर तेनें घूँघट ही न हटाया ............बिना "घूँघट खोले" तुझे कैसे मिलेगें  तेरे पिया  !   बोल !  सखी  बोल  !

कानों में  ये शब्द जा रहे हैं ........गोपियाँ फिर  रोनें लगीं ......"कृष्ण विरह"    नें फिर पकड़ लिया था  गोपियों को  ।

हाँ ...हाँ ...हाँ........मुझ से अपराध हो गया.........मुझे पता है ......मुझे पता है .......मेरा "प्रिय"  मुझ से कितना प्रेम करता है ......पर मैं ही अभागन थी.......वो तो लुटा रहा था अपनी  प्रीत का खजाना .........पर मैं ही  !     फिर  उन गोपियों के रुदन से   वृन्दावन  क्रन्दित हो उठा था  ।

हे वृन्दावन !  हे यमुना !  हे बृज रज !     तुम मुझे ठीक चेतावनी दे रहे हो ........पर  सच कहती हैं अब  हम,     ऐसी गलती नही करेंगी ...........

वे आयेंगें ..........तो हम उन्हें कभी दुःखी नही करेंगी ........न अहंकार करेंगी .............उनको जो अच्छा लगे  वे करें  !  

पर आजाओ !      हे नाथ !  हे बल्लभ !   हे रमण !   आओ !  

ये कहते हुये ........वृन्दावन की भूमि में  अपनें सिर को पटका  ललिता सखी नें .........पर ................ये क्या !      जिस भूमि में  सिर को  पटका था   उस भूमि में तो   !

सखियों !   सखियों !      इधर आओ  !  

ललिता सखी  चिल्लाई जोर  से ..............

सारी सखियाँ  उधर ही दौड़ पडीं    ।

ये देखो !   इन चरण चिन्हों को देखो......ललिता आनन्दित हो उठी थी  ।

पहचानें  ?       अरे !  इन चरणों को  पहचाननें में भी  इतना समय ।

ये देखो !  चक्र के चिन्ह .....शंख के ....गदा ...और कमल के ......जौ के चिन्ह ......छत्र के ....धनुष के  चिन्ह .......त्रिकोण ........अर्ध चन्द्र .......

हाँ...........ये तो हमारे  "नाथ" के चरण चिन्ह हैं .........सारी सखियाँ बैठ गयीं ......और बड़े  ध्यान से उन चिन्हों को देखनें लगीं  ।

चन्द्रावली   उन  रज को .....जिन रज में ये चिन्ह बने हुए थे ......उनको लेकर जैसे ही  अपनें तन में लगानें   लगी ..........

नही ......चन्द्रावली !  नही.....इन चिन्हों को बिगाड़ो मत.....यही चिन्ह  हमें  मार्ग बतायेगें  कि  हमारे प्रियतम किस दिशा  से होकर गए हैं ।

चलो !   बिलम्ब न करो .........ललिता सखी आगे आगे चलीं .....वो चरण चिन्हों को देखती हुयी जा  रही थी ..............

तभी .........रँग देवि ! सुदेवी ! विशाखा ! चित्रा !    आओ इधर  इधर आओ !      ललिता सखी  फिर चिल्लाईं   ।

ये सारी सखियाँ फिर दौड़ीं ........हाँ क्या हुआ  ललिता !   क्या हुआ ?

ये देखो !      ललिता सखी  फिर  दूसरे चरण चिन्ह दिखानें लगी थीं  ।

ध्यान से देखो !       ये दूसरे चरण चिन्ह कहाँ से आगये  यहाँ ?

ललिता सखी नें तनिक  मुस्कुराते हुए   अपनी सखियों से  पूछा  ।

ओह !  रँगदेवी उछल पडीं  और  ललिता सखी के गले लग गयीं .......

तो क्या  ?  हमारी  स्वामिनी  श्रीराधा रानी को वे ले गए हैं  ?

हाँ .....हाँ ...सखी !   हाँ ..........हमारी श्रीराधा रानी   को वह छलिया अपनें साथ ले गए हैं    ।

हाँ ...........सब सखियाँ बैठ गयीं  और दूसरे चरण चिन्हों को भी देखनें लगीं ......इनमें भी  वही -  चक्र , शंख, गदा, कमल , धनुष,  दो बिन्दु, लता, मछली,  षटकोण...........

सखियों !  मैं क्या बताऊँ  ?  मुझे चिन्ता  अपनी श्रीराधा रानी की  थी ......कि   वो कहाँ है ?     वो हमारी कोमलांगी  कहीं  कृष्ण वियोग में अपनें प्राण न त्याग दें .......पर  ये सही किया  हमारे प्राण नाथ नें .....कि  श्रीराधा रानी को अपनें साथ ले गए  ।

इतना कहते हुये...फिर सब सखियाँ उठीं .....और  उन "चरण चिन्ह" को  देखती हुयी ......आगे बढ़ती गयीं ......बढ़ती गयीं   ।

सखियों !        फिर  चिल्लाईं   ललिता सखी ................

यहाँ   वे  बैठे हैं........देखो !     यहाँ   कुछ कनक बिन्दु जैसे कुछ गिरे हैं ....फूल भी बिखरे हुए हैं ........पर  इस फूल में   केश लगे हैं .........केश तो लम्बे हैं.........रँगदेवी  केश को देखती हुयी बता रही हैं   ।

अरी !   इतना भी नही जानती .......यहाँ बैठकर  उस  छलिया नें अपनी प्रिया कि बेणी गुँथी होगी      ।

ये ललिता  के मुख से सुनते ही .....सब सखियों कि आँखें मूंद गयीं .......और  ध्यान सहज लग गया ........जो जो  कृष्ण नें  श्रीराधा का श्रृंगार किया था ......वो सब ध्यान में देखनें लगीं    गोपियाँ ।

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ओह !  थक गए ........हे मेरी राधे !   तुम भी थक गयी होगी ना ! 

अब नही  दौड़ा जा  रहा..........अब कहीं बैठ जाएँ  ?   

साँसें  चल रही थी  दोनों की ...........यहाँ तक नही पहुँच पाएंगी सखियाँ .......कुछ देर बैठ जाते हैं ..........कृष्ण नें  अपनी पीताम्बरी बिछा दी .........उसमें  श्रीराधा रानी को बिठाया  ।

दौड़ कर गए ............कमल के पत्ते में   यमुना जल ले आये .......राधे !  प्यास लगी है ........जल पी लो   ।

बेचारी  गोपियाँ  !    श्रीराधा रानी नें कृष्ण कि ओर देखते हुए कहा ।

पर तुम अंतर्ध्यान क्यों हुये  ?     श्रीराधा रानी नें पूछा  ।

उनके प्रेम को बढ़ानें के लिये ...........कृष्ण का उत्तर था  ।

हाँ  राधे !   विरह प्रेम को पुष्ट करता है .........मिलन  प्रेम को  घटा सकता है ..........पर विरह  प्रेम को बढ़ाता है .......इसलिये मैं  अंतर्ध्यान हुआ हूँ .........फिर गम्भीर हो गए थे कृष्ण  ........राधे !   गोपियों जैसा प्रेम  इन जगत में किसी का नही है ....न  था ....न है ....न होगा ...........ऐसे निःस्वार्थ प्रेम से अपरिचित है ये जगत ...........मैं  इन गोपियों के प्रेम को जगत में प्रकाशित करना चाहता हूँ ..........जगत के स्वार्थ से  भरे लोगों को   इस प्रेम का दर्शन कराना चाहता हूँ  .......

कृष्ण बोल रहे थे ..............श्रीराधा बस सुन रही थीं   ।

ओह !  तुम्हारी  लटें  उलझ गईं  हैं ........सुलझा दूँ  प्यारी   !        

मन्द मुस्कान के साथ  बोले  थे  श्याम सुन्दर  ।

मैं तुम्हारी ही हूँ  प्यारे !    आज्ञा किससे ले रहे हो ?   

बेणी  मैं  बहुत सुन्दर गुंथता हूँ ...............ये कहते हुए ............श्रीराधा रानी के पीछे चले गए थे श्याम ।

लताओं को झुकाया...........उनमें से फूल तोड़े ...............

तुम्हारी कसम   राधे !       मैं  बेणी अच्छी गुंथता हूँ   ।

सफेद फूल,  लाल फूल,  पीले फूल ............बेणी बनाते हुए  उनमें लगा रहे हैं ...............डर लगता है   राधे !  तुम्हारी बेणी देखकर  ।

क्यों ?   ऐसा क्या है   जो तुम्हे डर लगता है  ?        

दूर से देखो  तो लगता है .........कोई विष धर साँप है .............

मेरी चोटी  तुम्हे साँप लग रही हैं ...............रूठना  हक़ है  प्रेमिन का  ।

रूठ गयीं   श्रीराधा रानी  ।

अब रूठो मत .............थक गयी हो ........मैं  पांव दवा देता हूँ .........

मैं अपनी पीताम्बरी से हवा कर देता हूँ .................

हवा करते हैं  पीताम्बरी से  श्रीराधा रानी को   ...........

कभी  पांव दवा रहे हैं ...................।

मुझ से अब  चला नही जायेगा.........श्रीराधा रानी नें कह दिया ।

अच्छा !    तो कोई बात नही ........हम ही  आपको अपनी गोद में ले लेते हैं .......ऐसा कहकर  जैसे ही  गोद में लेनें लगे   ।

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यहाँ से  एक ही चरण चिन्ह हैं ........दूसरा नही है   ! 

आगे आगे  एक सखी चली थी......उसनें आगे जाकर देख लिया था ।

सब सखियाँ  ध्यान से उठ गयीं .........और चरण चिन्हों को देखती हुये आगे बढ़  रही थीं ..........यहाँ  उचक कर लता से फूल तोड़े हैं  श्याम सुन्दर नें ....तभी तो  चिन्ह देखो  !      

और यहाँ  ?      ललिता सखी  बैठ ही गयीं  फिर .........चरण चिन्हों को देखनें लगीं  ध्यान से  ।

हूँ ...........चरण चिन्ह तो एक ही हैं ..........पर  ध्यान से देखो .........ये एक चरण चिन्ह .....जो  हमारे श्याम सुन्दर के हैं ..........वो धरती में थोड़े धँसे हुए हैं .......ध्यान से देखो  !     

ललिता सखी के कहनें पर सब ध्यान से देखनें लगीं थीं    ।

मुझे लगता है .....यहाँ   श्री राधा रानी से चला नही जा रहा होगा ....इसलिये   उन्होंने    गोद में उठा लिया होगा  ......

इसलिये एक चरण चिन्ह हैं ..............वो भी   धँसे हैं ।

पर  ये क्या !        किसी के सुबुकनें कि आवाज आरही थी  ।

अरे !  ये तो हमारी बृषभान नन्दिनी कि आवाज है ...........

क्रन्दन ........कितना आर्त था  वो स्वर .......ओह  !

सखियाँ सुन रही हैं ...........यमुना के किनारे से वो आवाज आरही थी ।

"तुम कहाँ गए प्यारे !   आओ !    तुम्हारी राधा  तुम्हारे वियोग में  अपनें प्राण त्याग देगी ..........मैं तो तुम्हारे गोद में बैठनें के लिये इसलिये तैयार हो गयी थी  की    "तुम  चाहो  जहाँ ले जाओ".......तुम्हे बार बार मुझ से पूछना पड़ता था ना .........इसलिये मैं  तुम्हारी गोद में बैठनें के लिये ........पर इसे भी तुमनें  क्या  राधा का अहंकार समझ लिया !

हे श्याम सुन्दर !   हे मोहन !  हे गोविन्द !     हे नाथ !      

अब ये राधा तुम्हारे बिना मर जायेगी .......फिर   तुम फूट फूट कर रोओगे ? 

मत रोना  प्यारे !  मत रोना  ।

ओह !   हृदय के  सहस्त्र  टुकड़े हो जायेंगें  ऐसा लग रहा  था .......ये श्रीराधा का करुण विलाप था ही  ऐसा  ।

हे नाथ !   हे  सखे !   हे महाभुज !  हे मुरली मनोहर  ! 

प्यारे !  और हिलकियाँ ...........फिर  जैसे सब कुछ  शून्य  में लय  ।

सखियाँ  दौड़ीं .........हे स्वामिनी !  हे राधे  !  हे हरिप्रिया !   

राधे !   उठो !   उठो   हे राधा !   हे श्री जी !    उठो .............ललिता आदि सखियों नें उठाना चाहा .........पर नही,   श्रीराधा उठीं नहीं ।

वो तपे हुए स्वर्ण की तरह  जिनकी अंग छटा  है ................वो मृग नयनी  श्रीराधा     आज  धरती में  मूर्छित पड़ी हैं  ।

वो नील वसना .......वो सर्वेश्वरी ..........आज  म्लानकान्ति  मुर्छिता पड़ी हैं  यमुना किनारे  ।

ललिता सखी नें रोते हुए  श्रीराधा रानी  को  अंक में उठाया ........राधे ! मेरी स्वामिनी !     अपनें नेत्र खोलो  आप  !    आप इस तरह से हमें छोड़ कर नही जा सकतीं .........अगर आप नें हम सब को छोड़ दिया  तो हम भी  अभी अपनें प्राणों को यमुना में कूद कर त्याग  देंगीं  ।

वे आयेंगें !   आयेंगें  !      राधे !  नेत्र  खोलो  !  वे आयेंगें  ! 

सभी सखियाँ  बोलनें लगीं ......हाँ   वे श्याम सुन्दर  अवश्य आयेंगें ।

पूरा वृन्दावन  बोलनें लगा था .....स्वामिनी !  वे आयेंगें !   

पक्षी ,  पशु, वृक्ष  सब   कह रहे थे   वे  श्याम आयेंगें  ।

हे वज्रनाभ !     बहुत अटपटो पन्थ है......ये प्रेम पन्थ  ।

ये  कहते हुए  अपनें आँसुओं को पोंछा  था महर्षि शाण्डिल्य नें  ।

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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