20 *आज के विचार*
*( "अधरामृत" - शक्ति "प्रेम" में ही है )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 20 !!*
हे यदुवीर वज्रनाभ ! शक्ति है तभी शक्तिमान है .........अगर शक्ति ही नही है तो शक्तिमान कैसा ?
ब्रह्म तारता है या मारता है .....वो सब शक्ति के कारण ही है ........इस बात को सभी सिद्धान्त वाले स्वीकार करते हैं .....क्यों न करें सत्य यही तो है ...........हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ ! कृष्ण श्रीराधा के बिना कुछ नही हैं ........जो भी तुम देखते हो .....सुनते हो कृष्ण के बारे में ........कि वो योगेश्वर, वो निर्मोही , वो एक दार्शनिक गीता जैसे गम्भीर विषय के गायक ..... वो एक अद्भुत योद्धा ....वो एक मदविनाशक.........ये जितनें रूप हैं कृष्ण के .....ये सब श्रीराधा के प्रेम की ही तो देन है ......श्रीराधा नें ही संवारा है सजाया है कृष्ण को ।
त्याग तो महान है श्रीराधा का......कृष्ण के लिये सब कुछ त्यागा ।
वैसे प्रेम का अर्थ ही यही होता है कि ........."वे सुखी रहें".....।
हे वज्रनाभ ! श्रीराधा के प्रेम की धूप छाँव ही कृष्ण को और निखारती चली जाती है .........कृष्ण में इतनी अविचल शक्ति ......इतना उद्वेग रहित भाव ......कर्म करनें के बाद भी कर्म से बंधे नहीं ....!
ये सब बिना किसी अल्हादिनी शक्ति के सम्भव नही है ..........कृष्ण को ये सब बनानें में श्रीराधा का ही हाथ है .......श्रीराधा ही पीछे खड़ी दिखाई देंगीं तुम्हे .......चाहे वो वृन्दावन में ....चाहे मथुरा में .....चाहे द्वारिका या कुरुक्षेत्र में ........जो भी कृष्ण में ये सब विलक्षण पौरुष दिखाई देता है ........इन सबके पीछे श्रीराधा ही हैं ......पर श्रीराधा दिखाई नही देतीं .......दिखाई देती हैं रूक्मणी .......यही तो श्रीराधा का त्याग है ....और यही तो प्रेम की महिमा है......प्रेम छुपा रहे ....प्रेम अव्यक्त रहे ।
कृष्ण में रँग है ......कृष्ण का रँग अपना है ......पर उस रँग में गन्ध नही है ......और जो भी गन्ध महसूस होता है ......बस ....बस वही सुगन्ध श्रीराधा है ..........।
श्रीराधा सजाती है ........कृष्ण ! तुम्हे अभी आगे बहुत जाना है ......
श्रीराधा संवारती है .......कृष्ण ! तुम्हे अभी बहुत कुछ करना है ......
श्रीराधा सम्भालती है.....कृष्ण ! तुम्हे अभी बहुत दावनल पान करना है ।
क्या दावानल ! कहाँ लगी है दावानल ?
बड़े भोले हो प्रिय !........झुलस जाओगे.........
फिर राधा सम्भालते हुए ........अपनें अधरामृत का पान कराती हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य सावधान करते हैं ........नैतिकता के छूछे मापदण्ड से हर वस्तु - विषय को देखनें वाले .....इस "दिव्य प्रेमप्रसंग" से दूर रहें ।
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वृन्दावन जल रहा है .....धूं धूं कर जल रहा है ........चारों ओर आग ही आग है ...नर नारी भाग रहे हैं ...गौएँ इधर उधर भाग रही हैं और कुछ धरती पर पड़ गयीं हैं ......उन्हें बचानें वाला कौन ?
पक्षियों के घोंसले जल गए......उनमें उनके बच्चे थे......वे सब जल गए.....नर नारी फंस गए हैं उस दवानल में .......किधर जाएँ ।
श्रीराधा घबड़ाई हुयी नींद से उठीं........स्वेद से नहा गयी थीं ........उनके श्रीधाम की ये दशा !
सपना था ये......पर आल्हादिनी शक्ति का सपना भी सत्य होगा ही ।
ओह ! शीघ्रातिशीघ्र अपनें बिस्तर को त्यागकर उठीं ।
बेटी ! उठ गयी ? अब नहा ले .......कीर्तिरानी नें अपनी लाडिली को जब देखा तो स्नान के लिये कह दिया ।
हाँ मैया ! गयीं स्नान करनें ...........पर श्रीराधा ऐसे कैसे स्नान करेगी ........सखियाँ खड़ी हैं उबटन लेकर ......बिठा दिया उन्हें सखियों नें .....और अंग अंग में उबटन लगानें लगीं ...........
"अब तो नहानें दो" श्रीराधारानी नें सखियों से कहा ।
........उबटन लग चुका है ................श्रीराधारानी को जल्दी है .......उन्हें आज श्रीधाम वृन्दावन को बचाना है ......वहाँ दावानल लगनें वाला है .........पर ये बात कहें कैसे ?
"अब इतनी जल्दी भी क्या है ......मिल लेना उस साँवरे से !..........पूरा दिन पड़ा है ......हँसते हुए सखियाँ बोलीं ........और फिर बिठा दिया ।
उबटन को सूखनें तो दो लाडिली जू !
सूख गया ........पर अब फिर उसे रगड़ कर निकालेंगीं ये सखियाँ ।
अत्यन्त कोमल शरीर है .......श्रीजी का ........बहुत धीरे धीरे करना पड़ता है ............देखो इनको कष्ट न हो ..................चलिये ! उबटन भी हो गया ........अब स्नान की बारी ...........।
स्नान में भी समय तो लगता ही है ..........लगा समय ........
फिर वस्त्र .........उनका श्रृंगार ................
अरे कहाँ चलीं स्वामिनी ! सखियाँ जोर से पुकारनें लगीं ।
आकर बताउंगी ..........अभी समय नही है ............
अकेली मत जाओ ना.......हम भी आती हैं ......सखियों नें फिर पुकारा ।
नही ........मैं शीघ्र ही आजाऊंगी ..........कोई मत आओ मेरे साथ ।
श्रीराधा तो देखते ही देखते यमुना के किनारे चली गयीं थीं ........
और अपनी नौका लेकर पतवार चलाते हुये कुछ ही देर में नंदगांव पहुँच गयीं ।
नन्दभवन की ओर चलीं .........पर आज ये दौड़ रही थीं .......चल नही रही थीं .........
देखनें वाले .......ये तो भानु दुलारी है ना ? हाँ ये राधा ही तो है ।
द्वार खटखटाते हुए नन्दभवन में ।
.राधा ! आओ आओ बेटी !
बृजरानी यशोदा नें द्वार खोला था ।
नही मैया ! अभी नही आऊँगी .......कन्हैया कहाँ हैं ?
वो .....वो तो वृन्दावन गया है गौचारण करनें ..............बृजरानी नें इतना कहा ......और भीतर आने के लिये आग्रह करनें लगीं ...पर -
नही मैया ! मैं फिर आऊँगी ...........श्रीराधारानी जल्दी जल्दी नन्दभवन से उतरीं ......और फिर अपनी नौका में ।
नौका को वृन्दावन की ओर मोड़ दिया था .............
हे वज्रनाभ ! आल्हादिनी शक्ति के संकल्प के विपरीत ब्रह्म नही जा सकते ....तो ये प्रकृति कैसे जा सकती हैं .........वायु भी अनुकूल चल पड़े थे ....ताकि इन कोमलांगी को तनिक भी श्रम न करना पड़े ।
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पूतना मर गयी ..........शकटासुर को मार दिया गया ग्वालों के द्वारा ...तृणावर्त, अघासुर, कागासुर .......ओह ! मेरे बड़े बड़े वीरों को इन ग्वालों नें .....इन अहीर के बालकों में मार दिया ......और मैं !
मैं कंस !...........मैं वो वीर कंस जिसनें परसुराम जी की पर्वत मालाओं को उठा दिया था .....मैं वो वीर कंस ....जिसनें बाणासुर को झुकनें पर मजबूर कर दिया था .............उसे आज एक ग्वाला कृष्ण चुनौती दे रहा है .........शर्म की बात है ये मेरे लिये !
चिल्ला उठा था कंस उस दिन ..............
तुम लोग चुप क्यों हो ? क्या अब कोई उपाय नही बचा तुम लोगों के पास ........अपनें राक्षसों को देखकर चीख रहा था कंस ।
"अब एक ही उपाय है ......वृन्दावन में दावानल लगा दी जाए"
दावानल ? कंस को ये बात कुछ जँची ।
क्या फिर कहना ? कंस उस राक्षस से फिर पूछनें लगा ।
महाराज कंस ! मैं ये कह रहा हूँ ......वृन्दावन में गौ चारण करनें समस्त ग्वाले आते हैं नित्य .....आपका शत्रु कृष्ण उन सबका मुखिया बन आगे आगे चलता है .......बस उसी समय अगर चारों ओर से आग लगा दी जाए ......तो सब मर जायेंगें ।
अरे वाह ! तू तो बहुत बुद्धिमान है .......ले .......अपनें गले का हार उतारकर दे दिया उस राक्षस को कंस नें ।
अब जाओ ! और जब कृष्ण गौ चरानें वृन्दावन में आये .....आग लगा दो......उन ग्वालों को घेरकर आग लगा देना......कृष्ण बचनें न पाये ।
हा हा हा हा हा हा ..................क्रूर हँसी हँस रहा था कंस ।
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पहुँच गयीं थीं श्रीराधा रानी वृन्दावन ...........नौका को किनारे से लगा कर ......वहीँ बैठ गयीं ..................
इधर उधर दृष्टि दौड़ाई .......चलो ! कंस नें अभी आग लगाई नही है ....राहत की साँस ली थीं उन कृपा की राशि किशोरी जू नें ।
तभी कृष्ण नें नौका को देख लिया ...... अपनी प्राणबल्लभा की नौका ......उचक कर देखा कृष्ण नें तो उनके आनन्द का और पारावार न रहा .........कि उस नौका पर "श्रीजी" बैठीं हैं ................
वो दौड़े ..............नौका के पास आये ...........
राधे ! ओ राधे ! आवाज दी ।
आँखें खोलीं श्रीराधा रानी नें .......".मैं तुम्हे ही पुकार रही थी ..प्यारे ! आओ ना इधर ".........नौका में ही बुलाया श्रीराधा रानी नें ।
पर तुम इतनी घबड़ाई हुयी क्यों हो ? नौका में चढ़ते हुए बोले कृष्ण ।
प्रिय ! आज बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता .............श्रीराधा अभी भी घबड़ाई हुयी थीं ..................
पर हो क्या जाता ?
ये हमारा वृन्दावन ...........ये हमारी गौएँ .......ये हमारे ग्वाल बाल सब जल जाते ...........और तुमसे भी कुछ न होता ...........
क्या कह रही हो राधे ! मैं कुछ समझा नहीं ..............
दावानल पान करनें की शक्ति तुममें नही है........श्रीजी नें कहा ।
हाथ जोड़ लिए कृष्ण नें ......हे स्वामिनी ! मेरी शक्ति तो तुम हो ना !
इसलिये ही तो आई हूँ , दौड़ी दौड़ी बरसानें से ........ताकि इस जगत में भी लगे या लगनें वाले दावानल का तुम पान कर सको ..............
कैसे ? कैसे मेरी आल्हादिनी !
श्रीराधा नें इधर देखा न उधर .......खींचा अपनी ओर अपनें प्राण कृष्ण को .......और अपनें अधर कृष्ण के अधरों में रख दिए ..........
पान करनें लगे कृष्ण श्रीराधा के अधरामृत का ................
कृष्ण प्रगाढ़ आलिंगन में अपनी श्रीजी को बाहों में भरते हुए उनके अधरों को पी रहे थे......बड़ी गुणवती हैं श्रीराधा अपनें प्रियतम को रमा रही हैं.....अपना अमृत प्रदान कर रही हैं .....ताकि इस जगत में फैलनें वाले दावानल का पान कर जीवों को ये शान्ति प्रदान कर सकें ।
श्रीजी के मुख पर लटें लहरानें लगीं थीं ..............साँस बड़ी तेज़ गति से चल पड़ी थी .........माधव नें चूमा .........प्रगाढ़ चूमा अधरों को ।
पर एकाएक हट गयी श्रीराधा ...........देखो माधव ! देखो ! आग लग गयी है वृन्दावन में ..........वो देखो !
जाओ प्यारे अब ! ......पान कर लिया ना ......अब इसी के सहारे इस दावानल का भी पान करो .....मैं तुम्हे शक्ति प्रदान करनें आयी थी .......जाओ ! जाओ इस वृन्दावन को बचानें का अभिप्राय ही ये होगा कि तुम समस्त जगत को भी बचा रहे हो .........
कृष्ण को आल्हादिनी के द्वारा वो अमृत मिल गया था ......जो इस धरा का अमृत नही था ....वो अधरामृत था .....यानि अलौकिक अमृत ।
श्रीराधा रानी खड़ी हो गयीं ......कृष्ण उस कंस के द्वारा लगाये गए दावानल का पान करनें लगे थे .........श्रीराधा रानी मुस्कुराते हुये देखती रहीं.......कृष्ण नें उस अग्नि का पूरी तरह से पान किया ........पर ये शक्ति तो ब्रह्म को, आल्हादिनी ही दे रही थीं .....है ना ?
हे वज्रनाभ ! जो इस प्रेमप्रसंग को गायेगा .....पढ़ेगा ...सुनेगा .....उसका मंगल ही मंगल होगा ......वो इस जगत के दुखमय दावानल की अग्नि से कभी नही झुलसेगा ।
महर्षि शाण्डिल्य यही बोले थे ।
"स्तंराधिका चरण रेणु मनुस्मरामि"
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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