19 *आज के विचार*
*( "बरसानें की देवी सांचोली"- एक अद्भुत कहानी )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 19 !!*
फूट जाएँ वे आँखें जो प्रियतम को छोड़, किसी और को निहारें .....फूट जाएँ वे कान जो प्रिय की बातों के सिवा कुछ और सुनें ......
जल ही जाए वे जीभ जो अपनें प्रेमास्पद के सिवा किसी और का नाम भी पुकारे .........अरे ! जिन आँखों नें "प्रिय" को निहार लिया ......अब क्या चाहिये ? और फिर भी , किसी और को निहारने की ......सुननें की ......अन्य को पुकारने की कामना है ....तो सम्भालो अपनी इन्द्रियों को ....ये सब व्यभिचारी होगयी हैं......इन्हें दण्ड मिलना ही चाहिये ।
हे अनिरुद्ध सुत वज्रनाभ ! गोपियों नें कात्यायनी की पूजा अर्चना की ........पर श्रीराधा रानी नें वह भी नही किया ।
पार्वती देवि की पूजा करनें बृज गोपियाँ गयीं ........पर श्रीराधा रानी नें किसी देवि देवता को नही मनाया ............क्यों मनाये ?
उनका देवता कृष्ण ही था ......उनकी देवी कृष्ण ही थी .......उनका भगवान, कृष्ण था ....उनका ईश्वर .......उनका इष्ट ........उनका सर्वस्व कृष्ण ....कृष्ण बस कृष्ण ........श्रीराधा रानी के लिए कृष्ण के सिवा और कुछ नही ................
महर्षि शाण्डिल्य आज प्रेम में "अनन्यता" की विलक्षण चर्चा कर रहे थे ।
इस "अनन्यता" के सिद्धान्त को हर व्यक्ति नही समझ सकता ........क्यों की ये आरोपित नही होता ..........ये प्रेम की उच्चावस्था में सहज घटित होता है .............सिर्फ तू ! और कुछ नही ।
या, तू ही तू ............सर्वत्र, तू ही तू ।
इस "ढ़ाई आखर" में अनन्त रहस्य भरे हैं .........चन्द्र मिट जाए ...सूर्य प्रलय में खतम हो जाए ......अनन्त काल तक इस प्रेम पर चर्चा करते रहें फिर भी ये "प्रेम" रहस्य ही बना रहेगा ................
हँसे ये कहते हुए महर्षि शाण्डिल्य ।
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बृषभान जी की कुल देवी हैं ये - सांचोली ।
कई बार ले जाना चाहा......कीर्तिरानी नें......और बृषभान जी नें अपनी लाडिली श्रीराधा को .......पर नही ...........ये क्यों जानें लगीं किसी देवी को पूजनें .......? इनके नयनों में ............इनके अंग अंग और अन्तःकरण में वही साँवरा समाया है ...........फिर क्यों जाएँ देवी देवताओं के पास ..?
कामना के लिये ? तो कामना पूरी होगी इनकी कृष्ण से ही ...........उसे देखनें से ही हृदय शीतल होगा इनका ।
दूसरे ही दिन कृष्ण आगये बरसाने , नन्दगाँव से.......पर ये दोनों प्रेमी अब मिलें कहाँ ?
"सांचोली देवी के मन्दिर में"........श्रीराधा रानी के मुख से निकल गया ।
सांचोली देवी ? कृष्ण नें मुस्कुराते हुये पूछा ।
हाँ .......हमारी कुल देवी ......वो कब काम आएँगी ......श्रीराधा नें प्रेमपूर्ण होकर कहा था ।
अच्छा ! कहाँ हैं ये तुम्हारी देवी ?
हमारे महल से दूर एक पर्वत पड़ता है .......उसी के पीछे ।
श्रीराधारानी नें स्थान का पता भी बता दिया था ।
कोई आता जाता तो नही है ?
प्रेमियों को सदियों से एकान्त ही प्रिय रहा .......जैसे मनीषियों को .........ऋषियों को ..........अरे ! ये प्रेमी भी कोई ऋषि मुनि या मनीषियों से कम तो नही हैं ।
जितनी एकाग्रता ऋषियों में योगियों में पाई जाती है .......उससे भी ज्यादा अपनें प्रियतम के प्रति एकाग्रता प्रेमियों में पाई जाती है ....क्या इस बात को कोई इंकार कर सकता है ....?
पूरक कुम्भक रेचक .........योगी क्या सिद्ध करेगा ...........प्रेमी का सहज सिद्ध होता है ...ये प्राणायाम ........जब प्रेम की उच्च अवस्था में पहुँचता है प्रेमी ......तब साँस की गति, क्या किसी प्राणायाम सिद्ध योगियों की तरह नही होती ? त्राटक, सिद्ध योगी क्या करेगा ......प्रेमी का सहज सिद्ध होता है त्राटक .....प्रेमी की हर इन्द्रियाँ प्रियतम में ही त्राटक करती हैं ...........क्या इस बात में सच्चाई नही है ?
चलो ! आज ही चलते हैं .........कम से कम तुम्हारी देवी के दर्शन तो कर लें ............कृष्ण नें मुस्कुराते हुये श्रीराधा रानी से कहा ।
पर अभी ?
अजी ! चलो ना ! हाथ पकड़े कृष्ण नें श्रीराधा के ....और दौड़ पड़े पर्वत की ओर .........फिर उतर गए नीचे ...........
ओह ! दोनों की साँसे फूल गयीं थीं............हँसते हुये मन्दिर के द्वार पर ही बैठ गए दोनों ...........साँसों की गति जब सामान्य हुयी .......तब उठे ........और मन्दिर के भीतर चले गए ।
पर यहाँ देवी कहाँ हैं ? कृष्ण नें उस मन्दिर को देखा ......पर वहाँ कोई विग्रह नही था .........
ये शिला ही सांचोली देवी हैं ........इन्हीं शिला को हमारे पूर्वज देवी मानकर पूजते आरहे हैं ।
तुम नही आईँ कभी इस मन्दिर में ? श्रीकृष्ण नें पूछा ।
मेरे लिए तो तुम्ही देवी हो ........और देवता भी तुम हो .......मेरे ईश्वर तुम हो ......मेरे सर्वस्व तुम हो ............इतना कहते हुये कृष्ण को छू रही थीं श्रीराधा । अपनी बाहों में भर लिया था कृष्ण नें अपनी प्राण बल्लभा श्रीराधारानी को ।
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अब तो नित्य का नियम ही बन गया इन दोनों सनातन प्रेमियों का... .......सांचोली देवी के मन्दिर में आना .......और प्रेमालाप में मग्न हो जाना ।
पर उस दिन क्या पता था....अमावस्या थी । .......और पूर्णिमा अमावस्या को इन विशेष काल में तो बृषभान जी और कीर्तिरानी अपनी कुलदेवी की पूजा करनें आते ही थे ।
राधे ! मैं तुम्हे देखता हूँ तो ऐसा लगता है ....देखता रहूँ .......युगों तक ....अनन्त काल तक .........
तुम अघा जाओगे प्यारे !
नही राधे ! तुम्हारे रूप की यही तो विशेषता है ......जितना देखूँ लगता है - और देखूँ और देखूँ ........... नया नया सौन्दर्य प्रकट होता है ........मैं अपनें आपको भूल जाता हूँ ।
फिर उठकर बैठ गए कृष्ण ...........और श्रीराधा रानी के लटों से खेलते हुए बोले ............कभी कभी मुझे लगता है .......मैं राधा हूँ और तुम कृष्ण ...............श्रीराधा हँसी .........मुझे भी लगता है मैं कृष्ण बन गयी और तुम मेरी राधा ।
कीर्तिरानी !
चलो मन्दिर आगया..........पर पद पक्षालन करके ही मन्दिर में जायेंगें .........बृषभान जी और कीर्तिरानी मन्दिर में आज आपहुँचे थे पूजा अर्चना के लिये । बगल में ही सरोवर था उसमें पद पक्षालन करनें चले गए ।
श्रीराधारानी नें देख लिया ....
मेरे बाबा आगए ! श्रीराधारानी घबडा के उठीं ........अपनें केशों को सम्भाला ..........अब क्या करें ?
तुम अच्छी लगती हो ....ऐसे घबड़ाई हुयी .......फिर चूम लिया कृष्ण नें ।
तुम बाबरे हो गए हो क्या ? मेरे बाबा और मैया आगये हैं........
आनें दो ........जब प्रेम है .....तो है..........कृष्ण मुस्कुराये जा रहे हैं ।
मैं जा रही हूँ ...............पर तुम क्या करोगे ?
मैं आँखें बन्द कर लूंगा......और हृदय में बैठी अपनी राधा से बातें करता रहूंगा......कृष्ण श्रीराधा को देखकर सहज ही बोलते जा रहे थे ।
मैं गयी ..........श्रीराधारानी बाहर निकलीं .............पर .....
अरे ! राधा ! तू ! यहाँ ?
कीर्तिरानी नें चौंक कर पूछा ।
अचम्भित तो बृषभान जी भी हुये थे ..............बेटी राधा ! ललिता बिशाखा रँगदेवी सुदेवी ये सब कहाँ है .....अकेली तुम ?
बाबा ! मैं आज देवी के दर्शन करनें चली आई.......श्रीराधारानी नें घबडा कर कहा ।
आज तक तो तुम आई नहीं ........आज ही क्यों ?
कीर्तिरानी नें इधर उधर देखते हुए पूछा था ।
नही ....वो देवी को हार मुकुट ....और वस्त्र ....देवी के विग्रह को कई दिनों से किसी नें स्नान भी नही कराया था .......तो मैं ?
बेटी राधा ! क्या बात है ......स्वास्थ ठीक तो है ना तुम्हारा ?
बेटी ! विग्रह कहाँ है हमारी कुल देवी का ..........वो तो एक शिला के रूप में ही हैं ..................
चलो अब ..........हम भी दर्शन करते हैं ................तुम नें क्या धारण कराया है देवि को ................हाथ पकड़ कर कीर्तिरानी मन्दिर के भीतर ले चलीं ...........
श्रीराधारानी घबडा रही थीं ........कृष्ण भीतर ही हैं .........अब क्या होगा ? वो दीख जायेंगें तो ?
मैं मैं ...........मैं महल जा रही हूँ ...........श्रीराधारानी मन्दिर में जाना ही नही चाहतीं ..............क्यों की .........
"चलो अब" ...........हमारे साथ ही महल चलना कीर्तिरानी नें हाथ पकड़ा ....और मन्दिर में ले चलीं ..............
पर ये क्या ?
जैसे ही मन्दिर में पहुँचे ये सब .............
दिव्य प्रकाश झलमला रहा था....और एक सुन्दर सी मूर्ति खड़ी थी .........बृषभान जी चौंके ...........कीर्तिरानी स्तब्ध हो गयीं ...........पर इनसे भी ज्यादा चकित और आनन्दित श्रीराधा रानी थीं.......कि मूर्ति जो सांचोली देवी की खड़ी थी ........वो कोई देवी नही थीं .......उनका प्यारा कृष्ण ही देवी के रूप में वहाँ खड़ा हो गया था ।
उछल पडीं श्रीराधा रानी आनन्द से .........बाबा ! देखो ! ये हैं देवी, हमारी "देवी सांचोली"..........सच्ची देवी यही हैं मैया !
बाकी सब देवी देवता झूठे हैं ........पर सच्ची देवी तो यही हैं .........
करो दर्शन ............श्रीराधा रानी आनन्दित होते हुए साष्टांग प्रणाम कर रही थीं ...............पर ये क्या .........सांचोली देवी के गले से माला गिरी और सीधे श्रीराधारानी के गले में ...............
अजी ! देखो ना .........ये मूर्ति रातों रात कैसे प्रकट हुयी ?
हाँ वही तो कीर्तिरानी ! ........यहाँ तो सदियों से शिला के रूप में हमारी देवि थीं ..........मूर्ति के रूप में तो नही थीं .......बृषभान जी क्या कहें ........कीर्तिरानी की बुद्धि जबाब दे गयी थी ।
बाबा ! मैया ! प्रेम में बहुत ताकत है.......पत्थर भी आकार ले लेते हैं ।
हाँ .................कीर्तिरानी बारबार उस मूर्ति की ओर देखे ...........क्यों की मूर्ति मुस्कुराती थी ...................
साँवली मूर्ति ..........कितनी सुन्दर थी ना मूर्ति ................श्रीराधा रानी रास्ते भर उसी मूर्ति की चर्चा करते हुए आईँ ...............
पर पूरे बरसानें में ये रहस्य ही रहा ......कि ये मूर्ति प्रकट कैसे हुयी ।
मैने प्रकट की है .....मूर्ति ...........है ना प्यारे ! एक दिन ये कहते हुए श्रीराधा नें कृष्ण को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
हे वज्रनाभ ! श्रीराधारानी नें केवल उसी "सांचोली देवी" की ही पूजा की ............क्यों की वो सांचोली कोई देवी नही थी ........श्रीराधा का परमदेवता कृष्ण ही था ।
!! रसिक रसिलो छैल छबीलो गुण गर्बिलो श्रीकृष्ण !!
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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