"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 21

21 *आज  के  विचार*

*( "कंस जब सखी बना " - एक अनसुना प्रसंग )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 21 !!*



हे वज्रनाभ !  श्रीराधारानी पराशक्ति हैं ....इनसे बड़ी कोई शक्ति नही ....

ऐसा मैं ही नही कह रहा ......वेदों की ऋचाओं नें  श्रीराधारानी को "पराशक्ति" कहकर उनके नाम का  स्मरण किया है ........

आज महर्षि शाण्डिल्य  गदगद् थे ।

हे वज्रनाभ !    वैसे तो  श्रीराधारानी के अनन्त नाम हैं ........जैसे कृष्ण के अनन्त नाम हैं .....वैसे ही  श्रीराधारानी के भी  ............क्यों न हों ...ये शक्ति हैं ......ये  पराशक्ति हैं ........ये अल्हादिनी शक्ति हैं .......यही हैं जिन्हें  "ईश्वरी" नाम से ,  वेद भगवान भी  स्तवन करते हैं  ............

हे वज्रनाभ !     मुख्य नाम  अट्ठाईस हैं श्रीराधारानी के.........ये  सब  नामों का सार हैं ....इन नामों का जो प्रातः  और रात्रि सोते समय  स्मरण करता है ......उन्हें  इन बृषभानु दुलारी की कृपा अवश्य प्राप्त होती हैं  ।

ऐसी बात नही हैं .......ये श्रीराधारानी निष्काम भक्तों को  तो प्रेम प्रदान करती ही हैं .......पर  कामना रखकर भी जो इनके नामों  का   एक बार भी   स्मरण कर लेता है .....उसकी हर कामना पूरी करती हैं .....इसे  निश्चय जानों  ।

इतना कहकर  महर्षि शाण्डिल्य  नें  नेत्र बन्दकर  श्रीराधारानी के अट्ठाईस नामों का  स्मरण किया .............

" श्रीराधा,  रासेश्वरी,  रम्या,  कृष्णमन्त्राधिदेवता ,  सर्वाद्या, सर्ववन्द्या, वृन्दावनविहारिणी, वृन्दाराध्या, रमा, आल्हादिनी, सत्या, प्रेमा,  श्री , कृष्ण बल्लभा ,  बृषभानु सुता,  गोपी,  मूलप्रकृति , ईश्वरी, कृष्णप्रिया, राधिका , आरम्या, परमेश्वरी, परात्परता, पूर्णा, पूर्णचन्द्रानना, भक्तिप्रदा,  भवव्याधिविनाशिनी,   और  हरिप्रिया "  । 

हे  वज्रनाभ ! इन नामों का जो प्रातः और रात्रि में स्मरण करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती ही है......इन नामों का स्मरण करनें से    मनुष्य  प्रेमाभक्ति को प्राप्त कर .....श्रीराधा माधव के  दर्शन का  अधिकारी हो जाता है  ।

आज  श्रीराधाभाव से भावित हो  महर्षि शाण्डिल्य   अब आगे की कथा सुनानें लगे थे............

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नारायण ! नारायण नारायण !     

आज पता नही क्यों   देवर्षि नारद जी   कंस के यहाँ जा पहुँचे ........

उदास था कंस .........क्यों की अभी अभी  उस तक ये सूचना पहुँची थी कि    दावानल  को पी गया  वो ग्वाला कन्हैया  ।  

क्या  !         कैसे पी गया  ?       अग्नि को पी गया  ? 

तुम मुझे पागल समझते हो ............चिल्लाया था कंस  ।

हमें कुछ नही पता  राजन् !       हमनें  चारों ओर से आग लगा दी थी .... और  वन नें आग पकड़ भी ली थी .........चारों और आग ही आग ...ये देखकर हम सन्तुष्ट भी हुए थे ...........पर पता नही क्या हुआ  ......कुछ ही देर  में  अग्नि इस तरह शान्त हो गयी  जैसे उसे किसी नें पी लिया हो ...........वो   अग्नि !         कंस के राक्षस  कंस को  बता भी नही पा रहे थे कि  उन्होंने  वृन्दावन में क्या देखा  !  

नारायण ! नारायण ! नारायण !   

आगये उसी समय  देवर्षि नारद जी  ।

हम बताते हैं .............अब जाओ  तुम लोग पहले यहाँ से ।

कंस फिर बोला ....."एकान्त" ........और  सब लोग  वहाँ से चले गए ।

देवर्षि  !   बताइये ना   क्या हुआ  ?     और  अब आगे क्या होगा ? 

कंस गिड़गिड़ानें लगा देवर्षि के चरणों में गिर कर  ।

मैने तुमसे पहले ही कहा था .........कृष्ण की शक्ति  राधा हैं ............और  याद रहे  जब तक  बरसानें में  राधा हैं .......तब तक  कृष्ण का कोई कुछ नही बिगाड़ पायेगा ।

हूँ ............सोचनें लगा  कंस ..........सोचना पड़ा कंस को .......क्यों की वो इस   घटना को भूलता नही है ........कैसे  पालनें में सो रही  श्रीराधा नें  मात्र  अपनें  छोटे  चरण क्या पटके ..........वो  सीधे बरसानें से  आ गिरा था मथुरा ........पर  ये   बात किसी को पता नही है ।

क्या सोच रहे हो  कंस !      सोचो मत ...........कुछ करो ...........

मैं तो तुम्हारा हितैषी हूँ .....इसलिये हित की बातें कहनें चला आता  हूँ । 

"नारायण नारायण नारायण"............चल दिए  देवर्षि  नारद जी ।

मैं बरसानें जाऊँगा  ......और   मार दूँगा   उस राधा को ..........

चीखा कंस ।

.....पर सावधान कंस  !   बरसानें की गलियों से  सावधान !    हँसते हुए  आकाश मार्ग से  चल दिए थे देवर्षि ।

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प्रेम सरोवर है..........दिव्य सरोवर है बरसाने में ......इसका नाम है  "प्रेम सरोवर".......हर रँग के कमल खिले हैं इस सरोवर में......किनारे पर  कदम्ब के घनें वृक्ष हैं .......उन वृक्षों में  मोर आकर बैठ जाते हैं ........और विचित्र बात  ये  कि  वे सारे मोर  बारी बारी से  अपना नृत्य दिखाते हैं ........कोयली  मधुर स्वर देती है ।

वातावरण  सुगन्धित है....क्यों की वन में नाना जाति के पुष्प खिले हैं । 

सरोवर के  किनारे ही एक दिव्य सिंहासन है.........उस सिंहासन में विराजमान हैं आज   श्री बृषभानु नन्दिनी राधारानी  ।

नीला रँग इन्हें बड़ा प्रिय है.....क्यों कि इनके प्यारे का रँग नीला है ना ! .....और एक  विचित्र बात  ये है कि ........इनके प्राणधन को पीला रँग प्रिय है ....क्यों की   तपे हुए सुवर्ण के समान  रँग है   श्रीराधा रानी का  ।

तो  नीली साड़ी पहनी हुयी हैं .........मस्तक में चन्द्रिका की शोभा है .......माथे में  श्याम बिन्दु है ..........

सखियाँ  नवीन नवीन फूलों का हार बनाकर ला रही हैं .....और वो सब "श्री जी"  को पहनाती हैं ..............वीणा बजानें में लगीं हैं    "ललिता सखी" ......."विशाखा सखी"   मृदंग  लेकर बैठ गयीं हैं  ।

"चित्रा सखी"  मंजीरा बजा रही हैं ......और   "इन्दुलेखा सखी"  इत्र और गुलाब जल का बीच बीच में छिड़काव करती जाती हैं .........

"चम्पकलता सखी"   श्रीराधारानी के पीछे खड़ी हैं और चँवर ढुरा रही हैं .....

"तुंगविद्या सखी" ........गायन कर रही हैं .....ये बहुत सुन्दर गाती हैं ....

"रँगदेवी सखी" और "सुदेवी सखी" ये दोनों जुड़वाँ हैं .......और देखनें में  बिल्कुल श्रीराधा रानी जैसी ही लगती हैं ............ये दोनों उन्मुक्त भाव से नृत्य कर रही हैं .......इन्दुलेखा  पुष्पों की वर्षा कर देती हैं कभी कभी ।

 इतना आनन्द प्रवाहित हो रहा है इस बरसानें के प्रेम सरोवर में...........सब झूम रहे हैं...........श्रीराधिका  जू की ओर ही सबकी दृष्टि है ..........पर -

एकाएक  ललिता सखी नें  वीणा बजाना बन्द कर दिया .......विशाखा सखी नें भी मृदंग  में थाप देना बन्द किया ..........तुंगविद्या का गायन रुकना  स्वाभाविक था ........।

क्या हुआ ?    गायन, वादन  सब क्यों रोक दिये ?

      ये प्रश्न  रँगदेवी  नें पूछा था......और  श्रीराधा रानी नें भी यही  प्रश्न नजरों से किया   ।

प्यारी !   वो देखो !   ललिता सखी नें  दिखाया ..............

कुञ्ज के  रन्ध्र से  कोई कुरूप सा  पुरुष देख रहा था ............

ये कौन है ?    श्रीराधा रानी हँसी  ।

मथुरा नरेश कंस !   ललिता सखी नें   मुस्कुराते हुये कहा  ।

ये फिर आगया ?   हे ललिते !  ये कंस एक बार पहले भी आचुका है .....जब मेरा जन्म ही हुआ था ......तब  ये मेरे  पद प्रहार को सह  न सका और अपनी मथुरा में जाकर गिरा था ........इतना कहकर  कुछ सोचनें लगीं  श्रीराधा रानी ..... पर ये तो मेरे प्यारे को बड़ा ही कष्ट देता है ना ? 

हाँ ...........ये कंस बड़ा दुष्ट है ......आपतो सब जानती हैं  .........सुदेवी सखी नें  आगे आकर कहा ।

पर तुम लोग क्या देख रही हो ...........ये निकुञ्ज है हमारा ......यहाँ किसी पुरुष का प्रवेश वर्जित है ........हाँ  इस निकुञ्ज में तो एक ही पुरुष रह सकता है .........कुछ शरमा गयीं ये कहते हुए  ।

तो आपकी क्या आज्ञा है  स्वामिनी ?     सखियों नें आज्ञा माँगी ।

"इस मथुरा नरेश को भी   सखी बना दो"

......आल्हादिनी की आज्ञा कुञ्ज में गूँजी..........

बस फिर क्या था ......कंस नें    जब देखा अपनें आपको .........ओह ! 

वो सखी बन चुका था ..........ये क्या  !  घबड़ाया कंस  ।

सखियों ने ताली बजाकर  हँसना शुरू कर दिया ...........

अब  ले आओ  मथुरा नरेश को.........हँसते हुये  श्रीराधा रानी बोलीं ।

दो सखियाँ गयीं .....पकड़ कर ले आईँ ........श्रीराधा रानी के सामनें खड़ा किया गया  कंस को ......वो क्या कहे ? .....वो  तो कुछ सोच ही नही पा रहा था  कि ये मेरे साथ क्या हो गया ?      अब ये  मथुरा भी नही जा सकता था  ।

"पर  इस  "कंससखी" को  सखी के वस्त्र तो पहनाओ "............कंस को देखते हुये हँसती ही जा रहीं थीं  श्रीराधा रानी ........।

सबनें पकड़ा  और   लंहगा फरिया  सब पहना दिया ..........हट्टा कट्टा कंस ......काला  कुरूप कंस ......ऐसा कंस जब सखी बना .......

अब नाचके नही दिखाओगी   कंस सखी ....!         सब  हँसते हुए  नचानें लगीं कंस को .....बेचारा कंस करे क्या .....नाचना ही  पड़ा उसे तो ।

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 तू कौन है री ?         कहाँ से आयी है तू ? 

बरसानें में  जब कंस घूँघट डालकर चलता था ........तब महिलायें पूछती ही थीं .............बड़ी  पहलवान है  ये तो .....कहाँ से आयी है ये ? 

अरी ! बता तो दे  !  कहाँ से आयी है ?    कंस  क्या उत्तर दे .......कुछ नही बोलता था  वो  बेचारा ।

पर  अब तो बरसानें में सब छेड़नें लगे ..........बारबार पूछनें लगे  ।

तब  गौशाला में जाकर रहनें लगा कंस ......और  गोबर फेंक कर वहीँ कुछ खा लेता था ........और  वहीँ सो जाता था  ।

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देवर्षि !  बताइये ना !    हमारे महाराज कंस कहाँ गए ? 

1 महीना बीत चुका था ..........मथुरा में खलबली मच गयी ......महाराज कंस कहाँ गए ........राक्षस परेशान रहनें लगे थे ..........।

तब परम कौतुकी देवर्षि नारद जी  पहुँचें मथुरा. ..........बस नारद जी को देखते ही  राक्षस तो चरणों  में गिर पड़े ......आपका ही सब किया धरा है .....अब आप ही  बताइये की हमारे कंस महाराज कहाँ हैं  ?

देवर्षि नारद जी नें आँखें बन्द कीं ..........फिर  जोर जोर से हँसे ।

इतना हँसे की  उनका मुख मण्डल लाल हो गया था ......।

आप हँस रहें हैं ?   हमारे प्राण निकले जा रहे हैं .....प्रजा को कौन संभालेगा देवर्षि ?    चाणूर मुष्टिक सब नें कहा  ।

अच्छा ! अच्छा !   मैं लेकर आता हूँ ......देवर्षि जानें लगे ............तो दो कंस के  ये  राक्षस भी चल पड़े ...........

"नही  तुम नही जाओगे .......मैं ही लेकर आऊंगा ..........तुम लोग बस अपनें महाराज के आनें की प्रतीक्षा करो ........इतना कहते हुए   देवर्षि हँसते हुए चल पड़े   थे  ।

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"जय हो  बरसानें के अधिपति बृषभान जी की" ! 

बृषभान जी की गौशाला में ही पहुँच गए थे देवर्षि नारद ।

ओह !   देवर्षि ! 

 उठकर  स्वागत किया ..चरण वन्दन किया देवर्षि का .बृषभान जी नें ।

कैसे पधारे प्रभु !      हाथ जोड़कर पूछा ।

वो आज कल  आपकी गौशाला में कोई नई  सेविका आयी है .....

ये कहते हुए इधर उधर देखनें लगे थे देवर्षि ।

नही .......हमारे यहाँ  कौन आएगा  ?   

बृषभान जी के संज्ञान में अभी तक ये बात आयी ही नही थी  ।

.....एक आई है ........काली है ....कुरूप है ....और मोटी   है ......ये कहते हुये  फिर इधर उधर देखनें लगे  देवर्षि ।

हाँ ..हाँ ........एक है .......पर पता नही  वो आयी कहाँ से है ? 

पहले उसे बुलाइये तो ...........मैं बता दूँगा  वो कहाँ से आयी है ।

देवर्षि हँसते हुये  बोले  ।

देखिये  वो रही आपकी मोटी ताज़ी सखी.........बृषभान जी नें दिखाया ........कंस  गोबर की परात उठाकर फेंकनें के लिये जा रहा था  ।

देवर्षि  नें कंस को जैसे ही देखा .........अब तो हँसी और न रुके  ।

ए सखी ! 

 इधर आ !    इधर आ !  जोर से चिल्लाये  नारद ।

कंस को अब कुछ उम्मीद जागी.......वो खुश हुआ  देवर्षि को देखते ही ।

नही तो कंस नें  समझ लिया था कि ..........इसी गोबर को फेंकते हुए अब  जीवन बिताना पड़ेगा   ।

ये  पुरुष है  बृषभान जी !        देवर्षि नें समझाया ।

क्या ये पुरुष है ?       चौंक गए  .......पर इसे  सखी किसनें बनाया ? 

आपकी लाडिली  श्रीराधा नें ...........हँसी को रोकते हुए बोले ।

बुलाओ  श्रीराधा को ............बृषभान जी को कुछ रोष हुआ ।

कुछ ही देर में  अपनी अष्ट सखियों के साथ  श्रीराधा रानी वहाँ उपस्थित थीं .........बाबा !      ।

ये क्या है  ?       ये कौन है ?  

ललिता सखी हँसीं ........ये  मोटी सखी है ..........सब सखियाँ हँसी ।

तुम सब हँस रही हो ?  ये  पुरुष हैं  और तुमनें इसे नारी बना दिया ।

पर ये हमारे निकुञ्ज में   प्रवेश करके   हमारी लीलाओं को देख रहा था !

बड़े  मासूमियत से श्रीराधा रानी नें कहा ।

पर ये है कौन  ?  तुम्हे पता है  ?    बृषभान जी नें फिर पूछा ।

"हाँ ...पता है....ये मथुरा नरेश कंस है"

श्रीराधा रानी नें ही उत्तर दिया ।

क्या !    चौंक गए  बृषभान जी  ।

क्या ये सच है  देवर्षि नारद जी !        बृषभान जी  नें देवर्षि से पूछा ।

हाँ ...ये सच है ........देवर्षि नें  सहजता में कहा  ।

अब जब  बृषभान जी नें कंस को देखा .......तब  उनके भी  भीतर से हँसी फूट रही थी .....पर हँसे नही ...............

चलो !  इनको वापस पुरुष बना दो ............श्रीराधा को आज्ञा दी बृषभान जी नें ।

ठीक है  बाबा !  मैं बना तो दूंगी .........पर एक शर्त है ......ये कंस  अब  इस बरसानें में कभी आएगा नही ...........इस बरसानें की सीमा का अतिक्रमण नही करेगा .............बोलो ? 

बड़ी ठसक से बोलीं थीं   बृषभान दुलारी ......।

तुरन्त चरणों में गिर गया कंस ......हे राधिके !   मैं कभी आपके बरसानें में नही आऊंगा ............मैं  आपसे सच कहता हूँ .........चरणों में अपनें मस्तक को  रख दिया था कंस नें ।

कृपालु की राशि  "श्रीजी" नें     तुरन्त अपनी सखी ललिता को आज्ञा दी ......और    कंस   वापस पुरुष देह में आगया   ।

देवर्षि मुस्कुराये .......और  श्रीराधा रानी के चरणों में प्रणाम करते हुये .........कंस को लेकर मथुरा चले गए  थे  ।

हे वज्रनाभ !      ये श्रीराधा हैं .........बाहर से देखनें में लगता है  कृष्ण लीला कर रहे हैं .......हाँ  लीला तो कृष्ण ही करते हैं ....पर   उस लीला में  जो शक्ति काम कर रही होती है  वो  ये  आल्हादिनी श्रीराधा ही होती हैं .............ये कृपा की राशि हैं.....।

सहज स्वभाव पर्यो नवल किशोरी जू को,
 मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि हैं ।

शेष चरित्र कल .....

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