18*आज के विचार*
*( प्रेम की अगन हो...)*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 18 !!*
चित्त के दो पाट चिर जाते हैं ......एक राधा और एक माधव ।
पर ये प्रेम कि आग दोनों और ही लगी है....और आग बढ़ती जा रही है ।
प्रेम कि इस दिव्य झाँकी का दर्शन तो करो..........
"प्रिय सामनें हैं ........और उनके आगे श्रीराधारानी नाच रही हैं - ....प्रियतम की ओर देखना.....मुस्कुराना .....प्रेम से उन्हें निहारना ......
पर ये क्या ! एकाएक रूठ जाना......बात ही न करना ........
फिर प्रियतम का मनाना..........मनानें पर भी न मानना ........
क्यों ? अजी ! प्रेम कि अपनी ठसक होती है...........
हे वज्रनाभ ! ये चरित्र जो मैं तुम्हे सुना रहा हूँ ......इसके सब अधिकारी नही हैं .........जिनकी बहिर्मुखता है ........जिनका हृदय पवित्र नही है .........वो इस दिव्य प्रेम के अधिकारी कहाँ ? .......क्यों कि उनको ये सब समझ में ही नही आएगी .......की ये क्या है !
जो मात्र नैतिकता के थोथे मापदण्ड में बंधे हैं .......पुरुष की सत्ता को ही जो सर्वोच्च मानकर चलते हैं ......सामाजिक तथाकथित धारणा में बंध कर ही सोचते हैं .....वो इस अनन्त प्रेम के नीले आकाश में उड़नें का प्रयास भी न करें.....ये वो पन्थ है .....जिसे बड़े बड़े ज्ञानी भी नही समझ पाते....तो सामाजिक धारणा में बंधे लोगों से.........जिनके लिये उदर भरना .........अपनी महत्वाकांक्षा ही सर्वोच्च है... ..वो बेचारे क्या समझेंगें ?
चलो ! तथाकथित प्रेम को लोग समझ भी लें ........पर ये तो और ऊंचा प्रेम हैं......संसार के लोगों का प्रेम ये है कि प्रेम हम कर रहे हैं ...क्यों की हमें सुख मिले......पर ये प्रेम तो अपनें सुख में नही जीता .....प्रियतम सुखी है......तो हम सुखी है ....प्रियतम दुःखी है तो हम भी दुःखी हैं ..............
यानि - इनसे हमें सुख मिले .........ये संसार का प्रेम है .......
पर हमसे इन्हें सुख मिले.......इसी भावना में सदैव भावित रहना ....ये दिव्य प्रेम है .......हम इसी दिव्य प्रेम की चर्चा कर रहे हैं ।
अद्भुत रहस्य खोल दिया था प्रेम का , महर्षि शाण्डिल्य नें आज ।
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आग दोनों तरफ लगी है हे वज्रनाभ ! ...........कृष्ण श्रीराधा के लिये तड़फ़ रहे हैं .....तो श्रीराधा कृष्ण के लिये उन्मादिनी हो चली हैं ।
हे ललिते ! मैं देख रही हूँ .......अग्नि कुण्ड है मेरे सामनें वो धड़क रहा है .........धीरे धीरे मैं उसमें जा रही हूँ ........पर मैं जलती नही .....जलूँ कैसे सखी ! ऊपर से श्याम सुन्दर बादल बनकर बरस रहे हैं ।
कृष्ण विरह से तप्त हो उठीं हैं श्रीराधा ......और ललिता सखी का हाथ पकड़ कर रो रहीं हैं .................
कल आये थे वे......अपनें सखाओं के साथ ......छुप कर देख रहे थे मुझे .........पर मैं लजा गयी .........मैं रुकी नही ............मैं महल के भीतर आगयी ...........पर वे मेरे पद चिन्हों को अपनी पीताम्बरी से छाँया करके बैठे रहे .......उनका वो कोमल शरीर सूर्य के ताप से झुलस गया होगा ना ?
मैं कैसे मिलूं उनसे......कुछ समझ नही आरहा.......मेरी बुद्धि काम नही दे रही........मैं महल में आयी .......तो ये चित्रा सखी का बनाया हुआ कृष्ण का चित्र मेरे सामनें आगया ..........इन चित्र को देखकर तो मैं और विरहाग्नि में जलनें लगी हूँ .........इस चित्र को हटा दे सखी !
रँगदेवी सखी उस चित्र को हटानें लगीं ............तो उठकर दौड़ीं फिर श्रीराधा .........नही ........यही तो मेरे जीवनाराध्य हैं ............उस चित्र को लेकर अपनें हृदय से लगा लिया फिर ।
तुम सब जाओ अब ! जाओ ! मैं कुछ देर एकान्त में बैठूँगी ।
सखियाँ चली गयीं ।
मन नही लगा श्रीराधा का महल में .............बारबार कृष्ण की वही छबि याद आरही है .........मेरे पदचिन्हों को अपनी पीताम्बरी से छाँया कर रहे थे ............और उनका मुखमण्डल पसीनें से नहा गया था ।
फिर एकाएक मन में आया......लोक लज्जा की परवाह है तुझे राधे !
देख ! उन श्याम सुन्दर को ..........तेरे लिए वो बरसानें में ?
तुरन्त उठीं श्रीराधा और..........मैं भी जाऊँगी आज नन्दनन्दन से मिलनें .........क्यों न जाऊँ ? वो मेरे लिये आसकते हैं तो !
झरोखे से उतरीं श्रीराधा रानी ...........द्वार से जातीं तो सब सखियाँ देख लेतीं .........और नन्दगाँव कोई दूर तो नही था बरसानें से ।
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अरी ! बृजरानी यशोदा !
देख ! कोई लाली बड़ी देर से खड़ी है तेरे द्वार पर....द्वार तो खोल दे ।
श्रीराधारानी चली गयीं थीं नन्दगाँव .........पर नन्द महल के द्वार पर जाकर खड़ी हो गयीं ..........द्वार खटखटाया भी नहीं .......वो तो एक ग्वालिन जा रही थी उसनें देख लिया ........तो आवाज लगा दी बृजरानी को ।
भीतर से बृजरानी यशोदा नें .........अपनें लाल कन्हैया से कहा .......देख ! कोई खड़ा है द्वार पर ......जा खोल दे ।
ठीक है मैया ! कृष्ण गए और द्वार जैसे ही खोला ...........
राधे !
आनन्द से भर गए .....कुछ बोल भी नही पाये .....बस अपलक देखते ही रहे .......उस दिव्य रूप सुधा का अपनें नेत्रों से पान करते ही रहे ।
अरे ! तू भी ना लाला ! कौन है ? .....बता तो दे ?
बहुत बार बोलती रहीं बृजरानी यशोदा .............पर कृष्ण को कहाँ होश !.........उनका सर्वस्व आज उनके ही पास आगया था ।
अरे ! कौन है ? ये कहते हुये बृजरानी जैसे ही द्वार पर आईँ ।
सुन्दरता की साक्षात् देवी ..........नही नही .........जगत के सौन्दर्य नें ही मानों आकार लिया हो ..........ऐसा अद्भुत सौन्दर्य ! ऐसा लोकोत्तर सौन्दर्य ! देखनें की बात तो दूर गयी ........सुना भी नही था कि ऐसा भी रूप होता है ........मूर्छित हो गयीं बृजरानी यशोदा तो ।
पर होश नही है कृष्ण को ..........वो तो आगे बढ़ीं श्रीराधा रानी ........और बोलीं .........आपकी मैया को क्या हुआ ?
कन्हैया नें देखा मुड़कर .....तो महल के भीतर बृजरानी मूर्छित पड़ी हैं ।
जल का छींटा दिया .......तब जाकर होश आया था यशोदा मैया को ।
अरे ! बाबरे ! देख कितनी सुन्दर लाली है .....भीतर तो बुला ........
बेचारी कितनी देर से खड़ी है बाहर .....
कन्हैया को बोलीं उनकी मैया ।
आओ ना ! ............बड़े प्रेम से बुलाया कृष्ण नें अपनें महल में ।
धीरे धीरे नंदमहल में प्रवेश किया श्रीराधा रानी नें ..........बड़े संकोच के साथ ।
किसकी बेटी हो ? कहाँ रहती हो ?
अपनी गोद में बिठा लिया था बृजरानी नें ..............
और उन गोरे कपोल को चूमती हुयी पूछ रही थीं ।
बरसानें की हूँ ......कीर्ति रानी मेरी मैया हैं .............
मिश्री की मधुरता भी इनकी वाणी के आगे तुच्छ प्रतीत हो रही थी ।
"राधा" नाम है मेरा .......बृषभान जी की बेटी हूँ ।
ओह ! कीर्तिरानी की राधा तुम हो ?
आनन्द से उछल पडीं बृजरानी ।
मैया ! मैं भी बैठूंगा तेरी गोद में ! कृष्ण मचलनें लगे ।
अच्छा अच्छा ! आजा .......तू इधर बैठ ........एक तरफ श्रीराधा रानी और दूसरी और अपनें लाला को बैठाकर माखन खिलानें लगीं ।
सुगन्धित तैल उन काले काले श्रीजी के केशों में लगाकर उन्हें संवार दिया....सुन्दर लहंगा पहना दिया ......ऊपर से चूनरी ओढ़ा दी ..........पायल पहना दी बृजरानी नें ।
सुन्दर सा मोतियों का हार पहना दिया ।
कृष्ण बड़े खुश हैं ........बारबार देख रहे हैं अपलक श्रीराधा रानी को ।
मैं जाऊँ अब बरसानें ? मेरी मैया मेरी बाट देख रही होंगी ।
श्रीराधा रानी के मुख से इतना सुनते ही ............बृजरानी नें राई नॉन उतारा.......श्रीराधारानी का ।
अब जाऊँ ? संकोच से धसी जा रही हैं ये बृषभान की लली ।
जा ! जा छोड़ के आ ! कन्हैया को बोलीं यशोदा ।
बड़े खुश होते हुये कन्हैया चले ........श्रीजी का हाथ भी पकड़ लिया कृष्ण नें ...........बृजरानी देखती रहीं और मुग्ध होती रहीं ......मेरी बहु है ये .......कितनी प्यारी जोड़ी है .......हे विधाता ! मैं अचरा पसार के मांगती हूँ ........ये जोड़ी ऐसे ही बनी रहे ।
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अकेली आगयीं राधे ?
कृष्ण नें पूछा ।
हूँ ........इससे ज्यादा कुछ बोलती ही नही हैं ।
अब कब मिलोगी ?
पता नहीं .............
तुम्हारा महल आगया है ........अब तो बता दो ......कहाँ मिलोगी ?
पता नहीं ........इतना बोलकर भागी, क्यों की महल आगया था ।
पर बातें बनानें वाले तो होते ही हैं .........बरसानें के हर नर नारी नें देख लिया था .......सजी धजी श्रीराधा कृष्ण के साथ आरही है ।
कीर्तिरानी नें देखा .......कुछ रोष भी किया ........कहाँ गयीं थीं ?
चलते चलते नन्दगाँव चली गयी थी.......कृष्ण दूर खड़े होकर देख रहे हैं .........कीर्तिरानी नें अपनी लली को सजी धजी देखा .........ये सब हार पायल लहंगा किसनें पहनाया ?
यशोदा मैया नें .......श्रीराधा रानी धीरे से बोलीं ।
बरसानें की महिलाएं सब देख रहीं थीं.....और बातें भी बनानें लगी थीं ।
कीर्तिरानी अपनी लली को लेकर चलीं गयीं महल के भीतर ।
कृष्ण लौट आये थे अपनें नन्दगाँव ।
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कृष्ण अपनें आपसे ही तो मिल रहे हैं ......महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ।
हे गुरुदेव ! अपनें आपसे मिलना क्या होता है ?
"जैसे कोई आईने में अपनें आपको देखकर मोहित होजाता है"
महर्षि का कितना सटीक उत्तर था ...... वज्रनाभ आनन्दित हुए ।
शेष चरित्र कल .........
Harisharan
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