17*आज के विचार*
*( "प्रेम" - अपनें आपको पानें की तड़फ़ )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 17 !!*
यह है प्रेम की पराकाष्ठा !
....प्रेम ? यानि अपनें आपसे मिलनें की बैचैनी !
यानि अपनें आपसे मिलनें की एक तड़फ़ ........पर इस प्रेम में मात्र अपना प्रिय ही दिखाई देता है ......न अपना मान , न अपमान ।
प्रेमी इन सबसे परे हो जाता है ..........महर्षि शाण्डिल्य वज्रनाभ को "श्रीराधाचरित्र" सुनाते हुये भाव रस में निमग्न हो रहे थे ।
मानापमान से दूर होना हे वज्रनाभ ! कोई छोटी स्थिति नही है ........
पर प्रेम की महिमा निराली है ...........वहाँ अगर अपमान से मिलता हो प्रियतम तो अपमान ही हमारे लिए अमृत है ........और ये बात भी ध्यान देंनें की बात है ........कि अगर मान अपमान का ध्यान है तो वह प्रेम ही नही है ........चातक पक्षी माँगता है पानी .......पर बादल बदले में ओले बरसाता है ...........पर इसके बाद भी चातक का प्रेम और बढ़ता है .......बढ़ता ही जाता है बादल के प्रति ।
हे वज्रनाभ ! प्रेम उसे नही कहते जो क्षण में बढ़े और क्षण में घटे ।
प्रेम तो निरन्तर बढ़नें का नाम है ।
जैसे अग्नि में सुवर्ण को तपाया जाए तो उसकी कीमत, उसकी स्वच्छता निर्मलता और बढ़ती है .......ऐसे ही प्रेमी जितना अपमानित होता है .....वो और निखरता है .......निखरता ही जाता है ।
नेत्रों में भाव के अश्रु भरकर हँसे महर्षि शाण्डिल्य......पर प्रेम करना तो एक मात्र श्रीकृष्ण को ही आता है ..........।
देखो ! ऐसा प्रेमी कहाँ मिलेगा ?
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तुम्हे क्या हो गया कन्हैया ? दो दिन हो गए ...........तुम गुमसुम से रहते हो ........किसी से अच्छी तरह बातें भी नही करते ।
बताओ हमें तो ! बताओ ! हम तुम्हारे सखा हैं ?
वृन्दावन की भूमि में कृष्ण सखाओं नें कृष्ण से आज पूछा था ।
क्यों की दो दिन हो गए.........न ये पहले की तरह बोलते हैं ......न पहले की तरह हँसते हैं .............कभी फूलों को देखते हैं ......कभी मोरों को .........कभी बहती हुयी यमुना में त्राटक करते हैं ।
पता नही .........पर मेरा मन नही लग रहा .........ये श्रीधाम की दिव्य शोभा भी मुझे चुभनें लगी है ...............गूँजा की माला तोड दी थी ये कहते हुए .......या टूट गयी थी ।
हमारी ओर देखो !
मधुमंगल सखा नें कृष्ण के चिबुक को पकड़ कर ऊपर उठाया ।
अब बताओ ! क्या बात है ?
"राधा" नही आई दो दिन हो गए हैं ...उदास से कृष्ण बोले ।
अब कौन राधा ? तोक सखा नें पूछा ।
बरसानें की राधा ? ..............मनसुख हँसता हुआ बोला
हाँ ........पर तुम लोग मेरा मजाक उड़ाओगे इसलिये मैने तुम लोगों को नही बताया .............बड़ी मासूमियत से बोले थे कृष्ण ।
हमारे सखा कृष्ण का कौन मजाक उड़ा सकता है ................
अच्छा ! ये तो बता मिले कहाँ थे तुम दोनों ?
हँसते हुए मनसुख नें ही पूछा ।
तू फिर हँस रहा है .........इसलिये मैं तुझे नही बताता ......रोनी सी सूरत बना ली थी कृष्ण नें ।
अच्छा ! अच्छा ! मुझे बता ...कहाँ मिले थे तुम दोनों ?
तोक नें सब सखाओं को हटा कर कृष्ण को बड़े प्रेम से पूछा था ।
बरसानें ! कृष्ण नें अपनी बात बताई ............
अब तू बरसानें कब गया कन्हैया ?
परसों !
......सब सखा ऐसे पूछ रहे थे जैसे मनोचिकित्सक हों ये सब ।
हूँ .......
सखा हैं कृष्ण , तो सबको चिन्ता होनी स्वाभाविक ही है ।
अरे ! इतना क्यों सोचते हो.......पास में ही तो है बरसाना......चलो !
मनसुख नें तुरन्त समाधान किया ।
कृष्ण प्रसन्न हुये ..........सिर उठाकर मनसुख को देखा ।
क्या तुम इन सबसे पूछते हो ........हम से पूछो .....तुरन्त समाधान है .......अरे ! ब्राह्मण हैं ..........सबका समाधान करनें के लिये ही तो पैदा हुए हैं .........मनसुख सहजता में बोलता है ..........ये कुछ भी बोले .....सुननें वालों को हँसी आही जाती है ।
तो पोथी पत्रा धर लिए हो पण्डित मनसुख लाल ! .......कि अभी मुहूर्त ठीक है ? देख लो .........कहीं इस नन्द के सपूत के चक्कर में हम न पिट जाएँ ........तोक नें ये बात मनसुख को छेड़नें के उद्देश्य से कही ।
नाटक करनें में माहिर है मनसुख ............आँखें बन्दकर उँगलियों में कुछ गिना .....हाँ शुक़्र उच्च है.......इसलिये प्रेम के लिये ये समय ठीक है चलो ............कृष्ण उतावले हैं बरसानें जानें के लिए ।
रुको रुको ! फिर रोक दिया मनसुख नें ...............
नाक के साँस की स्थिति देखि .......दाहिना स्वर चल रहा है या बाँया ........चल रहा था बाँया........तो लेट कर .....लोट कर मनसुख नें दाहिना स्वर चला ही दिया ( ज्योतिष में स्वर विज्ञान भी है ...कोई भी कार्य करनें से पहले नाक से साँस किस तरफ से निकल रही है देख लो .....अगर दाहिना चल रहा है .....तो उस समय काम पर निकलो तो कहते हैं सफलता मिलेगी ......अगर बायाँ चल रहा है तो रुक जाओ )
चलो ! अब ठीक है ........कृष्ण तो इस समय प्रेम रस में डूबे हैं .......जैसा कह रहे हैं सखा वैसा ही मान रहे हैं........सखाओं की बातों में ध्यान भी नही है कृष्ण का .....उनका समूचा ध्यान तो "बृषभान नन्दिनी" की ओर ही है ।
चल दिए बरसानें की ओर ...........सब सखा मिलकर ।
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आज किसी नें कुछ नही खाया है ........क्यों की जब कृष्ण ही नही खायेगा ......तब सखाओं के खानें का तो कोई मतलब ही नही है ।
और कृष्ण को भूख कहाँ ......................
जेठ का महीना अभी अभी लगा ही है .........पर सूर्य का ताप अपनी चरम पर है .........बरसानें में बृषभान जी के महल के पीछे छुपे हैं .....
श्रीराधारानी कब निकलेंगी ......महल में से कोई भी जाता है आता है तो सब धीरे से बोल उठते हैं ........"श्रीराधा निकलीं" ............ये सुनते ही टकटकी लगाकर कृष्ण देखनें लग जाते हैं .......अपने हृदय के धड़कन को भी रोक लेते हैं...........पर नही ..........फिर उदास ही जाते हैं ।
पसीनें से नहा रहे हैं कृष्ण .................गर्मी आज ज्यादा ही है ।
तभी ............पायल की आवाज आई ................कृष्ण नें सुनी ........वही सुगन्ध ..............अब पहचानते हैं कृष्ण ......क्यों नही पहचानेंगें ! अपनें आपको नही पहचानेंगें ?
आगे बढ़ें .......तो सामनें से दौड़ी हुयीं श्रीराधा अपनें महल की ओर जा रही थीं .........कृष्ण नें देखा .........वो तो जड़वत् खड़े रह गए ।
कितना अद्भुत सौन्दर्य ! अलौकिक सौन्दर्य......वे ठिठक गए ।
पर श्रीराधा रानी चली गयीं अपनें महल के भीतर .............
कृष्ण दौड़े .............पाँव में कुछ पहनें नही थे श्रीराधा नें ।
इसलिये जमीन पर श्रीराधा के चरण चिन्ह बन गए ।
श्रीकृष्ण नें देखा ..........ओह ! फिर आकाश की ओर देखा .......सूर्य की गर्मी बढ़ती ही जा रही थी ...........नेत्रों से जल बरस पड़े .......बैठ गए वहीँ .......श्रीराधा के चरण चिन्ह के पास ।
निकाली अपनी पीताम्बरी ...........और चरण चिन्ह के ऊपर पीताम्बरी से छाँया करनें लगे ..................
नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं ....
रोम रोम से श्रीराधे ! श्रीराधे ! नाम प्रकट हो रहा है ..............
सखा सब आये..... सबनें श्रीकृष्ण को सम्भाला .......चलो ! अब
हे कृष्ण ! चलो ! इस तरह से मत बैठो यहाँ ..........देखो ! कितनी गर्मी हैं ........सूर्य का ताप कितना है ! सब सखा बोलनें लगे थे ।
नेत्रों से अश्रु निरन्तर बहते ही जा रहे थे कृष्ण के ......
हाँ ! मैं भी तो यही कह रहा हूँ ........सूर्य का ताप कितना है ..........मेरी प्यारी के इन कोमल चरण चिन्हों को कितना ताप लग रहा होगा ना !
तुम जाओ ! मैं यहीं हूँ ....गर्मी लग रही है मेरी "श्रीराधा के पद चिन्हों" को....ये कहते हुए कृष्ण अपनी पीताम्बरी को फैलाये हुये ही बैठे रहे ।
हे वज्रनाभ ! ये प्रेम की रीत है ...........इसे केवल ये श्याम सुन्दर ही जानते हैं ..........ये बड़ी विलक्षण है ..........इसे बुद्धि से कौन समझ पाया है आज तक ........ये तो हृदय में खिला फूल है ।
प्रीत की रीत रंगीलो ही जानें !
यद्यपि अखिल लोक चूड़ामणि, दीन अपन को मानें ।
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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