16 *आज के विचार*
*( प्रिया प्रियतम का प्रथम मिलन...)*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 16 !!*
लो प्यारे ! मेरा सब कुछ ले लो ......तन ले लो ..मन ले लो......बुद्धि ले लो मेरा अहंकार भी ले लो ............
यही है श्रीराधाभाव........माधव माधव रटते "माधव" बन जाना ।
बड़ा मुश्किल है........बड़ा कठिन काम है.......राधा का माधव होना ......राधा सब कुछ छोड़ सकतीं हैं........पर राधात्व कैसे छोड़ दें ।
पर राधा को भी तो माधव बननें की बैचैनी है......वो तड़फ़ उठती हैं ....और उस प्रेम की पीर में वो भी जब पुकार उठें....राधा राधा !
तब राधा भाव पूर्ण होता है .........।
श्रीकृष्ण का जन्म अष्टमी भादौं के अँधेरे पक्ष में होता है .....समस्त जगत के अंधकार को पीकर श्रीकृष्ण चन्द्र उदित होते हैं......और श्रीराधा ! राधा का जन्म होता है भादौं अष्टमी में पर उजियाली रात में ......यानि अपनें पूरे गोरे रँग को इसी में लगानें के लिये कि "इस कारे को मैं गोरा करके रहूँगी"
पर हो जाता है सब कुछ उल्टा पुल्टा .......ये प्रेम है.........उफ़ !
आज प्रथम मिलन होगा यमुना के कूल में इन दोनों सनातन प्रेमियों का.....प्रतीक्षा है सबको इस मिलन की ..... आस्तित्व स्वयं प्रतीक्षारत है.......ये कहते हुए महर्षि शाण्डिल्य आज मदमाते हो रहे थे ।
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"नन्दगाँव" बस चुका है ........अद्भुत प्रिया हैं श्रीराधा कि अपनें प्रियतम को अपनें पास बुलाकर ही मानीं ।
बरसानें की भूमि ही तो है ये नन्दगाँव ...............बृषभान ही अधिपति हैं इसके .....यानि बृषभानुजा ही इस नन्दगाँव की स्वामिनी हैं ।
श्रीधाम वृन्दावन दिव्यातिदिव्य है .........ये और खिल उठा है .......
क्यों की अब "पिय प्यारी" का मिलन यहीं तो होगा ।
प्रकृति स्वयं को सजानें में व्यस्त है ......लाडिली लाल को अच्छा लगे ।
सेवा में तो सब लगे हैं जी !
आज ऐसे ही यमुना के पुलिन में घूमते हुये ......... थोडा दूर चले गए कृष्ण ..........मुग्ध हो गए वहाँ वन की शोभा देखकर ..........
वन नें भी स्वागत किया कृष्ण का.......हवा मन्द सुगन्ध वह चली ।
पक्षियों नें कलरव करके गान सुनाना शुरू कर दिया ।
अपलक देख रही हैं हिरणियाँ ..............
फूलों में भौरों नें गुँजार किया..........अरे ! वज्रनाभ ! जो जो कमल खिले नही थे वो भी इन को देखकर खिल गए ..............धूप तेज़ न हो इसके लिये बादलों नें छत्र लगा दिया ..........हल्की बूँदें पड़नें लगीं ।
मुस्कुराते हुये आकाश की देखा नन्दनन्दन नें ......देवता धन्य हो गए ।
आनन्दस्वरूप स्वयं ही अपनें ही आनन्द को अभिव्यक्त करना चाह रहे थे ......
तो क्या करें ? अपनी फेंट से बाँस की बाँसुरी निकाली .........
अपनें कोमल गुलाबी पतले अधर में बाँसुरी को रखा ...........
और मार दी फूँक ................
ओह ! प्रकृति मानों स्तब्ध हो गयी .............पक्षी जो अब तक कलरव कर रहे थे .....उन्होंने तो मानों एकाएक मौन व्रत ही धारण कर लिया ।
बज रही थी बांसुरी.......जड़ भी कंपित हो उठे थे ......फिर चेतन की कौन कहे !
पर ये क्या ! शताधिक मोर पता नही कहाँ से आगये थे .............
और सब नाचनें लगे .........अपनें अपनें पंखों को फैलाकर .........घूमते .........अपनें पंखों को हिलाते.........फिर नाचते ।
मुरली मनोहर नें बाँसुरी भी तो आज पहली बार ही बजाई थी ।
वज्रनाभ ! स्थान होता है .....हर स्थान पर हर कार्य नही होते ।
बाँसुरी वृन्दावन में ही बज सकती है ......न मथुरा में ....न कुरुक्षेत्र में ...न द्वारिका में ।
पर मोर रुक गए नाचते नाचते ...........श्याम सुन्दर भी रुक गए ।
पर वो सब मोर एक साथ किसी स्थान पर चल दिए थे .........
कृष्ण रुके ......मोरों नें मुड़कर कृष्ण को इशारा किया आओ हमारे पीछे पीछे ........आग्रह था उन प्रेमी पक्षियों का ........कैसे टाल देते और ये मोर भी तो इस वृन्दावन के थे .........चल दिए पीछे ।
कृष्ण आनन्द विभोर हो रहे हैं ........कहीं से सुगन्ध आरही थी.......और जहाँ से ये सुगन्ध आरही थी मोर उसी ओर ही तो जा रहे थे ।
सरोवर है ................बड़ा सुन्दर सरोवर है ............उस सरोवर के चार घाट हैं .....सीढ़ियां मणि माणिक्य से बने हैं .......सरोवर का जल अंत्यंत निर्मल है .......मोर वहीँ ले गए थे कृष्ण को ।
सरोवर के जल में कोई गौर वर्णी सुन्दरता की मानों देवी बैठी थीं .....ऐसा कृष्ण को लगा ..........वो और तेज़ चाल से चलते हुये पास में पहुँचे ..............मोर रुक गए ......बाँसुरी फेंट में रख दी कृष्ण नें ।
गए कृष्ण .......पास ............और पास .............पीछे से जाकर धीरे से हाथ रखा कृष्ण नें ...........
एकाएक कृष्ण के कर का स्पर्श पाते ही...........वो तो चौंकी ।
मुड़ीं ...........पर जैसे ही अपनें सामनें देखा नन्दनन्दन को ............
और नन्दनन्दन नें देखा श्रीराधा को ........त्राटक लग गयी दोनों की ।
नेत्र मिले .............मिलते ही रहे .............मानों इन दोनों के नयन भी कह रहे हों .......और पीनें दो इस रूप सुधा को ..........कितनें समय बाद मिले हैं .......प्यासे थे .........आज प्यास मिटे ।
मोर नाच उठे .......पक्षियों नें गाना शुरू कर दिया ......लताओं से फूल झरनें लगे ......सरोवर के कमल सब प्रसन्नता से खिल उठे ....उसमें से पराग उड़ते हुए इन दोनों युगलवर के ऊपर पड़नें लगे ।
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कौन हो तुम ? हे गोरी ! कौन हो तुम ?
इस प्रश्न नें श्रीराधा को अपना भान कराया ..........नही तो ये भूल गयीं थीं ......हाँ .....सब कुछ भूल गयीं थीं ।
बताओ ना ! सुन्दरी कौन हो तुम ? ओह ! कितनी सुन्दर हो !
क्या नाम है तुम्हारा ? कृष्ण बाबरे से पूछते जा रहे थे........
किसकी बेटी हो ? कभी मैने तुम्हे देखा नही ......आज पहली बार देख रहा हूँ .............पर एक बात बताऊँ मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि हम तुम्हे पहले से जानते हैं ...............
कुछ नही बोलीं ।
तुम बोलती क्यों नही हो ? कुछ तो बोलो ।
शरमा गयीं श्रीराधा रानी .........प्रेम भर गया लवालव हृदय में ।
तुम बोल नही सकतीं ?
इतना कहते हुए अधरों को छू लिया कृष्ण नें ।
उस स्पर्श से श्रीराधा का शरीर कंपित होनें लगा ..............कुछ देर के लिये सरोवर में बैठ गयीं आँखें बन्द करके ।
"राधा" नाम है मेरा ! मैं यहीं बरसानें के बृषभान जी की बेटी हूँ ।
मुझे नही देखा होगा तुमनें .......क्यों कि मैं कहीं जाती आती नही हूँ ।
पर तुम कौन हो ?
अपनें बारे में तो कुछ बताओ ? श्रीराधा रानी नें कृष्ण का परिचय जानना चाहा ।
मैं ? मुझे कौन नही जानता ? बड़ी ठसक से बोले कृष्ण ।
और वैसे मेरा नाम तो तुमनें सुना ही होगा .............
अच्छा ! सब जानते हैं तुम्हारे बारे में ? तुम इतनें बड़े हो ।
अब थोडा मुस्कुराईं थीं श्रीराधा रानी ।
हाँ .....हम बहुत बड़े आदमी है........पूरा बृजमण्डल हमें जानता है ।
अच्छा ! अच्छा ! अब अपना नाम तो बता दो ?
मेरा नाम है कृष्ण ! ये नाम तो तुमनें सुना ही होगा ।
नही..........श्रीराधा नें तुरन्त मना कर दिया ।
उस समय कृष्ण का मुख देखनें जैसा था ।
फिर श्रीराधा नें कुछ देर बाद कहा .........
अच्छा ! अच्छा ! कृष्ण ! हाँ हाँ .......तो तुम्ही हो जो गोकुल में घर घर माखन की चोरी करते फिरते थे .......और अब यहाँ आगये ।
अरे ! तुम्हारा क्या चुरा लिया हमनें प्यारी ! .......बोलो ...........जो हमें सीधे चोर कह रही हो .................
हाँ चुरानें की कोशिश भी मत करना....श्रीराधा रानी नें मुँह फेर लिया ।
चोरी तो तुमनें की है हमारी ...................
लो ! चोरों के सरदार तो तुम हो .....और हमें चोर कह रहे हो .........
क्यों न कहें .............चोरी भी करो और हम शिकायत भी न करें ....
ये बरसानें में कैसा न्याय है !
पर हमने क्या चुराया तुम्हारा ? श्रीराधा रानी बोल रही थीं ।
हमारा हृदय !..........देखो ! देखो ! हमारा हृदय हमारे पास ही नही है ...........तुमनें चुरा लिया है इसे ...........ये अच्छी बात नही है ।
मैं जाती हूँ अब ....सन्ध्या हो रही है ..........श्रीजी चलीं ........
लम्बी साँस ली कृष्ण नें ........और जोर से बोले .......
राधे ! अब कब मिलोगी ?
हम चोर से नही मिलते ............
तो हमारा हृदय तो दे जाओ ...............कृष्ण भी चिल्लाये ।
तुम कहाँ रहते हो ? श्रीराधा नें जाते जाते पूछा ।
"नन्दगाँव"..........कृष्ण नें श्रीराधा को बता दिया ।
श्रीराधा चली गयीं .........कृष्ण बहुत देर तक देखते रहे उस पथ को ....जहाँ से श्रीराधा गयीं ।
आल्हाद से भरे कृष्ण जब मुड़े तो और आनन्दित हो गए ......
सारे के सारे मोर नाच उठे थे......सब पंख फैलाये नाच रहे थे ।
पर ये क्या ! कृष्ण भी उन मोरों के साथ नाचनें लगे..........
एक मोर का पंख गिरा नाचते हुए.........मानों उसनें कृष्ण को अपनी तरफ से ये भेंट दी थी ........
हे मोर ! मेरी आत्मा , मेरे प्रेम से तुमनें मुझे आज मिलाया है ..हम तुम्हारे ऋणी हो गए....आज के बाद मैं इस मोर पंख को ही धारण करूँगा....इतना कहते हुये उस पंख को अपनें मुकुट में खोंस लिया था ।
हे वज्रनाभ ! ये ब्रह्म की प्रेम लीला है .......और मैने तुम्हे कहा ही है ..लीला का कोई उद्देश्य नही होता .....लीला का एक मात्र उद्देश्य होता है अपनें हृदय के आल्हाद को प्रकट करना ......बस ।
महर्षि शाण्डिल्य का आनन्द..........और वज्रनाभ का आनन्द आज शब्दातीत है ....।
"तेरो रसिक बिहारी मग जोवत खड्यो,
अपनें दोऊ कर जोर तेरे पायन पड्यो"
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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