15 *आज के विचार*
*( चिन्मय श्रीधाम वृन्दावन )*
*!! "श्रीराधाचरितामृतम्"- भाग 15 !!*
किसकी वाणी में सामर्थ्य है जो इस "प्रेमभूमि" की महिमा गा सके ।
धन्य है धन्य है ये भूमि जहाँ भक्ति नाचती है ...........
भाव की भूमि अन्य भी हैं .......पर वृन्दावन की बात ही अलग है .........अन्य भाव भूमि में ....भक्ति वास करती है ......पर हे वज्रनाभ ! इस वृन्दावन में भक्ति वास नही करती .......नाचती है ......उन्मुक्त भाव से नृत्य करती है ।
ये दिव्य चिन्मय वृन्दावन धाम है ..........इस धाम को अपनी प्रिया श्रीराधारानी के लिये ही इस पृथ्वी में श्रीकृष्ण नें उतारा है ..........यहाँ की भूमि चिन्मय है .....यहाँ के अणु परमाणु सब चिन्मय हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य आज श्रीधाम वृन्दावन की महिमा गा रहे थे ........और बड़े भाव में गा रहे थे ।
नाम, रूप, लीला, और धाम ......ये चार भक्ति के तत्व हैं ...........पर हे वज्रनाभ ! इन चारों में से एक का भी आश्रय जीव ले ले .....तो उसका कल्याण है ।
नाम का जाप करे .......निरन्तर नाम का जाप करता रहे........या अपनें इष्ट के रूप का चिन्तन करे........ये भी नही तो ...अपनें इष्ट की लीलाओं का गान करते हुये तन्मय हो जाए......ये भी नही ......तो धाम वास करे......धाम वास करनें मात्र से धामी ( इष्ट) हमारे हृदय में प्रकट हो जाता है .......हे वज्रनाभ ! जैसे नाम और नामी में कोई अंतर नही है .....ऐसे ही धाम और धामी में भी कोई भेद नही है ।
ये श्रीधाम वृन्दावन तो प्रेम की पवित्र भूमि है ........मुक्ति भी अपनें आपको मुक्त करनें के लिये यहाँ लोटती रहती है .......ब्रह्म स्वयं इस श्रीधाम वृन्दावन की शोभा को देखकर मुग्ध होता रहता है .........क्यों की ये स्थल उनकी आराधिका की विहारस्थली है ।
मैं बारम्बार तुमसे कहता रहा हूँ ......श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं........और उनकी जो आत्मा है वो श्रीराधा हैं......इसलिये तो वेदों नें ब्रह्म को "आत्माराम" कहा है .....क्यों की वो अपनी आत्मा में ही रमण करता है ....और ब्रह्म की आत्मा नें ही आकार लेकर श्रीराधा का रूप धारण किया है ।
जब कृष्ण रूपी ब्रह्म राधा के रूप में परिणत होकर विहार करनें की इच्छा को प्रकट करता है ......तो विहार कहाँ हो ? हे वज्रनाभ ! तब स्वयं ब्रह्म ही श्रीधाम वृन्दावन के रूप में प्रकट होता है ।
ये सब ब्रह्म का विलास है .........ब्रह्म का रास है ...........इस रहस्य को समझो ...........हे वज्रनाभ ! वृन्दावन में यमुना हैं .........वो भी ब्रह्म ही हैं .....स्वयं कृष्ण ही जल के रूप में बह रहा है यमुना बनकर ।
गिरिराज गोवर्धन कृष्ण है............हाँ .....गोपियाँ कृष्ण हैं ......
....सब कुछ यहाँ कृष्ण ही है .......पर वही कृष्ण अपनें आपसे मिलनें के लिये जब बैचेन हो उठता है ..........तब राधा प्रकट होती हैं ......सखियाँ प्रकट होती हैं ......यमुना प्रकट होती हैं ..........श्रीधाम वृन्दावन प्रकट होता है ।
गोवर्धन गिरिराज स्वयं शालिग्राम हैं ........और ये सब वृक्ष वनस्पति गण्डकी हैं .........गण्डकी ही स्वयं वृक्ष और लता बनकर अपनें प्रिय शालिग्राम की सेवा में उपस्थित हुयी हैं ........यहाँ के कण कण में ब्रह्म है ..........ऐसा है ये दिव्य श्रीधाम वृन्दावन ।
ये बरसानें के पास है ......पर बरसाना क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है ।
वृन्दावन में गोवर्धन , यमुना ।....नन्दीश्वर शैल ( नन्दगाँव ) ये सब बरसानें के भाग हैं ।
हे वज्रनाभ ! मात्र एक रात्रि भी इस श्रीधाम वृन्दावन में कोई वास करे तो उसे आल्हादिनी श्रीराधा रानी अपना लेती हैं ।
इतना कहकर "श्रीराधाचरित्र" को महर्षि शाण्डिल्य गति देने लगे ।
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आहा ! सम्पूर्ण वृन्दावन .....कितनी हरीतिमा लिए हुए है .......
यहाँ असंख्य मोर हैं ..........अनेक रँग बिरंगें पक्षियों का एक अलग ही समूह है ..........देखो बृषभान जी ! वो गिरिराज पर्वत ! उसमें से झरनें बह रहे हैं ............यमुना थी तो गोकुल में भी .....पर यहाँ की यमुना कुछ अलग ही छटा लिए हुए हैं ............यहाँ के वृक्ष ........कितनें घनें और दिव्य हैं ..............फलों से इन वृक्षों की कितनी शोभा हो रही है .......और फलों के भार से ये झुक भी गए हैं ।
हिरण और हिरणियाँ.....आपस में कितनें स्वच्छन्द विहार कर रहे हैं ।
कन्धे में हाथ रखा बृषभान जी नें अपनें मित्र बृजपति नन्द के ......
वो देखिये .....उस पर्वत को आप देख रहे हैं .......हे मित्र बृजपति !
उस शैल का नाम है ........"नन्दीश्वर शैल" .............कहते हैं कि भगवान आशुतोष यहाँ आकर निवास करनें लगे थे ।
यहाँ क्यों आये होंगें महादेव ! नन्द नें बृषभान को पूछा ।
अब ये बात तो गुरुदेव ही बतायेंगें ...........
हे वज्रनाभ ! मैं उस समय दोनों महान व्यक्तियों की चर्चा सुननें का लोभ त्याग न सका .....इसलिये उनके पास चला गया था ।
सन्ध्या का समय हो रहा है ........शकट को रँग विरंगें वस्त्रों से सजा कर......उसी में रहनें की व्यवस्था बना ली थी समस्त गोकुल वासियों नें....भूख लगी थी सभी को ......तो भोजन सबनें मिलकर बनाया .....और सब भोजन ग्रहण कर लिए थे ।
बालक दूर खेल रहे थे ।
क्या कह रहे थे आप बृषभान जी ? मैने पूछा ।
गुरुदेव ! मैं ये कह रहा था ..........कि इस पर्वत को नन्दीश्वर पर्वत कहा जाता है .........अब हमनें तो आप जैसे ऋषि मुनियों के मुख से ही सुना है ........और ये भी सुना है कि अभी भी यहीं निवास करते हैं भगवान शंकर ।
हे वज्रनाभ !
मैने उस पर्वत को ध्यान से देखा.......तो मुझे साक्षात् श्रीभूतभावन महादेव ध्यानस्थ दिखाई दिए ......मैने उन्हें प्रणाम किया ........तो मेरे साथ भोले भाले नन्द और बृषभान नें भी हाथ जोड़ लिए थे ।
आप एक दो दिन यहाँ रहिये ....वृन्दावन में........पर आवास, निवास, महल आप सबका उस पर्वत पर रहे तो कैसा रहेगा ?
बृषभान जी नें इतना ही कहा था......कि मैं तो प्रसन्न हो गया....हे बृजपति नन्द ! इस स्थान से उत्तम रहनें के लिये और कोई जगह नही है .......जहाँ हम अभी हैं .....वृन्दावन में ......इसे गोचर भूमि और वन ही रहनें दिया जाये ......यहाँ गौ चारण करनें के लिये ग्वाले आएं ......यहाँ की हरीतिमा का आनन्द लें ............इस श्रीधाम का दर्शन करें .......पर आवास गोकुलवासियों का हम सबका ..........हे बृजपति ! नन्दीश्वर पर्वत पर ही रखा जाए ।
मेरी बातों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए बृषभान जी ...और बृजपति ।
कुछ देर बाद बृषभान जी नें आज्ञा माँगी बरसानें जानें कि ....और दो तीन दिन में "नन्दीश्वर पर्वत" में ही सब लोग रहेंगें ये निश्चित हुआ था ।
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मैं प्रणाम करता हूँ महर्षि !
मैं ध्यान मग्न था श्रीधाम वृन्दावन कि भूमि में .......रात्रि कि वेला थी ........तभी मेरे सामनें एक ज्योतिर्देह वाले दिव्य पुरुष प्रकट हुए ।
आप कौन हैं ? आपतो कोई देव पुरुष लग रहे हैं ?
मैने प्रश्न किया उन देव पुरुष से ।
हाँ ...महर्षि शाण्डिल्य ! आपनें ठीक पहचाना .....मैं देवताओं का शिल्पी विश्वकर्मा हूँ ........अपना परिचय दिया उन्होंने ।
अच्छा ! मुझे कोई आश्चर्य नही हुआ .........की मेरे सामनें शिल्पी विश्वकर्मा खड़े थे ।
कहिये ! कैसे आना हुआ ?
मैं बात को ज्यादा बढ़ानें के पक्ष में नही था ..........मुझे तो ध्यान में ही इतना रस आरहा था कि .... विश्वकर्मा मुझे विघ्न लग रहे थे ।
एक प्रार्थना करनें आया हूँ ....महर्षि ! वो प्रार्थना की मुद्रा में ही थे ।
हाँ ...शीघ्र कहो .......विश्वकर्मा !
मुझे झुंझलाहट हो रही थी ।
बस एक प्रार्थना है कि ......इस वृन्दावन में ......और जहाँ नन्दनन्दन अपना आवास बनायेंगें नन्दीश्वर पर्वत में..... मैं अपनी सेवा देना चाहता हूँ ......मैं दिव्य महल और समस्त गोकुलवासियों के लिये भवन बना देना चाहता हूँ ....आप कृपा करें ।
विश्वकर्मा की बातें सुनकर मुझे हँसी आयी ................
उन्होंने मुझ से पूछा भी - आप हंस क्यों रहे हैं महर्षि !
हे देव शिल्पी विश्वकर्मा ! देखो ! सामनें ........मैने श्रीधाम वृन्दावन का दर्शन कराया .........देखो !
महादेव शंकर गोपी बने प्रतीक्षा कर रहे हैं .......कि उस दिव्य रास की वेला कब आएगी !.......चौंक गए विश्वकर्मा ।
उधर देखो ! गिरिराज पर्वत की ओर .........स्वयं नारायण पर्वत बनकर खड़े हैं ......और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब श्याम सुन्दर मेरे ऊपर अपनी गायों को लेकर चलेंगें .................
उधर देखो ...........वो पर्वत है ब्रह्माचल पर्वत .....उसी पर्वत में बरसाना स्थित है .............देखो ! उस पर्वत को ........
ओह ! स्वयं ब्रह्मा पर्वत के रूप में खड़े हैं ..........."लाडिली श्रीजी" की सेवा में ........और तुम्हे पता है विश्वकर्मा ! "श्रीजी" कौन हैं ?
देखो !
इतना कहते ही बरसानें में दिव्य प्रकाश छा गया .......निकुञ्ज प्रकट हो गया ...........एक सिंहासन है ........उस सिंहासन में तपते हुए सुवर्ण की तरह जिनका गौर वर्ण है .......उनके आगे पीछे .....रमा, उमा ब्रह्माणी सब हाथ जोड़े खड़ी हैं .....अरे ! स्वयं श्याम सुन्दर दूर खड़े अपनी प्रिया का मुख चन्द्र देखकर मुग्ध हुए जा रहे हैं .............
पर मुझे मात्र प्रकाश दिखाई दे रहा है ......मुझे कुछ दिखाई नही दे रहा ।
विश्वकर्मा नें कहा ।
.....तब हँसे महर्षि शाण्डिल्य ।
ये सब दिव्य है........ये सब धाम हैं ......जो नित्य हैं ...........ये गोलोक निकुञ्ज से ही आये हैं ........तुम्हारी यहाँ गति नही है विश्वकर्मा ।
पर मैं देवशिल्पी हूँ .........विश्वकर्मा नें कहा ।
अरे ! जहाँ स्वयं नारायण पर्वत के रूप में खड़े हैं ..............महादेव और ब्रह्मा भी पर्वत के रूप में हैं ...........वहाँ तुम क्या हो ?
देखो ! उस नन्दीश्वर पर्वत को ............महर्षि नें दिखाया ।
हजारों वर्षों से तप कर रहे हैं महादेव ...............पता है क्यों ?
क्यों की श्याम सुन्दर और उनकी आल्हादिनी शक्ति इस स्थल पर कभी विहरेंगें ......और मैं तब उनके दर्शन करूँगा ।
तुम आगये इस भूमि में विश्वकर्मा ! ....तुम आगये इस प्रेमभूमि में यही तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है ........तुम मात्र दर्शन करो.......तुम मात्र इस भूमि को प्रणाम करो......पर जो भी महल यहाँ होगा कल......वह प्रकट होगा .......उसे कोई बनाएगा नही ।
तो फिर ?
दुःखी हो गए थे विश्वकर्मा .....उनका देवशिल्पी होनें का अहंकार चूर चूर हो गया था ।
पर दुःखी क्यों होते हो....द्वारिका बनानें की सेवा तुम्हे ही देंगें श्रीकृष्ण ।
और भैया विश्वकर्मा ! ये प्रेमनगरी है.....यहाँ तो सब चिन्मय ही है ।
इतना कहकर हे वज्रनाभ ! मैं मौन हो गया था ।
द्वारिका बनानें की सेवा मुझे मिलेगी .......ये भी सौभाग्य माना विश्वकर्मा नें ......और सौभाग्य था ये भी ।
विश्वकर्मा प्रणाम करके चले गए वहाँ से ।
पर एक दिन की बात हे वज्रनाभ ! रात्रि में ही एक दिव्य महल प्रकट हुआ .........ग्वाल वालों के लिये सुन्दर सुन्दर भवन .......गायों के लिये .....सुन्दर शालाएं ..........सुबह उठकर देखा तो नन्दीश्वर पर्वत में दिव्य "नन्दगाँव" उतर आया था ।
हँसे महर्षि शाण्डिल्य ......सब कुछ यहाँ चिन्मय है .......
हर कण यहाँ राधा कृष्ण हैं ..............इतना कहते हुये उठे महर्षि शाण्डिल्य और यमुना की बालुका हाथों में ली .......ये देखो ! वज्रनाभ !
एक कण काला है ...और एक कण गौर है ......काला कृष्ण है और गौर श्रीराधा हैं ......इतना कहते ही भाव समाधि में चले गए थे महर्षि ।
वृन्दावन सों वन नही, नन्दगाँव सों गाँव,
बंशीवट सों वट नही, श्रीराधा नाम सों नाम !
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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