"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 13

13 आज  के  विचार

( श्रीराधा नें श्याम को बाँधा...  )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 13 !! 


बन्धन सुन्दर नही होते ...कुरूप ही होते हैं ..........

पर  हे वज्रनाभ !    एक ही बन्धन है  जो  सुन्दर है .....".प्रेम का बन्धन"।

दुनिया को मुक्ति बाँटनें वाला ......स्वयं बन्धन में बंध गया .....क्या दिव्य लीला है.......और  मैने तुम्हे बताया ना.......लीला का कोई उद्देश्य नही होता ......लीला का एक मात्र उद्देश्य है......अपनें  भीतर की  आल्हादिनी  शक्ति को जगाना .......क्यों कि वही प्रेम है.....और वही ब्रह्म को भी बांध सकती है    ।

इस प्रेम की गति को  "विचित्रा गति" कहते हैं .........महर्षि शाण्डिल्य  "श्रीराधा चरित्र" को  आगे बढ़ाते हुये बोले........हे वज्रनाभ !  

साधारण बात को ही समझो .........."भौंरा लकड़ी में भी छेद करनें की हिम्मत रखता है .......पर  वही भौंरा  जब कमलपुष्प  में बन्द हो जाता है ......तब   वह    उस अत्यन्त कोमल कमल के फूल को भी तोड़ नही पाता .......ये   क्यों है ?       यही है  प्रेम की "विचित्रागति" है   ।

जिन आँखों में अब प्रियतम बैठ गया ......उन आँखों में  अब काजल भी  नही लगा सकती  .वो प्रेमिन ........कहते कहते  रुक गए महर्षि शाण्डिल्य .......फिर कुछ देर बाद बोले........काजल तो साकार वस्तु है ........अरे ! जिन आँखों में    प्रियतम बैठ गया है .....उन आँखों में तो नींद भी नही ठहर सकती ........नींद कहाँ ?    प्रेमिन की आँखों में  नींद के लिये जगह कहाँ .......वहाँ तो प्रियतम आ बैठा है ।

वैसे जरूरत भी नही है  काजल या नींद की.......क्यों की प्रियतम नें ही  इन सबकी कमी पूरी कर दी है.......कज्जल  बनकर नयनों में लग गया है प्रियतम........और प्रियतम ही मीठी नींद बनकर  बस गया है .......इसलिये  उस बाबरी प्रेमिन को  जरूरत नही है .....काजल और नींद की.....महर्षि  शाण्डिल्य  स्वयं इस   "श्रीराधा चरित्र"  के "प्रेम सरोवर" गोता लगा रहे हैं....और  वज्रनाभ को भी  खींचना चाहते हैं   ।

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बृजरानी यशोदा दौड़ रही हैं .....पर कृष्ण उनके हाथों में आही नही रहे ।

हाथ में छड़ी है ..............मैं तुझे छोडूंगी नही .........मैं तुझे आज पीटकर ही रहूँगी ........परेशान कर रखा है सुबह से ...........बृजरानी यशोदा का स्थूल शरीर है .....ये आज तक  कभी इस तरह दौड़ीं  ही नहीं ........उनके केश पाश खुल गए हैं .............उनमें से फूल  झर गए ......और  वे सब फूल धरती पर पड़े मानों  रो रहे हैं .......अरे !    मैया बृजरानी  से  हम अलग हो गए ...........हमारा दुर्भाग्य  ।

साँसे फूल  रही हैं ........थक गयीं हैं ..........पसीनें  चुचानें लगे थे  ।

पर ललिते !  बृजरानी दौड़ क्यों रही हैं ?  और कृष्ण नें ऐसा किया क्या ?

नन्द महल की सारी मटकियां तो तोड़ दीं   कृष्ण नें   .......ललिता सखी नें   श्रीराधा रानी को बताया  ।

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अब तो "कृष्ण चर्चा"  का व्यसन लग गया है   श्रीराधा को  ।

जब से "कृष्ण" नाम सुना है .......और  चित्रा सखी के द्वारा बने "कृष्ण" के मनोहारी  चित्र के दर्शन किये हैं ........बस  कृष्ण के बारे में ही सुनना चाहती हैं.........और सुनानें वाली  हैं  ललिता सखी ..........ये अष्ट सखियों में प्रमुख हैं ............ये कभी श्रीराधा को अकेली छोड़ती नही हैं ..........ये वीणा बहुत सुन्दर बजाती हैं ......और संगीत के रागों में इन्हें  भैरव राग बड़ा ही प्रिय लगता है ..............ये "कृष्ण लीला"  वीणा में  गाकर सुनाती रहती हैं    श्रीराधा को .......।

बरसानें क्षेत्र अंतर्गत ही गोवर्धन  वृन्दावन , नन्दगाँव    इत्यादि  आते हैं ........इनके अधिपति  बृषभान जी  ही हैं .....।

वृन्दावन  विशुद्ध वन था ........गोचर भूमि  थी.........वहाँ न कोई महल था  .....न वहाँ कोई लोग रहते थे .......प्रकृति नें  अपनी सम्पूर्ण सुन्दरता इसी वन को दे दी  थी.........बरसानें से नौका   लेकर अपनी सखियों के साथ   श्रीराधा रानी अब नित्य वृन्दावन आनें लगीं  ।

और यहाँ   खेलतीं ...........फूल बीनतीं ..........मोर का नृत्य  देखतीं ......फिर उन्हीं मोर की नकल करते हुए नाचतीं ..........कोयल से गायन में स्पर्धा करतीं........पर कहाँ श्रीराधा  और कहाँ ये कोयली !......चुप कोयली को ही  होना पड़ता .......तोता को   अनार के दानें खिलातीं ।

पर जब ......."कृष्ण"  नाम  याद आते ही ................

"तुम सब सखियों  फूल बीनों .........मैं थोडा  नौका में बैठती हूँ   - एकान्त में......ऐसा कहते हुये   नौका में बैठनें के लिये चली जातीं.......पर जाते जाते  नीलकमल का एक पुष्प तोड़ते हुये ले जातीं..........और उस पुष्प को  अपनें कपोल में छूवाते हुये ..........कृष्ण  की भावना में खो जातीं  ।

राधे !  राधे !  श्रीजी !   लाडिली !

     दूर से ही  एक सुन्दर से हंस को पकड़ कर ले आयी थी  ललिता सखी .....और  पुकारते  हुयी आरही थी  ।

आजा !    यहीं आ !     श्रीराधा नें भी बुला लिया  ।

हंस  को  श्रीराधा रानी की गोद में देकर ......बैठ गयी ललिता सखी ।

ललिते ! मन उदास है !  ........श्रीराधारानी नें कहा ।

पर क्यों ?     क्या हुआ   देखो प्यारी !  कितना सुन्दर वन है   ये वृन्दावन ...........और आपको तो प्रिय है ना  ये वन  ।

हाँ प्रिय तो है ........पर  इस वन में एक कमी है ...........इसलिये कुछ अधूरा सा लगता है .............ललिते !  कितना अच्छा होता ना !  कि वे गोकुल से यहाँ वृन्दावन आजाते ...........और हम ............हंस को  चूम लिया  श्रीराधा रानी नें  ये कहते हुए  ।

ललिता हँसी ...........पर कुछ बोली नही    ।

सुन !     तू वीणा नही लाई  आज  ? 

लाई हूँ ना .......यहीं नौका में है  .............सुनाऊँ मैं आपको कुछ ?

नही  रहनें दे .............श्रीराधा रानी नें मना कर दिया  ।

आपनें अभी तक देखा नही है कृष्ण को ........तब ये दशा है आपकी    अगर आप देख लेंगी  तब  ?  ललिता बोली ।

मैं नही देख पाऊँगी .......उन्हें ........मेरी धड़कनें  रुक जायेंगी  ।

कुछ देर तक  कोई नही बोला .........न  श्रीराधा रानी न ललिता सखी ।

पर  घड़ी भर बाद ही .........ललिते !      सुन ना !     "तू  मुझे गोकुल में अभी क्या हो रहा है   ये  बता दे"  ।

मैं कैसे बता सकती हूँ ?       हो आऊँ  प्यारी ?  आप कहो तो ? 

ललिता सखी हँसते हुये बोली ......... नौका है  मेरे पास ........और मैं  घड़ी भर में ही पहुँच जाऊँगी  गोकुल ।

नही .....जा मत ......मुझे यहीं से बता   कि  गोकुल में कृष्ण क्या कर रहे हैं .............श्रीराधा रानी नें जिद्द की  ।

पर मैं  ?  ललिता  नें  असमर्थता प्रकट की ........।

पगली !  तू आँखें  बन्द तो कर .......और गोकुल को याद कर ........सब प्रत्यक्ष हो जाएगा..........देख !  आँखें बन्दकर  के  एकाग्र कर मन को गोकुल में ..........श्रीराधा रानी नें    ललिता को समझाया ।

हे वज्रनाभ !    ये  तो  छोटे मोटे सिद्धि वाले लोग भी कर सकते हैं ......तो ये ललिता इत्यादि तो   सिद्धि दात्री हैं ...........सब को सिद्धि प्रदान करनें वाली हैं .........और वैसे भी प्रेमी अपनें आप में महासिद्ध  होता है  ।

महर्षि शाण्डिल्य नें  वज्रनाभ को समझाया ........और   कहनें लगे .....

ललिता सखी नें अपनी आँखें बन्द कीं ............और तभी   गोकुल गाँव  हृदय में प्रकट हो गया ...........ललिता  अन्तश्चक्षु से  गोकुल की लीला देखकर  श्रीराधा रानी को बतानें लगी थीं   ।

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कृष्ण घूम जाते हैं ..........बृजेश्वरी यशोदा  पीछे भाग रही हैं .......

कृष्ण गोल गोल घूमते जाते हैं .........टेढ़े मेढ़े भागते हैं........अब  चपल कृष्ण के पद  जितनी तेज़ी से दौड़ सकते हैं .........उनकी तुलना में बृजेश्वरी  यशोदा !   वो तो थोड़ी स्थूलकाय भी हैं .......थक गयीं ।

पसीनें पसीनें हो गयीं ...........साँसें चलनें लगी जोर जोर से ।

पीछे मुड़कर देखा .......अपनी मैया यशोदा को  .............ओह !  दया आगयी  नन्दनन्दन को ........."मेरी मैया थक गयी है"  ।

खड़े हो गए कृष्ण .............ब्रजेश्वरी यशोदा  नें देखा ..............धीरे धीरे  पकड़नें के लिये  चलीं ......उन्हें लग रहा था  कि  ये मुझे छल कर फिर भागेगा .........पर नही .........पकड़ लिया  कृष्ण को  ।

श्रीराधा सुन रही हैं .........हे वज्रनाभ !   ललिता सखी  सुना रही हैं  ......जो देख रही हैं ..........वही बता रही हैं   ।

इधर देखा न उधर.......एक जोर से थप्पड़ जड़ दिया गाल में  कृष्ण के ।

रो गए.......आँसू बह चले उन कमल नयन के.......पर  बृजरानी ऐसे कैसे मानतीं .....आज उपद्रव भी तो कम नही मचाया था कृष्ण नें ........

हाथ पकड़कर ले गयीं   भीतर.......ऊखल के पास खड़ा किया ।

"पिटाई कर तो दी .......अब तो छोड़ दो  बृजरानी कृष्ण को" .....

गोपियों  नें   कहना शुरू कर दिया था .......क्यों की रोते हुये कृष्ण देखें नही जा रहे थे  उन गोकुल की गोपियों से  ।

जाओ   यहाँ से ! ......और रस्सी लेकर आओ ..............क्रोध में हैं आज  यशोदा रानी .............।

गोपियाँ दौड़ीं.......रस्सी लाईं........बाँधनें का प्रयास करनें लगीं कृष्ण को यशोदा .........पर ये क्या  ?   रस्सी दो अंगुल कम पड़ गयी   ।

बड़ी रस्सी लाओ ना !          बृजरानी का क्रोध कम नही हो रहा ।

और रस्सियाँ लाई गयीं .............पर  कृष्ण नही बंध रहे ।

आँखें बन्दकर के श्रीराधारानी ये  प्रसंग सुन रही हैं .......जो  अभी घट रही है गोकुल में   ।

और रस्सियाँ लाओ !............ये  जादू दिखा रहा है मुझे ..........अपनी मैया को जादू दिखायेगा ............रोष में ही हैं यशोदा रानी .........गोपियों नें ढ़ेर लगा दी  रस्सियों की ..........बृजरानी बाँधनें का प्रयास फिर करनें लगीं .............पर नही  ।

इन सब रस्सियों  को जोड़ दो..गोपियों !  .....अब देखती हूँ  कि ये  कैसे नही बंधेगा .... बृजरानी नें कहा.. .....और सब गोपियाँ  गोकुल गांव की,   रस्सियों को जोड़नें लगीं  ।

नही बंधेगा ये ................हँसी   श्रीराधा रानी ।

नेत्र बन्द हैं श्रीराधा के ..........और हँस रही हैं ........ये नही बंधेगा .........ललिते !   दुनिया की कोई पाश इसे नही  बाँध सकती .....ये गोकुल की रस्सी क्या ......इसे तो नाग पाश, वरुण पाश , ब्रह्म पाश तक नही बांध सकती  ।

फिर ये कैसे बंधेगा  ?        ललिता सखी नें पूछा  ।

ये  !  कैसे  बंधेगा  ?           ललिते !   देख !      इतना कहते हुये ........अपनें  केशों  को खोल दिया  श्रीराधा रानी नें ............बिखर गए केश ..........बेणी    की डोरी   निकाली ........और उस डोरी को ललिता के हाथों में देते हुये बोलीं ........ललिते !  तू जा .......इस नौका को ले ......और जा  गोकुल ...............बृजरानी को प्रणाम करके कहना .....श्रीराधा नें भेजी है ये डोरी ...........इसी से  बाँधों इसे ।

इतना कहकर  वो बेणी की डोरी ललिता के हाथों में देती हुयी ........श्रीराधा नौका से उतर गयीं ........जल्दी आना ललिते !

ललिता सखी नें   पतवार  चला दी ..................हवा  नौका के अनुकूल ही  चल पड़ी .......ललिता को देरी न लगी  थी गोकुल पहुंचनें में ।

नाव को किनारे से लगाकर  ललिता   नन्द भवन की और भागी .......।

परेशान  थीं नंदरानी..........ललिता सखी गयी .........और   प्रणाम करती हुयी बोली .......ये  श्रीराधा नें  डोरी भेजी है बरसानें से ..........आप अपनें लाडले को इससे बाँधे .............।

किसनें भेजी है ये डोरी ?     श्रीराधा नें .......ललिता नें फिर कहा  ।

कृष्ण मुस्कुराये ..........ललिता की ओर देखा ..........ललिता देख रही है .........यशोदामैया आगे बढ़ीं...श्रीराधा के बेणी की डोरी लेकर , ......कृष्ण को सुगन्ध आयी...श्रीराधा के केशों की   उस डोरी में .....सब कुछ भूल गए  कृष्ण ............अरे !  अपनी ईश्वरता भी भूल गए ........और बंध गए  ।

ललिता सखी ताली बजाकर नाच उठी .............प्रेम की जय हो ।

ये कहते हुए  वो भागी अपनें नाव की ओर ......नाव को चलाना भी नही पड़ा ...........श्रीराधा के पास  में  कुछ ही क्षण में पहुँच गयी थी ।

ललिते ! क्या हुआ ?    बंधे   मेरे प्यारे .....  

ललिता नें   प्रेम भरे हृदय से कहा .........प्रेम  सबसे बड़ा है ......आज मैने दर्शन कर लिए .........ईश्वर को भी अगर बाँधनें की ताकत किसी में है  तो वह प्रेम है ......और  हे राधे ! आप   उसी प्रेम का साकार रूप हो  ।

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सन्ध्या हो चुकी थी  वज्रनाभ !       अन्य सखियाँ भी नाव पर आगयीं .........और  नाव अब बरसानें की ओर चल पड़ी   ।

पर....श्रीराधा  का मन  गोकुल में ही था....वो बार बार मुस्कुरा रही थीं ।

हे वज्रनाभ !   ये प्रेम लीला है.......इसे  बुद्धि से नही समझा जा सकता .....ये हृदय का आल्हाद है ........इतना ही बोल पाये महर्षि शाण्डिल्य ।

प्रेम नदिया की सदा उलटी बहे धार ............

शेष चरित्र कल ....

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