"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 12

12 आज  के  विचार

( श्रीराधारानी का प्रथम प्रेमोन्माद )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 12 !! 



जब तक  तुम्हारा अन्तःकरण पिघलेगा नही .....तब तक आल्हादिनी का प्राकट्य कैसे होगा  ?    याद रहे  अन्तःकरण जितना कठोर होगा .....आप  "प्रेम" से उतनें दूर हो ......बहुत दूर  ।

और प्रेम से दूर का मतलब  ब्रह्म से दूर .......ब्रह्म से दूर मतलब अपनें आपसे दूर......विचार करो  हे वज्रनाभ !    प्रेम ही सर्वस्व है ।

गंगा गंगा तभी है  जब उसमें शीतलता, पवित्रता, और मधुरता हो .......और अगर ये तीनों चीजें नही हैं  तो गंगा  गंगा नही है ............अगर अमृत में माधुर्य नही हैं .......तो अमृत कैसे अमृत हो सकता है ......ऐसे ही  कृष्ण रूपी ब्रह्म में  अगर  राधा नही है ....तो  वह कृष्ण भी अधूरा ही है .......कहो -  वह कृष्ण,  पूर्ण कृष्ण नही है ।

क्या ब्रह्म में  आवश्यक नही कि  आल्हाद हो ........वही आल्हादिनी शक्ति ही तो   राधा के रूप में प्रकट है ...........इस बात को स्पष्ट समझो  हे वज्रनाभ !     प्रेम जब  बढ़ता है  तब एक उन्माद सा छा जाता है .........नही नही .....इस  पथ में  बुद्धि का प्रयोग निषेध  है ............बुद्धि को  छोड़ दो  पहले ..........फिर  मेरी बात को समझोगे ।

महर्षि शाण्डिल्य  आज  प्रेम की और गहराई में उतार रहे थे .......हाँ प्रेम का पागलपन   एक अलग आनन्द प्रदान करता है........जो इस प्रेम के उन्माद में डूब गया .....वो मुक्त हो गया .......उसे मिल गया मोक्ष  ! 

पर नही ....प्रेमियों नें कब माँगी  मुक्ति .......प्रेमियों नें कब माँगा मोक्ष  ....अरे !   इन्हें तो  अब इस प्रेम के बन्धन में ही इतना आनन्द आरहा है कि   हजारों मुक्तियाँ न्यौछावर हैं  इस प्रेम के बन्धन में  ।

वो सहज देहातीत हो जाता है ...........वो प्रेमी   बहुत उच्च कोटि का परमहंस हो जाता है.......वो रोता है ...........उसके आँसू गिरते हैं  प्रेम के ......तो  उन आँसुओं को अपनें में पाकर  पृथ्वी धन्य हो जाती है ।

जब अपनें प्रियतम का नाम लेकर  वो प्रेमी  ऊँची साँस छोड़ता है ........तो उन पवित्र साँसों से दिशाएँ  पवित्र हो जाती हैं  .........

अरे ! वज्रनाभ !  इतना ही नही .........ऐसा प्रेमी जब गंगा स्नान को जाता है ...........तो गंगा  अपनें को  धन्य समझती है .....तीर्थ , सही में  तीर्थ हो जाता  है  ।

वह गिरता है ......  वो उठता है ....पर लड़खड़ाते हुए   फिर  अपनें प्रियतम को पुकारनें लगता है ........तो उस के आनन्द को ,  नीरस तर्क वितर्क में पड़े लोग क्या जानें  ?          

हे वज्रनाभ !    सुनो  अब  -  श्रीकृष्ण  के प्रेम नें  जो आकार लिया  श्रीराधा के रूप में .......उनका ये प्रथम प्रेमोन्माद  !       

महर्षि शाण्डिल्य  आज स्वयं  प्रेम उन्मादी लग रहे हैं  ।

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बड़ी हो रही हैं श्रीराधारानी.......और उनकी सखियाँ भी ।

सखियों में  ललिता विशाखा   रँगदेवी सुदेवी  इत्यादि अष्ट सखियाँ हैं ।

कुञ्जों में विहार करना  ........कुञ्जों में   फूल बीनना ...........मोर का नृत्य  देखना.........यही  सब  प्रिय हैं   इन्हें  ।

आज  चलते चलते   बरसानें से कुछ दूरी पर   एक दिव्य वन में   सखियों के साथ  "श्रीजी" पहुंचीं  ।

आहा !    कितना सुन्दर वन है ये .........नाच उठीं  वो  "कीर्ति कुमारी" .....देख ! ललिते !      इस वन की शोभा को ..........नाना प्रकार के पुष्प खिले हैं ............और देख !   इनमें  भौरों का गुँजार कितना मधुर लग रहा है .........और  ये गुलाब , जूही ......वेला .....मालती ।

और उधर देख ! ..........उछल पडीं   "भानु की लली"   ............वो देख ! रँगदेवी !     मोरों का  झुण्ड ......यहीं आरहा है  ।

और उधर  देख !  सुदेवी !    वो  रहे  शुक   कितनें सुन्दर लग रहे हैं ......और उधर वो मैना ............आहा !  बता ना   इस वन का क्या नाम है ?      मुझे तो ये वन  बहुत प्रिय लग रहा है ........ललिते !   तू ही बता  .........श्रीराधा रानी  को नाम जानना है इस वन का ।

तब  ललिता सखी नें आगे बढ़कर बताया .........इस वन का नाम है  "वृन्दावन" ।

वृन्दावन !  वृन्दावन ! वृन्दावन !         नाम लेनें लगीं  श्रीराधा जी ।

सुना नाम लगता है ........कितना प्यारा नाम है ना  !        ये कहते हुए  नाच उठीं   ......तभी  -  

राधे !     देखो उधर ...........यमुना के किनारे  ?    

रँगदेवी  सखी नें   उस ओर दिखाना चाहा   ।

क्या है ............बड़े भोले पन से  श्रीराधा नें  चौंक कर पूछा ।

अरे प्यारी ! उधर देखो ......यमुना में  नील कमल  के अनगिनत फूल ............

हाँ .........कितनें सुन्दर हैं  ना  ये फूल .......कितनें अच्छे लग रहे हैं ना ये  नीलकमल ........श्रीराधा रानी नें  दौड़ कर  एक कमल तोड़ लिया  ।

जैसे इस नील कमल का  रँग  है ना......ऐसा ही रँग  "कृष्ण" का भी है ।

ललिता सखी नें  सहजता में बोल तो दिया  .....पर .....

क्या !   "कृष्ण"  !     फिर बोल सखी ! ........क्या कहा -  "कृष्ण" ? 

आहा !  कितना प्यारा नाम है ..........मैने इस नाम को पहले भी कहीं सुना है .............कितना सुन्दर नाम है .........."कृष्ण" ........।

   पर ये क्या !    इस नाम को सुनते ही   श्रीराधा रानी  के नेत्र बरसने लगे.....  मुखमण्डल में हास्य है  .....और नेत्रों में आँसू  ? 

ये क्या हो गया !.....सखियाँ दौड़ी    अपनी  श्रीकिशोरी जी   के पास  ।

पर   सखियों नें जब सम्भाला    तब  तक देर हो चुकी थी ........ये प्रेमोन्माद श्रीराधा का    बढ़ चुका था  ।

ललिते !   मुझे क्या हो रहा है ......देख ना !     मैं  इस तरह क्यों  उन्मादग्रस्त हो रही हूँ........इस "कृष्ण" नाम में ऐसा क्या है  ।

अपनी गोद में सम्भाले .........श्रीराधा को  जैसे तैसे  वृन्दावन से बरसाना ले आईँ   सखियाँ ...........पर  महल में आते ही ..........सामने खड़ी थी   एक और सखी  जिसका नाम था "चित्रा" ।.....प्यारी  !  देखो !  मैने एक चित्र बनाया है ..........बहुत सुन्दर चित्र है .............आपको दिखानें ही लाई हूँ ........और हाँ ..........बड़ी ठसक से  फिर छुपाया चित्र को  चित्रा सखी नें ......जिसका ये चित्र हैं ना .........उसी के सामनें बैठकर मैने ये  बनाया है .......वो मेरे सामनें था ......और मैं उसे देख रही थी ......श्रीराधा रानी  अपने  पलंग में  लेट गयीं  .........और चित्रा  उनसे  बोले जा रही थी .....ललिता  विशाखा ........रँग देवी सुदेवी .....ये सब  वहीँ थीं ............।

तुम धीरे बोलो  चित्रा !    देख नही रही हो .......".लाडिली" कितनी थक गयीं हैं..........ललिता इत्यादि सभी सखियों नें  चित्रा को समझाना चाहा .......हाँ हाँ .......तुम्ही चिपकी रहो  "लाडिली" से.....मैं बस पाँच मिनट के लिये क्या आगयी ..........कष्ट होनें लगा तुम्हे  ? 

चित्रा   नें  जब तेज़ आवाज में  ये  सब कहा .......तब  सब चुप हो गयीं ........फिर  भोली श्रीराधिका  नें भी कह ही दिया......अच्छा ! बता बात क्या है  ?        मुझे चित्र दिखानें आयी है ना .......चल दिखा !  

ना !    ऐसे नही .......पहले मेरी पूरी बात सुननी पड़ेगी  ........उस चित्र को फिर छुपा लिया  चित्रा सखी नें  ।

अच्छा  बता .....क्या बात है .......बैठ गयीं  उठकर  श्रीराधा रानी  ।

मेरी  बहुत इच्छा थी की  मैं उनके दर्शन करूँ....उस नीलमणी के......

चित्रा सखी बतानें लगी  ।

वो चोर है .....वो माखन चुराता है ............पर  वो तो   हृदय भी चुरा लेता है   ।

आज सुबह ही आगये थे हमारे यहाँ  बृषभान बाबा ...........और कहनें लगे गोकुल जा रहा हूँ ............चित्रा  बेटी !   तुम चलो मेरे साथ .......वहाँ  नन्द नन्दन का  चित्र बनाना है ...........मुझे  विशेष रूप से कहा है .......बृजपति नन्द नें.......चलो  शाम तक आजायेंगे ।

मैं खुश हो गयी .........मैं  उनकी शकट में बैठगयी .........और !

आँखें बन्दकर  चित्रा बोली ।.........और क्या ?  श्रीराधा नें पूछा ।

वो नन्द का छोरा ........मेरे सामनें बैठ गया ..............मुझे उसका चित्र बनाना था .............कितना सुन्दर है .................आहा !   

अच्छा !  अच्छा !   अब चित्र दिखा और जा........श्री राधा सोयेंगी ।

ललिता नें फिर  समझा कर कहा  ।

अच्छा देखो ................ये मैने बनाया है  उस नन्द के छोरे का चित्र ।

मटकती हुयी  बोली  चित्रा......और  श्रीराधा के सामनें रख दिया  चित्र ।

ये ?    इसे मैं जानती हूँ ....   ओह ! कितना सुन्दर है  ये !        मेरा हृदय  खींच रहा है  ये तो .......श्रीराधा  फिर  उन्माद से भर गयीं .......नेत्रों से अश्रु फिर बहनें लगे ..........ये  मेरे हृदय  को चीर रहा है ..........मेरे हृदय में  ये   अपनी जगह बना रहा है .......कौन है  ये  ?         श्रीराधा  चीत्कार कर  उठीं । 

अपनें आपको सम्भालो  हे राधे !   विशाखा सखी आगे आईँ ...........सम्भालो  अपनें आपको ...............

कुछ देर के लिए शान्त हुयीं   श्रीराधा ......पर    .......

विशाखा  !  मैं तो आर्य कन्या हूँ ना  !       मुझे तो एक ही  के प्रति   प्रेम होना चाहिए ना !      तभी तो  मैं  !   पर  ये राधा तो  बिगड़ रही है .......देखो !  कृष्ण नाम सुना  तो  मैं   पागल सी हो  गयी .........और  फिर इस  दूसरे  का चित्र देखा  तो   मैं  फिर उन्मादी हो उठी .......ये गलत है .........ये ठीक नही है ..........मैं  तो पतिव्रता  कीर्तिरानी की पुत्री हूँ ना .....फिर ऐसे मेरा मन   दो दो पुरुषों में कैसे चला गया ......धिक्कार है मुझे......ये गलत हो रहा है मेरे साथ.........नही नही ।

चित्रा सखी  समझ गयी.......अन्य सखियाँ  भी समझ गयी ......कि  "कृष्ण नाम" से प्रेम हुआ   राधा का ......फिर इस चित्र के  "नन्दनन्दन" से भी प्रेम हो गया.......जिसे गलत मान रही हैं  श्रीराधा रानी  ।

ताली बजाकर हँसीं  सब सखियाँ .........आप  गलत कैसे हो सकती हो ....आप गलत  हो ही नही ........अरी मेरी भोरी राधे !    जिनका चित्र आपनें देखा है ..............यही तो कृष्ण हैं .............इन्हीं का नाम कृष्ण है ..........इसलिये आप ऐसा मत सोचो की  आप  दो अलग अलग व्यक्तियों  से प्रेम कर  बैठी हो ........कृष्ण इन्हीं का नाम है  ।

इतना सुनते ही ..........चित्रा के हाथों  से उस चित्र को लेकर  श्रीराधा नें अपनें हृदय से लगा लिया .........और  आनन्दित हो उठीं   ।

हे  वज्रनाभ !   प्रेम  की गति टेढ़ी है .............इसे तुम सीधी चाल नही चला सकते .............ये है ही  प्रेम ...............ओह !    

अभी मिलन नही हुआ है .......अभी  श्रीराधा रानी  नें  देखा नही ...कृष्ण को ........पर नाम सुनते ही .........चित्र में  देखते ही प्रेम  उछलनें लगा ........आल्हाद ........यानि  "आनन्द की हद्द"   ..............

सुनो  सुनो !  वज्रनाभ !   एक बात और  सुनो.........महर्षि शाण्डिल्य बोले .......प्रेमी रोते हैं ......पछाड़ खाते हैं .........चीखते हैं   चिल्लाते हैं .....तो ऐसा मत सोचना कि  ये बेचारे हैं......इन्हें  कष्ट हो रहा है .....नही .......ये तो आनन्द की हद्द में  जी रहे हैं......अरे ! "बेचारे" तो वे हैं  .....जिन्हें  प्रेम की एक छींट भी अभी तक नही पड़ी  ।

"प्यारी ही को रूप मानों प्यास ही को रूप है"

शेष चरित्र कल .......

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