आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 135 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
त्रिजटा चल ! त्रिजटा की माँ "सरमा"दौड़ी दौड़ी आयी ।
क्या हुआ माँ ! इतनी घबड़ाई हुयी क्यों हो ?
त्रिजटा नें पूछा । ......मैं भी घबडा गयी थी ........।
रावण यज्ञ कर रहा है ........और उसका यज्ञ अगर सफल हो गया तो वो एक कल्प के लिये अजेय हो जाएगा ........फिर उसे कोई नही मार सकता .............सरमा नें कहा ।
ओह ! त्रिजटा घबड़ाई .......मैं भी घबडा रही थी ............।
चल ......चल त्रिजटा !
मेरी एक सेविका नें मुझे ये गुप्त सूचना दी है कि रावण का यज्ञ भंग करनें के लिये.......कुछ विशेष वानर अंगदादि चल पड़े हैं .......पर त्रिजटा ! उनके साथ तुम्हारे पिता जी नही है .......रावण का गुप्त पूजागृह किसी को नही पता .........मुझे कहा है ......कि मैं उन वानरादिओं का मार्गदर्शन करूँ......पर मुझ अकेली से कैसे होगा .......तू भी चल ।
त्रिजटा मेरी ओर मुड़ी .........रामप्रिया ! तुम सावधान रहना बस मैं जाकर आती हूँ ..............मैने त्रिजटा को गले से लगाया ........मैं ठीक हूँ .......तुम जाओ !
वो दोनों भागे......क्यों की अंगदादि निकल चुके थे रावण का यज्ञ भंग करनें के लिए .......पर उन सबको वो गुप्त स्थान पता नही था ।
********************************************************
त्रिजटा नें आकर मुझे जो बताया -
रामप्रिया ! मन्दोदरी को पता नही चलना चाहिए था .........कि हम लोग श्रीराम की सहायता कर रहे हैं .................।
वानर प्रवेश कर चुके थे .................
मैने धीरे से "जय श्रीराम" की आवाज लगाई ...............अंगद नें हमें देख लिया ................तो हमारी ओर ही बढ़ें वो लोग ।
मन्दोदरी नें मेरी माँ की ओर देखा था ........मेरी माँ नें हँसते हुये कहा .......उधर की सेना यही नारे लगाती है ना। !
बड़े ध्यान से हमें देख रही थीं मन्दोदरी ।
तभी ..............अंगद आये ............वो महल की ओर ही छुपे थे ....
मेरी माँ नें इशारे से कहा ...............सामनें वाला द्वार ..........।
अंगद के पीछे सुग्रीव और नल नील सब दौड़े ......
एक ही लात से द्वार तोड़ दिया था .............
रावण यज्ञ कर रहा है ...................वो अविचलित होकर एकाग्रता से यज्ञ कर रहा है ........मन्त्र पढ़े जा रहा है ।
मन्दोदरी भागी पूजा गृह की ओर ................कुछ अन्य रावण की रानियाँ भी भागी ......रामप्रिया ! ये सब देखकर मैं और मेरी माँ भी गयीं वहाँ ।
अंगद केश खींच रहा था रावण के ................पर रावण फिर भी विचलित नही हुआ ....मन्त्र पढ़ता ही रहा ।
सुग्रीव नें एक लात मारी रावण गिर गया ...............पर फिर सम्भलकर यज्ञ करनें लगा था ।
रामप्रिया ! स्रुवा हाथ से खींच कर तोड़ दिया नल नील नें ।
यज्ञ कुण्ड में जल डाल दिया ......यज्ञ कुण्ड जल से ही भर दिया .... रावण फिर भी मन्त्र पढ़ता रहा ......उसे लग रहा था कि आहुति नही तो क्या हुआ मन्त्र का जाप ही कर लूँ ।
पर जब देखा अंगद नें कि रावण विचलित नही हो रहा ......तो मन्दोदरी को पकड़ लिया अंगद नें .......नाक कान काटूँगा ..........कहकर तलवार दिखानें लगा ..............
मन्दोदरी चिल्लाई ।.........रामप्रिया ! मेरी माँ भी चिल्लाई ....और मैं भी .............मेरी माँ तो खूब बोली ...........हे राक्षसराज ! आपके होते हुए लंका की महारानी कुरूप हो रही हैं ......धिक्कार है आपको ...........
मैं भी चिल्लाई ......आप क्या कर रहे हैं ! .........ये सब वानर हम नारियों को पकड़ रहे हैं .......नाक कान काट रहे हैं ......आपकी असीम शक्ति कब काम आएगी ....राक्षसेन्द्र !
तब रावण उठा .............चिल्लाया ....................और इतनी जोर से चिल्लाया था कि .............लंका में भूकम्प आगया ऐसा लगा ।
तब अंगद आदि सब वानर भागे ............भागनें ही थे उनका उद्देश्य जो पूरा हो गया था ।
त्रिजटा के मुख से ये सब सुनकर मैने पूछा......रावण कहाँ गया फिर ?
वो समर भूमि गया.........वो रथ में बैठकर गया है युद्ध करनें ।
तभी मैने देखा आकाश से एक दिव्य रथ उतर रहा है .........
मैनें त्रिजटा से पूछा .......ये क्या ? ये किसका रथ है ?
त्रिजटा नें ध्यान से देखा ...............मातलि ! त्रिजटा बोली ।
ये मातलि कौन है ?
रामप्रिया ! इन्द्र का सारथि ...........मातलि ।
ओह !
त्रिजटा समझ गयी थी .........बोली - रामप्रिया ! देवता श्रीराम का साथ दे रहे हैं .........देना ही चाहिए .......बहुत दुःख कष्ट दिए हैं इनको रावण नें .............आज देखो ............इन्द्र नें अपना रथ श्रीराम के लिए भेज दिया है ................।
देवता हमसे बड़े हैं.......ये कहते हुये मैने अपनें दोनों हाथ जोड़ लिए थे ।
कुछ देर बाद बोली त्रिजटा ......श्रीराम नें भी परिक्रमा की इन्द्र के रथ की और उस पर विराजें हैं ......।
मेरा बायाँ अंग फड़कनें लगा था .........मुझे शुभ मंगल सगुन होनें शुरू हो गए थे...........मैं प्रसन्न हो गयी थी ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
0 Comments