वैदेही की आत्मकथा - भाग 134

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 134 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

त्रिजटा !  आज युद्ध नही हो रहा ?    

मैने जब  कोई  भेरी या दुन्दुभी की आवाज नही सुनी ......तो पूछ लिया ।

नही ..........आज  रावण   गया है  सुतल लोक  .........त्रिजटा नें कहा ।

सुतल लोक क्यों ? 

दैत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रार्थना करनें ...............।

मैं  सोच में पड़ गयी थी ..........पर त्रिजटा नें ही मेरा समाधान किया  ।

मृतसंजीवनी विद्या  उन्हीं को ही आती है ..........और रावण  उस विद्या का प्रयोग करवा के   राक्षसों को जीवित रखना चाहता था ।

त्रिजटा  नें  बताया ...........गुरु शुक्राचार्य नें  रावण की बातें  माननें से मना कर दिया है   ।

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क्यों आये हो  तुम दशानन ?   

ध्यान से उठे ही थे गुरु शुक्राचार्य  तो सामनें  रावण को बैठे देखा ।

आचार्य !  आप जैसे सदगुरु के होते   रावण की ये दुर्दशा  ? 

"तुम स्वयं  जिम्मेवार हो   अपनी इस दुर्दशा के" 

........शुक्राचार्य नें दो टूक कह दिया था  ।

परस्त्री का हरण !          शुक्राचार्य  इस बात से दुःखी थे  ।

आहत रावण नें बात को सम्भालते हुये कहा ...............पर मेरी बहन को भी तो विरूप किया  राम नें  !

गुरु शुक्राचार्य  बहस करनें के मूड में आज नही हैं .........।

मुझ से क्या अपेक्षा लेके आये हो  रावण ? 

आप मृतसंजीवनी का प्रयोग करें ........और मैं अगर मर भी गया तो मुझे पुनर्जीवन प्रदान करें  !   रावण  का निश्चय विचलित हो गया था ।

पर  महान नीतिज्ञ शुक्राचार्य को  द्रवित कर पाना इतना सरल तो नही ! 

रावण !    मैं मात्र अपनें शिष्यों पर ही  इस मृतसंजीवनी विद्या का प्रयोग करता हूँ ..........और तुम मेरे शिष्य नही हो  !  

मुझे बना लीजिये ना अपना शिष्य  !    
रावण  शुक्राचार्य के पैरों में गिरकर  गिड़गिड़ानें लगा था  ।

शिष्य बनानें के  भी कुछ मापदण्ड होते हैं  रावण !......तुम उस में खरे नही उतरते .......इसलिये ............इससे ज्यादा बोलकर रावण का अपमान करना  शुक्राचार्य को भी अच्छा नही लगा  ।

तो क्या मुझे यहाँ से निराश होकर जाना पड़ेगा  ? 

रावण  क्या कहता  !

कुछ विचार कर  शुक्राचार्य नें कहा ...........तुम मेरे मित्र विश्वश्रवा के पुत्र हो  इसलिये  मैं तुम्हे निराश नही करूँगा .............चलो !   

रावण को  एकान्त में ले जाकर   एक मन्त्र दिया  दैत्यगुरु नें ......

रावण !  इस मन्त्र की  दस हजार आहुति  दो....तुम अजेय हो जाओगे ।

रावण खुश हो गया ...........और  सुतल लोक से शीघ्र ही   मन्त्र की आहुति देनें के लिये  अपनी लंका पुरी में आगया था ।

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हे रामप्रिया !     देवता परेशान हैं ................त्रिजटा नें कहा ।

पर क्यों ?      क्या मेरे श्रीराम के विजय पर उन्हें कोई सन्देह है ?

जो भी हो........पर  देवताओं नें जब  देखा   रावण   दैत्यगुरु शुक्राचार्य से मन्त्र प्राप्त कर  यज्ञ में बैठ चुका है .......तब  से देवता परेशान हैं .......और    सब मिलकर  गए हैं  महर्षि अगत्स्य के पास  ।

फिर ?      मैने त्रिजटा से पूछा ।

कुछ देर  वो  देखती रही ......शून्य में ..........फिर बोली त्रिजटा ।

रामप्रिया !     महर्षि अगत्स्य नें  देवताओं की  बातें मान लीं हैं .......और देवों के साथ   लंका की ओर  आरहे हैं  ।

आकाश में ...........देखो  !  रामप्रिया देखो ! 

त्रिजटा मुझे आकाश में दिखा रही थी ........मैने देखा ......सुरों के साथ  महर्षि अगस्त  -   उठकर मैने प्रणाम भी किया   ।

रामप्रिया !      श्रीराम के पास उतरें हैं    महर्षि अगस्त ............उनके पीछे  देवता भी हैं  ।

श्रीराम नें प्रणाम किया है  महर्षि को .........।

हे राम !      मैं  आपको  कुछ मन्त्र देनें आया हूँ ............ये मन्त्र अत्यंत गुह्य है ....यानि   गुप्त है .................ये  शत्रु विनाशक है ..........ये परमकल्याणकारी है .............इसका प्रभाव  कल नही  आज ही होता है .....तुरन्त ..............इसको कोई भी कर सकता है ........।

ये  स्त्रोत्र है   राम !     भगवान सूर्य ......जो देवता और असुर दोनों के ही वन्दनीय हैं ..........उन भगवान आदित्य  का ये स्तोत्र है  ।

ये स्त्रोत्र    सर्वमंगल कारी ............सर्व अनिष्ट हारी..........आयु दाता ..गुण वर्धक ......और    शुभ परिणाम देनें वाला है  ।

हे राम !      भगवान सूर्य   निशा निवर्तक हैं..........इसलिये ये  स्त्रोत्र  निशाचरों का संहारक है ............आप इस स्तोत्र को धारण करें ।

इतना कहकर    उस "आदित्य हृदय स्तोत्र" को   महर्षि अगत्स्य नें  श्रीराम को दिया .......।

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( साधकों !  आज से 18 वर्ष पहले  मैं भी  किसी  अज्ञात भय से ग्रस्त था  , मुझे एक अच्छे सिद्ध महात्मा नें  सलाह दी थी कि  "आदित्य हृदय स्त्रोत्र" का पाठ करो...........मैने किया   तो मुझे तुरन्त लाभ हुआ ।
आप भी इसका पाठ करें...सर्वबाधा से मुक्त होंगें  ये मेरा विश्वास है ।
ये गीताप्रेस (  गोरखपुर )  में भी प्राप्त है ,   वाल्मीकिरामायण के लंका काण्ड का  ये स्त्रोत्र है ) 

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श्रीराम नें "आदित्य हृदय स्तोत्र" को पाकर  .....महर्षि अगस्त्य को प्रणाम किया ........महर्षि और सुर  चले गए  थे  ।

श्रीराम ,  प्रातः के समय    सागर किनारे आचमन करके बैठे ....भगवान सूर्य नारायण की ओर मुख करके  उस स्तोत्र का पाठ करनें लगे थे ।

तीन बार ही पाठ किया था  कि .......सूर्य की रश्मियों से आवाज आनें लगी थी ..........".शीघ्र  शत्रु का वध करो ......शीघ्र शत्रु का वध करो "

आचमन करके  सूर्य को प्रणाम करके ...श्रीराम नें  धनुष को उठाया...।

उस समय श्रीराम का मुखमण्डल सूर्य के समान ही अत्यन्त तेजपूर्ण था।

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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