वैदेही की आत्मकथा - 133

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - 133 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

मेरी मूर्च्छा जब खुली  तब  त्रिजटा अपनी माता "सरमा" से बातें कर रही थी ......माँ !     रावण को मूर्छित कर दिया  आज श्रीराम नें ।

तब उसका  सारथि  उसे लेकर  पुरी में आगया था ...........बहुत क्रोध किया  सारथि पर  रावण नें.........।

"सीता राक्षसी है ......सीता पिशाचिनी है .......सीता चामुण्डा है"

ओह !  ये आवाज कहाँ से आरही है ...........मैं सुन तो रही थी  ......पर मैं समझ नही पा रही थी कि -  हो क्या रहा है ।

मैं  देख रही थी ...............

घबडाकर  त्रिजटा और सरमा उठीं ......और  चारों ओर देखनें लगीं  ।

ओह !    लगता है  लंका की नारियाँ  बाहर निकल आई  हैं ..........

वो देख रही थीं ...........लंका  पुरी के मार्गों में  अपनें केशों को खोलकर दहाड़ मारमार कर  छाती पीट रही थीं ।

पूरी लंका की यही स्थिति थी.............ये क्रन्दन बढ़ता ही जा रहा था .........लग रहा था  कि   लंका की सारी नारियाँ  अशोकवाटिका की ओर ही बढ़ रही हैं  ।

"ये सीता खा गयी   हमारे परिवार को ................

कुम्भकर्ण को खा गयी .........मेघनाद को खा गयी ........हमारे  पति पुत्र सब को खा गयी ......ये    दशानन को भी चबा जायेगी ........।

जिसके जो मन में आरहा है...  मेरे लिए बोलती जा रही थीं  ।

त्रिजटा घबड़ाई हुयी  कभी मेरी ओर देखती..........पर मेरे नेत्र बन्द थे ......तो उसे लग रहा था  कि मैं  शायद मूर्च्छा अवस्था में ही हूँ   ।

माँ !      आप लंका की महारानी बननें जा रही हैं .......और ये सब इन महाकरुणामूर्ति  रामप्रिया के कारण ही है ...........इसलिये आप सम्मान करें माँ ! इनका ..........इनको कुछ नही होना चाहिये ..........त्रिजटा बोल रही थी  अपनी माँ सरमा से   ।

पर पुत्री !    इन्हें क्या हो गया है !   ये इतनी  विकल क्यों हो रही हैं !

इन्हें तो प्रसन्न होना चाहिये कि........इनके श्रीराम  विजयी हो रहे हैं  ।

अपनी माँ सरमा के प्रश्न का उत्तर देनें से पहले   त्रिजटा नें मेरी ओर देखा ..........ये कोई साधारण नारी हैं  ? 

माँ ! आपको क्या लगता है  ये  कोई सामान्य स्त्री हैं ...........

नही माँ !   ये    ब्रह्म की शक्ति हैं .......आदिशक्ति .............और इनका जन्म माँ  !  पृथ्वी से ही हुआ है ......ये भूमिजा हैं .............।

और आज ?       आज माँ !   विश्व् की सम्पूर्ण "ममता" इनमें मूर्तिमती हो गयी है ..........इनमें आज 'वात्सल्य" नें आकार ले लिया है ...........ये स्वयं ही वात्सल्यमयी बन गयी हैं  ।

तभी तो    शत्रु की पराजय पर भी ये  विलाप करती हैं ............

जिस रावण नें   इन्हें   कष्ट पर कष्ट दिए .......अपनें प्राणधन से विलग किया  उसके प्रति भी    ये   दया और करुणा से भर गयी हैं ।

माँ !   सृष्टि में इनके जितनी करुणा  शायद ही किसी में हो .........

ये कृपा की राशि हैं ...........कितनी मृदुता है इनमें माँ !     दयालुता तो इनमें कूट कूट के भरी है  ।

माँ !  इनके चरणों में देखा है आपनें  ?

त्रिजटा  अपनी माँ सरमा को बता रही थी ...........वो मेरे पास अपनी माता को लेकर भी आयी...........देखो माँ !   इनके चरण ....भगवान नारायण की  शक्ति लक्ष्मी के चरणों में जो चिन्ह हैं ......वही चिन्ह इनके चरणों में भी हैं ........माँ !  देखो !      माँ ! इनके  चरणों  में प्रणाम करो ......इनके पग धूल को अपनें मस्तक से लगाओ ...........।

माँ !  मैं  समझ गयी हूँ .........ये हम सबका मंगल करनें आयी हैं ।

पर माँ ! आप महारानी बन जाना .........पिता जी  लंकेश हो ही जाएँगे ।

पर मैं इनके साथ जाऊँगी .......अब  मैं इन्हें नही छोड़ सकती  ।

पर पुत्री त्रिजटा !  ये नही ले गयीं तो तुझे  अपनें साथ ? 

रो गयी त्रिजटा .........माँ !   मैं अपनें प्राण समुद्र में कूद कर त्याग दूंगी .....पर अब इनके बिना मैं रह नही सकती  ।

तभी   कुछ राक्षसियाँ अशोक वाटिका में घुस गयी थीं .........

करालिका है  सीता !         कहाँ है  ?    

सरमा और त्रिजटा  आगे बढ़ीं........और   ये दोनों ही चिल्लानें लगीं  ।

तुम लोग समझ क्यों नही रहीं...........रावण के पापों का फल हम लंका वासी भुगत रहे हैं ............तुम एक   निर्दोष नारी सीता को दोष दे रही हो .......रावण नें  इनका अपमान किया ............जिसका फल  तुम सबके सामने है ..............और अब तुम लोग भी ऐसा करोगी  तो  उसका फल क्या होगा  !     त्रिजटा चिल्लाकर बोल रही थी .......वो इतना चिल्ला रही थी कि उसके गले की नसें फूल रही थीं  ।

तुम लोग अभी भी क्यों नही समझ रही हो  !  

उन्मादिनी सी हो गयी थी त्रिजटा मेरे लिए  ।

सबको  समझा दिया था त्रिजटा नें.......सबको वापस भी भेज  दिया ।

सही तो कह रही थीं  बेचारी  लंका वासिनी .....ये नारियाँ  ।

मैने त्रिजटा को अपनें पास शान्ति से बैठा पाया तो  पूछ लिया ।

तुम लोग इन्हें राक्षसी कहती हो........राक्षसी तो मैं हूँ..........
मुझे क्यों बचाया त्रिजटा तुमनें  ?       

सरमा  नें  मुझे  थपथपी देकर सम्भाला ..............।

कान में फुसफुसाकर  अपनी माँ से  बोली थी त्रिजटा .............रामप्रिया  की सुरक्षा अब    हमें स्वयं देखनी होगी   ...........लंका  अब अराजक हो चला है .......रावण भी  कब काल के गाल में चला जाए क्या पता !    

अब वही तो बच गया है  ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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