वैदेही की आत्मकथा - भाग 132

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 132 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !  

मुझे उस दिन बहुत रोना आया .......मैं पूरा दिन अशोकउद्यान में बैठी बैठी  रोती ही रही ..........."सुलोचना सती हो गयी"  ।

मेरे कारण...............बेचारी  छोटी ही तो थी ...............तू  अशुभा है सीता .......हाँ ........ये सब तेरे कारण ही तो हो रहा है  ।

मुझे क्रन्दन करते हुए  सुनकर ....................त्रिजटा तो आई ........उसनें मुझे बहुत समझाया ..........पर  मेरा विलाप रुक ही नही रहा था  ।

उसकी माता "सरमा"   भी आगयी ..................

मै  विभीषण की पत्नी और त्रिजटा की माँ सरमा के गले से लग गयी थी ।

हाय ! वो भोली सुलोचना ........वो सती हो गयी ........ कारण मैं ही तो हूँ .......उस बेचारी सुलोचना को .......अग्नि की ज्वाला में बैठकर दग्ध होना पड़ा ........मेरे कारण  ।

मैं उस दिन रोते रोते मूर्छित ही हो गयी थी  ।

जब मेरी मूर्च्छा टूटी   तब मैने  सामनें  त्रिजटा को ही पाया .......उसे ही मैने अपनें हृदय से लगा लिया था .......पर  फिर मेरे अश्रु फूट पड़े ।

सखी !      पता है   मेरा जब से विवाह हुआ है   प्राणनाथ श्रीराम से,  तब से   इन्हें दुःख ही मिलता रहा है ....................

हाय सखी !  मैं क्या बताऊँ  ........ये सीता  अभागन है ...........अभाग्य मेरा कभी पीछा नही छोड़ेगा  ....मैं जहाँ जाती है ........दुर्दैव  वहीं  विपत्ति और  विनाश को बुला लेता है ...............

मैं  बस  रोये जा रही थी .......................

सखी ! पता है      मैं जब विवाह करके अयोध्या में आयी ....तभी मेरे श्रीराम को वनवास में जाना पड़ा ............मैं जहाँ गयी  वो स्थान ही उजड़ गया ...........मैं पंचवटी में आई  तो पंचवटी में रह रहे  खरदूषण मैने सुना उसका पूरा परिवार ही खतम हो गया ...........।

सखी !      मैं  हिलकियों से रो रही थी  और त्रिजटा को बताये जा आरही थी .......मैं यहाँ आई लंका में ...........ओह ! कोमल चरण हैं मेरे श्रीराम के ..........वो कोमल  चरण आज  बाणों से विंध रहे हैं .....किसके कारण ......मेरे कारण,  इस  अशुभा सीता के कारण  ।

मैं आई लंका में,    तब से  सब मर ही तो रहे हैं ......................

रोते रोते   मैं लम्बी साँस  लेनें लगी थी .....।

त्रिजटा नें मुझे  सम्भाला ............आप ऐसे क्यों करती  हैं  ।

ये तो आपकी  महानता है  कि  शत्रु के नाश पर भी आप  आँसू बहा रही हैं ............रावण का नाश हो रहा है .......और आप इसी बात पर दुःखी हैं ...............त्रिजटा मुझे कहनें लगी थी  ।

आप कहीं  जगत्जननी भगवती तो नही हैं ...........?

क्यों की  उनमें ही इतनी करुणा दिखाई देती है .............

आप सर्प बिच्छु  काँटें इनकी भी रक्षा होनी चाहिए  ऐसी पवित्र सोच वाली हैं .............त्रिजटा  मेरी महिमा गा रही थी ....पर मुझे ये सब अच्छा नही लग रहा था ..............।

आप  मणि हैं     ......रामप्रिया ! आप एक अनमोल रत्न  हैं .......।

मैं रत्न हूँ  ?      मैने त्रिजटा की ओर देखा ।

हाँ तू कहती है तो  मैं रत्न ही होंगीं .......रत्न एक पत्थर ही तो होता है ना ....चमकीला पत्थर ........हाँ मैं पत्थर हूँ ......मेरा हृदय   पत्थर है  ।

वो बेचारा हनुमान आया था ........मुझे  अम्बा कहता  था .............मुझे बहुत अच्छा लगता है   उसका अम्बा कहना .........

पर उसके साथ भी क्या हुआ ...........उसकी पूँछ जलाई गयी .........आग लगा दी उसके पूँछ में ................

सब मेरे कारण हो रहा है ...................

और और  त्रिजटा !   मेरे स्वामी श्रीराम का शरीर कितना कोमल है .....अत्यन्त कोमल .....असंख्य बाण लगते होंगें ना। उसमें .....ओह !

त्रिजटा !  मैं मर जाती तो ठीक होता ना ..........................

मुझे मर ही जाना चाहिये  था ....................

त्रिजटा नें मुझे बताया  ये सब कहते हुए  मैं मूर्छित हो गयी थी  ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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