आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 131 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
दशानन अशोकवाटिका से सीधे गया था अपनें महल में ........पर वहाँ जाकर ऐसे अपनें आसन में बैठा, जैसे बहुत थक गया हो ........।
पुत्रवधू आई है ..............मन्दोदरी नें सूचना दी ।
क्या ? वो घबडाया उठा......और इधर उधर देखनें लगा था ।
मुझे ये सारी बातें त्रिजटा ही बता रही थी ।
पूर्ण श्रृंगार में .........लाल वस्त्र पहनें ............सुलोचना ।
शान्त मुख मण्डल ..............मानों स्वर्ग की कोई देवी पृथ्वी में उतर आयी हो ।
पिता श्री ! मुझे सूचना प्राप्त हो गयी है ...........धड़ मेरे स्वामी का यहाँ है .....पर मस्तक कहाँ है ?
रावण फूट फूट कर रोया ........वो कुछ बोलनें की स्थिति में नही था ।
"रावण अपराधी है ........रावण नें ही तुम्हारा सुहाग उजाडा है" इतना ही बोला ।
पिता जी ! अब मैं किसी को दोष देनें की स्थिति में नही हूँ .........न मैं किसी को दोष दूंगी .........क्यों दूँ ! मेरे स्वामी वीरगति को प्राप्त हुए हैं .......और अब मैं उनके साथ सती होनें जा रही हूँ ।
स्पष्ट शब्दों में सुलोचना बोल रही थीं ।
नही ...........तुम सती मत हो.........रावण नें एक बार कहा .......पर सुलोचना का मुखमण्डल जिस तरह तेजोमय हो गया था .....उसको देखते ही वो आगे कुछ बोल न सका ।
पिताश्री ! मुझे - मस्तक कहाँ है ये बताइये ।
अब रावण में इतनी हिम्मत भी नही रही कि वो कह सके .......मैं राम के पास जाता हूँ ......और अपनी शक्ति के दम पर मेघनाद का मस्तक लेकर आता हूँ ।
रावण इतना ही बोला ............मैं चलता हूँ ...........।
सुलोचना नें अपना हाथ ऊपर किया ..............और कहा ....नही आप नही .........मैं जाऊँगी ..........जहाँ मेरे स्वामी का मस्तक है ....मैं स्वयं माँग कर लाऊँगी ................बस आप पिताश्री ! इतना बता दीजिये कि किसके पास है मेरे स्वामी का मस्तक ।
"राम के पास'...........रावण इतना ही बोल सका ।
पिताश्री ! मैं जा रही हूँ ..................पर तुम अकेली ?
अब मेरे लिए क्या अकेला ?
पर कुछ अंगरक्षिकाओं को तो ले जाओ , अपनें साथ !
नही .............स्पष्ट मना कर धरती में अपना मस्तक रख प्रणाम किया रावण को ..........और चल दी ।
वहाँ तुम्हारे स्वसुर विभीषण भी हैं .........रावण बोला ।
सुलोचना शान्त भाव से चलती गयी .........सुलोचना के चलनें के कारण उसके पैर में लगे लाल महावर जमीन में लग रहे थे ........
रावण नें धरती में अपनें हाथ से उन महावर को लिया और अपनें मस्तक में लगा लिया था ........महासती से बड़ा कौन ?
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"कोई नारी लाल वस्त्रों में सजी धजी......प्रभु ! ऐसा लग रहा है जैसे स्वर्ग से कोई देवी उतरी हो" .....नल नील नें आकर सूचना दी , प्रभु श्री राम को ।
कौन होगा विभीषण ?
श्रीराम नें मेरे पिता विभीषण की ओर देखा था ।
"मैं देखता हूँ'............इतना कहते हुए मेरे पिता विभीषण गए ।
त्रिजटा आज गम्भीर है .........
...मैं भी सुलोचना के प्रति आदर से भर गयी थी ।
ओह ! पुत्रवधू सुलोचना ! चौंक गए थे विभीषण ।
धरती में अपना मस्तक रखकर प्रणाम किया सुलोचना नें .......
लाल जोड़े में ........सोलह श्रृंगार से सजी...... पतिव्रता सुलोचना किसी देवी से भला कम कैसे हो सकती है ..........।
मैं किसी को दोष देनें नही आई हूँ ......पिता जी ! मुझे श्रीराम से मिलना है ! आप मुझे मिला दीजिये ।
वाणी में इतना ओज था कि मेरे पिता उसे आदर के साथ ले गए श्रीराम के पास ।
श्रीराम सुलोचना को देखते ही उठकर खड़े हो गए थे ।
मैं दाशरथी राम , हे महासती ! आपको प्रणाम करता हूँ ।
"आप धर्मज्ञ है .....हे राम ! आप धर्म के तत्व को समझते हैं ....मैं सती होनें के लिए आपसे अपनें स्वामी का मस्तक माँगनें आई हूँ .......मुझे मेरे स्वामी का मस्तक दीजिये" ....शान्त भाव से सुलोचना बोली ।
नही ..........मैं एक महासती के आँचल में कटा हुआ मस्तक कैसे दे दूँ !
नेत्र सजल हो गए थे राजिव नयन के ।
इतना क्रूर नही है राम ............हाँ आप कहो तो मैं जीवित कर सकता हूँ आपके स्वामी को ।
नही नही ................सुलोचना नें मना किया ।
मुझे गर्व है हे राघवेन्द्र ! मेरे स्वामी वीर गति को प्राप्त हुए हैं ......मैं उन्हें जीवित करके ..........फिर पीछे धकेलना नही चाहती ..........।
आप बस मेरे आँचल में ...........इतना कहते ही अपना आँचल फैला दिया सुलोचना नें ।
श्रीराम नें इशारा किया ...........एक स्वच्छ स्थान पर मेघनाद का मस्तक रख दिया था .......सुलोचना वहीं गयी ।
पहले तो उसनें प्रणाम किया, ......फिर अपनी गोद में उस मस्तक को रख लिया ......और शान्त भाव से चलते हुए सागर के किनारे आयी ।
श्रीराम नें सुलोचना को प्रणाम किया था ......।
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सागर के किनारे चिता तैयार.....रावण अभी भी अश्रु ही बहा था ।
बिना इधर उधर देखे .......सुलोचना मेघनाद के मस्तक को लेकर चिता में बैठ गयी .......धड़ मंगवाया ........उस धड़ और मस्तक को इस तरह से रखा सुलोचना नें कि .....लग रहा था .........कुछ अलग नही है ।
मस्तक को अपनी गोद में रखा .....................
शान्त ........स्थिर ..........गम्भीर .....सुलोचना .............
बोली - हे राक्षसराज ! आपनें सच में श्रीराम का नाम पतित पावन सार्थक कर दिया......."राक्षस शान्त हों ....तभी सुखी रहेंगें"
महासती के वाक्य आकाश में गूँज रहे थे ।
दृष्टि उठाई महासती सुलोचना नें भुवन भास्कर की ओर ..........
भुवन भास्कर नें तुरन्त चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी .............
कपूर की तरह .........शुद्ध अग्नि ......बिना धूएँ की अग्नि में चिता जल उठी थी ............पुत्र और पुत्रवधू जल उठे ....रावण नें देखा ।
वो रोता रहा ...रोता रहा .....फिर समुद्र में स्नान के लिए उतर गया था ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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