वैदेही की आत्मकथा - भाग 117

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 117 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

"भक्तवत्सल   श्रीराम की जय"
"शरणागत वत्सल   श्रीराम की जय"
"कृपापारावार  श्री रघुनाथ जी की  जय"

 उस दिन पागलों की  तरह  अशोक वाटिका में हर्षोन्मत्त त्रिजटा उछलती कूदती  मेरे श्रीराम की जय जयकार कर  रही थी.............।

कोई सुन लेगा  त्रिजटा !    ये राक्षस लोग सुन लेंगें,   और  रावण को बता दिया तो ?      

अरे !      कोई नही सुनेगा मेरी  रामप्रिया !      सब डरे हुए हैं .......सागर तट  में  बैठे उन  "वानर सेना" ने   रावण तक को  डरा दिया  है  ।  

इसलिये  अब इन लोगों को ये सब सुननें की फुर्सत नही है.....समझीं मेरी रामप्यारी !  ये कहते हुए  मेरे कपोल को पकड़ लिया था त्रिजटा नें ।

पर हुआ क्या ?       तू बड़ी खुश है ........मेरे श्रीराम का जयजयकार लगाये जा रही है ......मुझे भी तो बता  क्या   हुआ ऐसा  ?

मैने  त्रिजटा से पूछा  था  ।

मैं रावण की सभा में गयी थी ......( त्रिजटा बुद्धिमान है ,  इसलिये  रावण नें  उसको  कहीं भी आने जानें  की स्वतन्त्रता दे रखी  थी  )

पर  तेरे पिता जी को  तो.........?       मैं पूछ रही थी कि  तेरे पिता विभीषण को  तो लंका से निकाल दिया ........उसके बाद भी  तू रावण की सभा में गयी ........और रावण नें कुछ कहा नही  ?

मेरी माता  मेरा भाई  और मैं ......हम  रावण से सम्बन्ध रखनें के पक्ष में नही थे अब ........क्यों की  मेरे पिता का अपमान किया ।

पर   मन्दोदरी आयीं  और  हम लोगों को समझाया .............उसके बाद  अपनें भवन में ले गयीं ......तब रावण हम  लोगों से बोला था  .....विशेष मेरे सिर में हाथ रखते हुए बोला था ........."विभीषण की घटना को तुम लोग  पारिवारिक रूप से मत लेना .......ये मेरी राजनीति है ........और त्रिजटा !  तू   सभा में पहले की तरह ही आना ........और कुछ सलाह देनी हो तो मुझे दे देना ......विभीषण मेरा भाई है ...........पर  मैनें उसे बहुत समझाया  - वो माना नही.....चलो !     पर  तुम लोग  निश्चिन्त होकर  लंका में रहो "

मुझसे  पूछा  रावण नें ...............सीता कैसी है  ? 

ठीक है  ।

......मेरे बारे में कुछ कहती है  ?        

नही .........कुछ नही ..........मैने  इतना ही कहा ......और  अपनी माता और   भाई को लेकर  निकल गयी थी  ।

रावण की सभा में गयी ...........तो     "शुक सारक"  नामक दो राक्षसों को रावण नें मेरे पिता विभीषण के पीछे लगा दिए थे ................वही आये वापस ,   और रावण को  वहाँ की सारी सूचना दी ............मेरे पिता  विभीषण को  "लंकापति" बना दिया  श्रीराम नें .................।

शुक सारक  बोले थे..........राम नें  "लंकेश" कहकर    राज्याभिषेक किया विभीषण का ......................

 सभा में बैठे  सब लोग हँसे ........पर हे रामप्रिया ! मेरे नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे  थे .......ओह !  श्रीराम  इतनें करुणावान हैं   ।

सुना ना ! त्रिजटा !    वो रावण के दूत और क्या बता रहे थे ....  सागर के तट की बात  ?      बता ना  !  

त्रिजटा बतानें लगी थी मुझे ..........

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आप लोग शरणागतवत्सल  श्रीराम  को मेरा ये निवेदन सुना दो ! 

गगन से  मेरे पिता विभीषण नें कहा था .......त्रिजटा नें मुझे बताया ।

सागर के किनारे करोड़ों वानर  फैले हुये थे .........मेरे पिता को  जैसे ही आकाश मार्ग से वहाँ उतरते  हुये देखा  तो   सब  सावधान हो गए ।

वानरराज  सुग्रीव  आगे आये .....और बोले .........कौन हो तुम ?    

शीघ्र बताओ ........नही तो हम  तुम्हे मार देंगें ...........तब मेरे पिता विभीषण नें कहा  था ............

समस्त सृष्टि को  शरण देनें में समर्थ  मेरे श्रीराम को ये मेरा निवेदन  सुना दो ........

मैं   दुर्भाग्य से  लंकापति रावण का अनुज विभीषण हूँ .............जिस रावण नें  उनकी भार्या सीता का हरण किया है .........उसी रावण नें गीधराज जटायू को भी मारा है .....और  अभी भी  लंका में   श्रीमैथिली सीता को बन्दिनी बना कर रखा है........अनीति अत्याचार  जिसका कृत्य है........मैं दुर्भाग्य से उसी  राक्षसराज का छोटा भाई हूँ ।

सुग्रीव  नें पूछा ..........पर तुम क्यों आये हो  यहाँ ? 

रावण से अपमानित होकर ........तिरस्कृत और  निष्कासित होकर  मैं  अनाथों के नाथ, अशरण शरण   श्रीराघवेंद्र की शरण में आया हूँ ......।

आप अभी  नीचे नही उतरेंगे  विभीषण !.......हम आपकी बात  श्रीराम प्रभु तक पहुंचाते हैं ......इतना कहकर  वानरराज  श्रीराम के पास गए ।

प्रभु  !   रावण का भाई विभीषण आया है  !    

क्या !    विभीषण आया है ?     हनुमान चौंके ..................

पर रावण का भाई  क्यों आया ?     और ऐसे समय में  ? 

जामवन्त विचार करनें लगे थे  ।

क्या कह रहा है   विभीषण .........हे वानरराज सुग्रीव ?

मेघगम्भीर वाणी  श्रीराम की गूँजी  ।

वो  आपकी   शरण में आया है .........कह रहा है  कि  रावण नें उसे  तिरस्कृत  और  निष्कासित किया है ............सुग्रीव नें कहा ।

तो तुम क्या कह रहे हो ?    क्या करना चाहिये  हमें  ?

प्रभु !    मेरा कहना तो ये है   कि  इसे अभी  बन्दी बनाकर  रखा जाए .....और जब तक विजय न मिले हमें,   तब तक बन्दी ही बनाकर रखें ......
सुग्रीव नें कहा  ।

शरण में आये हुये को  हम बन्दी बनाएं  ?       प्रभु  बोले ।

सिर झुका लिया सुग्रीव नें ..... .......कुछ बोले नही ।

अरे !  हनुमान !   तुम तो कुछ बोलो  ?

हनुमान से  पूछा  -     क्या करना चाहिए  ?  

हनुमान हँसे .......आपको   सम्मति देनें का साहस तो देवगुरु बृहस्पति में भी नही हैं नाथ !  .......फिर हम वानर लोग आपको  क्या सम्मति देंगे  ?      फिर भी नाथ !  मैं इतना अवश्य कहूँगा      ये विभीषण  छल छिद्र  से रहित  है .......लंका में यही  था  जिसनें मुझे  माँ सीता  का पता बताया .......ये सत्य को सत्य कहनें वाला है ........इससे हमें कोई हानि नही है ................मेरी तो  यही प्रार्थना है कि .................

पर   हनुमान !       शत्रु के भाई पर हम कैसे विश्वास करें  ?

सुग्रीव नें  हनुमान की बात बीच में काटी ..............तो  हनुमान चुप हो गए ........वो बस प्रभु श्रीराम के मुख की ओर ही देख रहे थे ।

सुग्रीव !      आपत्तिग्रस्त होनें पर , अपमानित होनें पर,  दुःखी प्राणी   क्या  देश काल देखकर   शरण्य के पास आएगा ?   

दुःखी व्यक्ति तो  दुःखी है  बस ...........और ऐसे दुःखी को ठुकराना  मुझे नही लगता    उचित होगा  ।

पर ................सुग्रीव  कुछ बोलनें जा रहे थे  ...........श्रीराम नें उन्हें बीच में ही रोक दिया ................

"विभीषण  चाहे दुष्ट हो  या शिष्ट , हम इसे शरण में लेंगे"

........दो टूक मेघगम्भीर   वाणी प्रभु श्रीराम की गूँजी   ।

हनुमान गदगद् हो गए थे    प्रभु का निर्णय सुनकर  ।

पर   ये  शत्रु का भाई है ..............क्या पता रावण ने इसे गुप्तचर बनाकर भेजा हो .........सुग्रीव  अभी भी  शंका कर रहे थे  ।

मित्र सुग्रीव !     ये विभीषण  क्या अहित कर लेगा मेरा ?  

फिर लक्ष्मण की ओर देखते हुए  श्रीराम बोले -    ये मेरा भाई   एक बार  भी अपना क्रोध दिखा देगा ना !....तो पूरी सृष्टि भस्म हो जायेगी  ।

शरणागतवत्सल की करुणा आज प्रकट हो रही थी .........

मेरा प्रण है सुग्रीव !  मेरी शरण में कोई भी आये .......उच्च या निम्न  कोई भी ......गुण देखकर तो शरण में नही लिया जाता ना  ? 

अरे !  सुग्रीव !  ये तो रावण का भाई है .......अगर कल रावण भी मेरी शरण में आजाये .....तो मैं उसे भी शरण में ले लूंगा ..........

जैसे ही इतना कहा ...............हनुमान जी   जोर से चिल्ला उठे ...

       "शरणागत वत्सल  श्रीराम की  जय हो "

समस्त वानर समाज  जयजयकार करनें लगा  ।

विभीषण    आये ...................आकाश से उतरे नीचे ........

और  प्रभु श्रीराम के चरणों में साष्टांग लेट गए ..........

नाथ !     मैं  अधम विभीषण  आपका सुयश सुनकर आया हूँ.......नाथ !  आप मुझे शरण में ले लीजिये ........पाहि पाहि  ।

श्रीराम नें  जैसे ही देखा  विभीषण को .......वो करुणासिन्धु  राघव  दौड़े.........और  अपने हृदय से लगा लिया  विभीषण को  ........

हे लंकेश !     आप हमारे मित्र है आज से   ।

प्रभु की वाणी .........सब स्तब्ध हो गए ........लंकेश ?  

एक दूसरे के मुख में देखनें लगे  थे   सब ......प्रभु नें विभीषण को  "लंकेश" कहा ............

हनुमान नें आगे बढ़कर पूछा ......नाथ !  ये लंकेश नही हैं ...........लंकापति तो रावण है ...............।

नही  हनुमान !   रावण तो  जा रहा है .........लंकापति अब यही बनेंगें ।

पर     आपनें अभी कहा .........रावण भी आगया तो   उसे भी शरण में ले लूंगा ........और ये दृश्य देखकर तो पक्का विश्वास होगया है हम   सबको .......कि  रावण  भी आपकी  शरण में आएगा  तो आप उसे भी शरण में ले लेंगे  ।   

हाँ ..............हाँ   हनुमान !    प्रभु बोले  ।

फिर लंका का राज  ?    लंका का राज  तो आपनें विभीषण  को दे दिया ?

मुस्कुराये श्रीराम ......हनुमान !    याद रखना     विभीषण तो  अब "लंकेश" हो ही गया .........पर रावण अगर मेरी शरण में आजायेगा ना ....तो  मैं उससे कहूँगा -  तू अयोध्या का राज्य ले ले ........मैं रावण को अयोध्या का राज्य दे दूँगा ..और भरत से कहूँगा  जीवन भर हम लोग अब वन में रहेंगें ............।

प्रभु की ये बातें सुनते ही .............सब वानरों के नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे थे ..............विभीषण रो गए थे भाव में ................।

तभी  समुद्र का जल मंगवाकर   मेरे पिता  विभीषण का राज्याभिषेक किया प्रभु नें ...और  विभीषण को  "लंकापति"  कहकर  सम्मान दिया ।

ये बातें  मैने रावण की सभा में सुनी........मैं भाव विभोर हो गयी.......

पर  सब राक्षस लोग हँस रहे थे ...........रावण  पागलों की तरह हँस रहा था .........".राम नें  लंकापति बना दिया विभीषण को"    रावण की हँसी नही रुक रही थी   ।

हे रामप्रिया !   मैं  उस सभा को छोड़कर  आपके पास चली आई ।

मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ ............त्रिजटा ये कहते हुए मेरे गले से  फिर लग गयी थी ................

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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