आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 116 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
त्रिजटा उस दिन उदास थी ........क्यों की रावण की सभा में स्वयं रावण नें ही अपनें छोटे भाई विभीषण का अपमान किया था ..........
बड़े दुःखी मन से त्रिजटा मुझे सभा में घटी घटना सुना रही थी ।
रामप्रिया ! जब कुम्भकर्ण चला गया शयन करनें ......तब उस सभा में मेरे पिता विभीषण ही रह गए थे ................
तात रावण ! आपका ये भाई विभीषण आपसे हाथ जोड़कर कह रहा है .................सीता को लौटा दो .............हे राक्षसेन्द्र !
आपको मैं समझाऊँ ये शोभा नही देता .......आप तो विद्वान हैं भैया !
परायी स्त्री का अपहरण करनें से आयु और यश का नाश होता है ....।
हे राक्षस राज ! आप इनकी बात पर ध्यान न दें ..........आप स्वयं ईश्वर हैं........आप बस आज्ञा दें और चुटकी में ही हम लोग उन वानरों को समुद्र में सदा सदा के लिए सुला देंगें ।
"प्रहस्त" नामक रावण का एक चाटुकार मन्त्री विभीषण की बातों को काटते हुए रावण से बोला था ।
ये आपके चाटुकार ! आपकी लंका और राक्षस समाज का कभी हित नही चाहेंगें.......भैया रावण ! मेरी बात मानिये........इनके कहनें पर मत चलिये ........ये उन राम की सेना के करोड़ों वानरों को मृत्यु की नींद सुलानें की बात करते हैं ........पर ये लोग तब कहाँ थे जब एक वानर पूरी की पूरी लंका जला गया ........तब ये क्यों मौन साधे रहे ।
विभीषण जी आज स्पष्ट बोल रहे थे, निडर होकर ।
हम मानवों से नही डरते..........बल्कि मानव तो हमारे आहार हैं ।
रावण का मन्त्री "प्रहस्त" फिर बोला ।
यहाँ क्या तुम्हे किसी भोगों की कमी है ?
विभीषण नें "प्रहस्त" के बातों की उपेक्षा कर दी ।
फिर रावण की और देखते हुये विभीषण बोले.......तात रावण ! आपको घेरे हुए ये लोग आपके मित्र नही हैं .......यही आपके शत्रु हैं ।
ये चाटुकारिता में इतनें आगे निकल गए - कि ये भी भूल गए हैं कि अपनें स्वामी को होनें वाले महाअनर्थ से बचाना ही चाहिए ..........सेवक वो नही है .......जो स्वामी की हर बात मानें .......अच्छा सेवक वही है .....जो निःश्वार्थ भाव से स्वामी को भी उसकी भूल बताये ।
विभीषण की बातें सुनकर मेघनाद चिल्ला उठा ..............
छोटे चाचा ! आप स्त्रियों की तरह डरपोक क्यों हो ?
कभी कभी तो मुझे लगता है ...............आप का शरीर ही मात्र पुरुष का है ........बाकी मन से , बुद्धि से आप स्त्रैण ही हैं ।
छोटे चाचा ! आपमें न बल है , न पौरुष है ....न तेज़ है ..........आप में है क्या ? विभीषण को अपमानित कर रहा था मेघनाद ।
आप कहते हो ये वानर सेना हम लोगों को मृत्यु का ग्रास बना देगी !
चाचा विभीषण ! ये राम कौन है ? अगर देवों नें भी चालाकी करके, हम लोगों को मारनें के लिए - राम को लाये हैं .......तो मैं भी ऐसा वैसा नही हूँ .......सीधे जाकर देवराज इन्द्र को परास्त करनें की हिम्मत रखता हूँ ......और आप ? वीर परिवार में जन्म लेंने के बाद भी चाचा ! आप डरते हो ।
ये कहते हुये कुछ देर बाद ....अट्टहास करनें लगा था मेघनाद ।
मेघनाद ! तुम मेरे सामनें बालक हो ............मुझे सम्मति देंनें योग्य बुद्धि तुममें है नही ..........तुम जो राय दे रहे हो अपनें पिता को , ये उपयुक्त नही है.........तुम स्वयं विचार करो.........किसी की पत्नी का हरण कहाँ वीर व्यक्ति को शोभा देता है ?
"मैं आपका छोटा भाई हूँ".........रावण की और मुड़े विभीषण , मैं आपके सामनें हाथ जोड़कर ये प्रार्थना कर रहा हूँ भैया ! आप सीता को लौटा दें श्रीराम को.......मेरी इतनी बात मान लें ......भैया रावण ! सीता को ससम्मान धन रत्न मणि इत्यादि देकर श्रीराम को लौटा दें ।
ये सुनकर क्रोध से काँप उठा था रावण ...................वि भी ष ण !
त्रैलोक विजयी रावण एक तपस्वी से डरकर, उसे पत्नी सहित धन धान्य भी देकर सन्धि करे ? क्रोध से अपनें सिंहासन से उठ खड़ा हो गया था रावण ।
भय के मारे सभी मन्त्री सभासद खड़े हो गए ...........लाल आँखों से देख रहा था विभीषण को रावण ।
ये विभीषण ! घर का सर्प है ..........कभी भी सर्प को घर में पालना नही चाहिये .............क्रोध से काँप रहा था रावण ।
मै दशानन रावण एक बात जानता हूँ ............अपनें घर का कोई सदस्य अगर शत्रु से मिला हुआ हो तो उस घर के विनाश में देरी नही लगती ।
ये विभीषण , मेरे शत्रु से मिला हुआ है ......बता ! मिला है की नही ? मेरी लंका में रहता है ....और नाम मेरे शत्रु "राम" का लेता है !
रावण का क्रोध से काँपता रूप देखकर सब डर गए थे ।
भैया रावण ! चाहे आप कुछ भी कहो .......पर आपका हृदय भी यही कहेगा कि मैं गलत नही कह रहा......आपका हित इसी में है....
तो बता वो वानर तुझ से मिला था की नही ? रावण चिल्लाया ।
बता तेनें उस वानर को अशोक वाटिका का पता बताया था की नही ?
विभीषण शान्त भाव से रावण की ओर बढ़ रहे थे .............
ये विभीषण हमारे कुल का कलंक है ...............रावण की आँखें अग्नि उगल रही थीं .............।
विभीषण नें रावण के पैर पकड़ लिए ................भैया ! मेरी बात मानों .....................
रावण फिर चीखा ..........और ये कहते हुये विभीषण की छाती में जोर से अपनें पैर का प्रहार किया......."मुझे तो तुझ कुल द्रोही को पहले हटाना है ........जा ! यहाँ से कुल द्रोही" !
मेरे पिता विभीषण गिर गए .......पर दूसरे ही क्षण वो उठकर आकाश मार्ग से चल पड़े थे श्रीराम की ओर.......उनके साथ चार मन्त्री भी चल दिए थे । हे राम प्रिया ! मैं बहुत उदास हूँ ......क्या श्रीराम मेरे पिता विभीषण को अपना बनायेगें ?
बना लिया है त्रिजटा ! मेरे श्रीराम नें तुम्हारे पिता विभीषण को कब का अपना बना लिया है । और वो तो शरणागत वत्सल भी हैं ........
पर त्रिजटा आज रो रही थी....मैने उसे हृदय से लगाया......सम्भाला ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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