आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 115 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
रामप्रिया ! ए रामबल्लभा ! सुनो ! सुनो ........
त्रिजटा पाँच दिन बाद आयी थी .........पर ऐसे ही चिल्लाती हुई .......मैं पहले तो घबडा गयी .........कहीं कुछ अनिष्ट तो नही हुआ ......पर मैने उसके चेहरे को जब ध्यान से देखा था तब समझ गयी ....ये अति प्रसन्न है ..............।
हाँ क्या हुआ ? त्रिजटा ! बता तो क्या हुआ ?
"श्रीराम की वानर सेना समुद्र के उस पास पहुँच गई है"
क्या ! मैं ख़ुशी से उछल पड़ी थी .........सबसे पहले तो मैने त्रिजटा को अपनें गले से लगाया ........पर तुझे किसनें कहा ?
मैने पूछा ।
अरे रामप्रिया ! मैं रावण के महल में गयी थी .......मेरी माता जी ताई मन्दोदरी के महल में थीं ...........उन्हें बुलानें गई थी ।
वहीं मैने रावण के मुख से ही सुना ................
कह रहा था रावण कि - तपश्वी श्रीराम अपनी वानरों की सेना लेकर समुद्र के किनारे आगया है ।
रावण से ही मैने सुना ..........कि राम जो युद्ध के लिये सेना लेकर चला है ..........उसका मुहूर्त भी अच्छा है ......इस बात को लेकर वो परेशान हो रहा था .............रामप्रिया ! रावण कह रहा था कि मंगल षष्टम् और शनि अष्टम में है ..........और शेष ग्रह उच्च के या स्वग्रही अनुकूल स्थानों में है ........ये "जयद" योग बन रहा है ........इस योग के कारण श्रीराम को विजय प्राप्त होगी .......ये निश्चित है ।
मैं हँसी ............तू बड़ी ज्योतिष की पण्डिता है त्रिजटा !
रावण से ही सीखी है मैनें ज्योतिष विद्या .....त्रिजटा बोली थी ।
क्या रावण ज्योतिष विद्या भी जानता है ? मेरे इस प्रश्न पर त्रिजटा बहुत हँसी .......ज्योतिष ? रावण की अपनी संहिता है ज्योतिष के ऊपर ......और प्रामाणिक है.......ऋषि भृगु नें भी रावण के ज्योतिष का आदर किया है........त्रिजटा और भी कुछ बता रही थी ...पर मुझे नही सुनना अब रावण के बारे में ........मैं आज बहुत प्रसन्न थी .........क्यों की मुझे लेनें के लिये मेरे श्रीराम समुद्र के उस पास आचुके थे ।
और कुछ सूचना है तेरे पास त्रिजटा ? मुझे और सुनना था समुद्र के किनारे मेरे श्रीराम कहाँ रुक रहे हैं.......और उनकी सेना कैसे ठहरी है........त्रिजटा से ये सब मैं जानना चाहती थी ........त्रिजटा नें मुझे बताया भी .......जितनी जानकारी उसके पास थी ।
********************************************************
सागर तट में अब पैर रखनें की जगह भी नही है.........समूचा समुद्र का किनारा वानरों से भर गया था ........।
वानर पूँछ पटक पटक कर गर्जना कर रहे हैं.......बारबार जयनाद कर रहे हैं..........आकाश पूरा गूँज उठता है .....जब करोड़ों वानर एक साथ ..."जय श्रीराम" ......का उदघोष करते हैं ।
आस पास में जो भी वन्य पशु थे वो सब भाग गए वहाँ से .........पक्षी अपनें जलाशय छोड़कर भागे ........क्यों की वानर लोग कूदकूद कर नहा रहे थे उन छोटे छोटे जलाशयों में ।
शिविर लगा लिए गए हैं सागर किनारे ............हे रामप्रिया ! और सेना का दायित्व अभी महाराज सुग्रीव नें नल नील नामक दो वानरों को दिया है .....वही सबकी व्यवस्था देख रहे हैं ..............
त्रिजटा बोले जा रही थी, मैं सुन रही थी .......बड़ी प्रसन्नता से ।
श्रीराम के साथ लक्ष्मण हैं....और वही वानर जो लंका जलाकर गया था.....मैने ही त्रिजटा को बताया....हनुमान , हनुमान नाम है उसका ।
मेरे श्रीराम क्या सोच रहे होंगें ? मेरे कारण वो इतना दुःख पा रहे हैं !
मैं फिर विलाप करनें लगी थी ।
रामप्रिया ! आप ऐसा न सोचें..........पता है ...........श्रीराम उनके साथ लक्ष्मण .......और वही वानर हनुमान ....और महाराज सुग्रीव ........ये सब साथ में ही हैं ।
श्रीराम सचिन्त हो उठे थे .............मेरी सीता का लंका से कब उद्धार होगा ? कब शोक का नाश होगा ......?
भैया ! दशानन के ऊपर आप रोष प्रकट करें ......इतनी ही देरी है ।
आपके रोष से तो ये सम्पूर्ण पृथ्वी ही जल उठेगी......दशानन क्या है !
लक्ष्मण बोल रहे थे ...........भैया ! अब शोक प्रकट करनें का समय नही है ......अब तो उत्साह दिखानें का समय है ...............।
हे रामप्रिया ! अपनें भैया लक्ष्मण की बातें सुनकर श्रीराम अब थोडा मुस्कुराये थे ।
हे महाराज सुग्रीव ! रात्रि में विशेष सावधान रहनें की आवश्यकता है क्यों की रात्रि में ही निशाचरों का बल बढ़ जाता है ।
हे रामप्रिया ! तब हनुमान आगे आये .......और श्रीराम के चरणों में प्रणाम करते हुये बोले थे.....आपके आशीर्वाद और अशोक वाटिका में बैठीं माँ वैदेही की कृपा से हमारा कोई बाल भी बाँका नही कर सकता ।
इतना कहकर प्रभु श्रीराम के चरणों को अपनी गोद में लेकर हनुमान चरण चांपनें लगे थे ......।
ये सब कहते हुए त्रिजटा के माथे में चिंताओं की रेखाएं खिंच गयीं .....
क्या हुआ ? तू एकाएक परेशान हो उठी .....मैने पूछा ।..........
पिता जी कह रहे हैं .........कि अब रावण का ये अधर्ममय व्यवहार सहन नही होता ......शायद मुझे श्रीराम के पास में जाना ही पड़ेगा ।
हो सकता है मुझे मेरा ये राक्षस समाज दोष दे ..............पर इतिहास मुझे दोष नही देगा ............हे रामप्रिया ! मेरे पिता विभीषण चले जायेंगें श्रीराम के पास ..........।
मैने त्रिजटा को अपनें हृदय से लगा लिया तो........वो रो गयी ......पर मैं तो राम को नही जानती........मैं तो सिर्फ "रामप्रिया सीता" को ही जानती हूँ.......आप मुझे छोड़ना । .......उफ़ ! फिर आज इसका विलाप ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
0 Comments