आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 114 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
माँ ! मैनें अहंकार तोड़ दिया रावण का .........
हनुमान नें मेरे सामनें हाथ जोड़ते हुये कहा था ।
माँ ! वैसे मेरी क्या सामर्थ्य ! प्रभु श्रीराम की इच्छा से ही सब हुआ है ।
कितनी नम्रता है इस हनुमान में ......मैं उसे देखकर गदगद् हो रही थी ।
इतना बड़ा पराक्रम किया .........समुद्र को लांघ कर आया .........फिर इस लंका में आग लगा दी.......इतनें यश के कार्य करनें के बाद भी स्वयं श्रेय न लेकर अपनें स्वामी श्रीराम को सारा श्रेय देना ..!
मैने अपना आशीर्वाद हनुमान को भरपूर दिया था ।
माँ ! अब मैं जाऊँ ?
मैने हनुमान की और देखा .........मेरे नयनों से गंगा यमुना बह चले थे ।
युद्ध अब अनिवार्य है हनुमान !.......मैने अपनें आँसू पोंछते हुए कहा ।
पर एक बात कहूँ ............तुमनें विभीषण के घर को नही जलाया ये ठीक किया .........इस लंका में मेरा ध्यान रखनें वाला हनुमान ! वही परिवार है ........और पहले भी मुझे लेकर विभीषण कई बार रावण को समझा चुके हैं .....और मुझे लेकर वो अपमानित भी हुए हैं .....पर सत्य के साथ वह हर समय खड़े ही रहते हैं ।
हनुमान ! विभीषण की पत्नी "सरमा" वो गन्धर्व की पुत्री थीं ......पर इस रावण नें उनके माता पिता भाई सब को मार डाला है .............
उनकी पुत्री है त्रिजटा ..........वो तो बहुत अच्छी है ............दिन रात मेरे ही पास बैठी रहती है........त्रिजटा का एक भाई भी है ........."मत्तगजेंद्र".......वो पिता की तरह ही दिन रात श्रीराम के ही ध्यान में लगा रहता है ................।
हनुमान ! तुम सोच रहे होगे ......कि मैं ये सब क्यों बता रही हूँ ..........हनुमान ! युद्ध में इनके परिवार को कुछ नही होना चाहिए ।
मेरी बात सुनकर हनुमान मुस्कुराये थे ..........माँ ! मैं विभीषण जी से मिल चुका हूँ........उनका वो श्रीराम भक्ति से ओतप्रोत हृदय भी टटोल चुका हूँ .......उनका भवन उनके आँगन में लगी तुलसी, और उस तुलसी का सुगन्ध भी मुझे आनन्दित कर गया है ।
माँ ! मैं उनको कैसे भूल सकता हूँ ...........अगर वो लंका में नही होते तो ये हनुमान आपके पास बड़ी मुश्किल से ही पहुँच पाता ।
विभीषण जी से जब मैने आपका पता पूछा तो उन्होंने सहजता से मुझे "भाई" कहा ............मैने उनकी ओर आश्चर्य से देखा था......तो वो बोले हाँ हम दोनों भाई है ........पर मैं एक ऐसा भाई हूँ ....जिसनें माँ को तो देखा है ......पिता जी को नही देखा ...........और आप ऐसे भाई हैं जिन्होनें पिता जी को देखा है पर माँ को नही देखा ...........
भैया हनुमान जी ! मुझे विभीषण जी नें कहा था माँ ! कि मैं आज आपको माँ के दर्शन तो करा दूँगा .......पर मुझे एक वचन देना होगा .....आपको भी पिता श्रीराम के दर्शन करानें होंगें .........।
माँ ! मैने वचन दिया है विभीषण जी को कि मैं उन्हें प्रभु श्रीराम से मिलाऊँगा .....................।
मुझे हनुमान की बातें सुनकर बहुत आनन्द आया ।
फिर एकाएक मेरा मन दुःखी हो गया था ..................
हनुमान ! कहना मेरे श्रीराम से कि उन- सा नाथ पाकर भी आज मैं अनाथा की तरह हो गयी हूँ ...........क्या इन राक्षसों के वध के लिये उनके त्रोंण में बाण नही रहे ? मैं व्याकुल हो उठी थी ।
सुरासुर, यक्ष किन्नर नाग किसी में इतना सामर्थ्य नही जो मेरे श्रीराम के रोष का सामना भी कर सके ...............फिर क्यों ? मेरे नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ।
मैं शपथ खाकर कहता हूँ माँ ! कि प्रभु नें आपको विस्मृत नही किया ।
आप अब निश्चिन्त हो जाएँ - प्रभु आवेंगे ...........शीघ्र आवेंगे ।
हनुमान उठ कर खड़े हो गए थे ........................
पर मेरे अश्रु अब रुकते ही नही ......कारण - मुझे सुमित्रानन्दन की याद आगयी थी .........हनुमान ! मेरी और से श्रीराघवेंद्र सरकार के चरणों में सिर रखकर प्रणाम करना ...........और सुनो हनुमान !
उन परमोदार श्रीरामानुज सुमित्रानन्दन लक्ष्मण को भी मेरी ओर से ............इतना ही कह पाई थी मैं कि मेरी हिलकियाँ बंध गयीं ......।
क्या मुझ कटुभाषिणी दीना, विपत्ति मैं पड़ी हुयी इस सीता को वो क्षमा करेंगें ? उन लखन भैया से कहना .........मैने उनका बहुत बड़ा अपराध किया है .............मैने उनसे क्या नही कहा ............कहना हनुमान ! उन लक्ष्मण से कि उनके अपराध का दण्ड पा रही हूँ मैं ।
इतना कहते हुये मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ..........।
हनुमान !
कुछ देर बाद मैने अपनें आपको सम्भाला फिर हनुमान को अपनी चूडामणि उतार कर दे दी ।...........वही मेरे सौभाग्य हैं .......मेरा जीवन अब उन्हीं के हाथों में है ।
हनुमान नें आगे बढ़कर अँजली बाँधे चूडामणि अपनें हाथों में ले ली ।
हनुमान ! तुम आये मुझे तो ऐसा लगा जैसे शुष्क धरती में बारिश हो गयी हो....पर अब कहना मेरे श्रीराम से....एक मास का समय दिया है रावण नें....अगर एक मास में वो नही आये तो सीता देह त्याग देगी ।
माँ ! ऐसा मत कहिये .......प्रभु आयेंगें .........अवश्य आयेंगें ।
मैं देखती रही ..... हनुमान नें मुझे प्रणाम किया ......मैने उसे भूरि भूरि आशीष दिया .............वो तो देखते ही देखते उड़ गया था ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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