आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 112 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
हे मेरी हृदयेश्वरी ! तुम्हारे विरह नें मुझे आज प्राणहीन सा बना दिया है ।
ओह ! मेरे प्राणनाथ का सन्देश ............हनुमान दे रहे थे ।
माँ ! प्रभु श्रीराम नें इधर आते समय, मुझे एकान्त में अपनें पास बुलाया, और सजल नेत्रों से कुछ बोले थे...........
क्या बोले हनुमान ! बोलो ना ! क्या बोले .......मेरी धैर्यता जबाब दे रही है ..........क्या बोले मेरे लिये मेरे प्राणनाथ । मै हनुमान से पूछ रही थी ।
माँ ! प्रभु श्रीराम नें मेरी ओर देखा ...........जल भर आये थे उन राजिवनयनों में ......................
हनुमान ! कहना मेरी वैदेही से - .हे मेरी हृदयेश्वरी ! तुम्हारे विरह नें मुझे प्राणहीन सा बना दिया है ...........मेरी प्रीति सत्य है ......प्रीति सत्य ही होती है प्राणेश्वरी ! अनन्त और अव्यक्त प्रीति ।
मै उस ज्वाला को कैसे तुम्हे दिखाऊं ..........जो तुम्हारे विरह नें मेरे हृदय में लगा दी है......कोई ऐसा पल नही जिस पल ये राम तुम्हे याद न करता हो.......मैं वृक्षों से पूछता हूँ कि मेरी वैदेही कहाँ है ?
मैं पक्षियों से पूछता हूँ मेरी मैथिली कहाँ है ?
पर मुझे कोई कुछ नही बताता ...................
तुम समझती हो मेरी प्रिये ! क्यों की हम दोनों का मन एक ही है .....
और अब तो वह मन सदा तुम्हारे पास ही रहता है ......।
हनुमान सन्देशा सुना कर चुप हो गए ...................
मेरे नयनों से अश्रु बहने लगे थे ..................
सब कुछ कह दिया था मेरे प्राणनाथ नें ....और इतनें कम शब्दों में !
"इतनेमें" पूरा प्रेमशास्त्र उढ़ेल दिया था ।
उतना ही कहा .......जितनें में प्रेम के चाखनहार को अपनें अंतस्थल में प्रियतम की रसानुभूति होनें लगे ........।
मेरे हृदयबिहारी श्रीराम - हृदय में प्रकट हो गए थे .............
मैने अपनी आँखें मूँद ली थीं .................
फिर कुछ देर बाद मैने अपनें कपोल को छूना प्रारम्भ कर दिया था ।
माँ ! आप ये क्या कर रही हैं ?
हनुमान मेरे सामनें बैठा मुझे देख रहा था ........बड़े भोलेपन से देख रहा था .........पता नही हनुमान को देखती हूँ तो मेरे हृदय का वात्सल्य उमड़ आता है ............बड़ा भोला है ये ।
मैं हँसी ..............नही कुछ नही हनुमान ।
तुमनें विवाह किया है ? मैने पूछा ...........
नही माँ ! मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ ..........हनुमान नें गम्भीर उत्तर दिया ।
मै कुछ नही बोली .....मन ही मन सोचती रही ..........फिर मैं तुम्हे क्या बताऊँ ...........कि चित्रकूट में मेरे श्रीराम नें मेरे कपोल पर अपनें "कर" से चित्रावली की थी ........मैं कपोल छूकर अपनें श्रीराम के हाथों के स्पर्श को अनुभूत कर रही थी ।
अरे हाँ ! एकाएक मैं बोल पड़ी .............मेरी एक बात कह दोगे मेरे श्रीराम से ..........मैने हनुमान को कहा ।
हाँ माँ ! कहिये ना !
हनुमान ! बस एक काम कर दो.....तुम मेरे प्राणनाथ को इन्द्रपुत्र जयन्त की घटना सुना देना.........हनुमान ! मुझे लगता है मेरे स्वामी मेरी याद में इतनें डूब गए हैं कि वो अपनें बाणों की महिमा भी भूले बैठे हैं ।
इसलिये कह रही हूँ ........जयन्त के प्रसंग को उन्हें सुनाना ..........ताकि उन्हें अपनें बाणों की महिमा स्मरण हो उठे ।
मैने हनुमान को समझाते हुये कहा था ।
माँ ! कुछ देर बाद हनुमान नें मुझे कहा ..........उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आगयी .........भोला है हनुमान मेरा ।
कहनें लगा ......माँ ! चलो ! मैं आपको कन्धे में बिठाकर प्रभु के पास ले जाता हूँ ........चलो माँ ! यहाँ किसी की हिम्मत नही है जो मुझे रोक दे ............आप चलो ....आप उठो .......ये कहते हुये हनुमान तो उठकर खड़ा हो गया ।
मैं तनिक मुस्कुराई .....फिर मैं बोली - वानर हो, मानवी नारी की मर्यादा को नही समझते क्या ? मैं मानती हूँ तुम बलवान हो , बुद्धिमान हो .....पर हो वानर.....हनुमान ! भले ही तुम मेरे पुत्रवत् हो ....पर मैं स्वेच्छा से परपुरुष का स्पर्श नही कर सकती ।
रावण नें मेरा हरण किया - उस समय मैं विवश थी .........पर तुम्हारे कन्धे पर मैं स्वयं बैठूँ ये उचित नही होगा ।
मैं जब ये सब कह रही थी तब हनुमान नें एक बच्चे की तरह अपना मुँह लटका लिया था .............मानों वो कह रहा हो .....मैं अपनी माँ को अपनें कन्धे में क्यों नही बिठा सकता ........।
मेरे मन में हनुमान के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था ................
मेरे स्वामी श्रीराम स्वयं आएं - मेरे अपहरणकर्ता को दण्डित करें ....और मुझे यहाँ से ले जाएँ ............हनुमान ! इसी में उनकी शोभा भी है और उनका सुयश भी है .........।
हनुमान ! तुम्हे श्रीराम के यश को और उज्वल बनानें वाला बनना चाहिए..........मैनें जब हनुमान को ये सब कहा .....तब बड़ी विनम्रता से सिर झुकाकर हनुमान नें स्वीकार किया था ।
आप धन्य हो माँ ! आप धन्य हो ! संसार में सतियाँ तो बहुत हुयी हैं ....पर आपके जैसी सती कौन होगी ? हनुमान के नेत्रों से अश्रु बह चले थे........माँ ! इतनी विपत्ति में भी अपनें कष्टों को भूलकर अपनें स्वामी के सुयश की चिन्ता सच्ची सती ही कर सकती है ....इतना कहकर सिर झुका लिया मेरे पांवों में ........मैने भी उसे खूब आशीर्वाद दिया......और कहा भी अब सहन नही होता ......रावण कहकर गया है ........अब बस एक मास का समय रह गया है .......अगर प्रभु नही आये तो ये सीता अपनें देह को त्याग देगी ...........
मैने स्पष्ट कह दिया था ....................।
वो आयेंगें माँ ! हनुमान का ये शब्द मेरे कानों में गूंजता रहा ।
माँ ! अब ........................
क्या अब ? हनुमान !
माँ ! भूख लग रही है । हनुमान नें कहा ।
पर यहाँ तो कुछ है नही ? मैने कभी आस पास में दृष्टि डाली ही नही थी ..........तो मुझे क्या पता !
माँ ! कैसे नही हैं ............फलों से लदे ये अशोक वाटिका के वृक्ष !
मैं हँसी .........हनुमान ! तू सब देख लिया ?
माँ ! अब निश्चिन्त हो गया हूँ ना .........क्यों की मुझे मेरी माँ का पता चल गया है ...........अब एक निश्चिन्तता आगयी है .......इसलिये अब सोच रहा हूँ ......कुछ खा भी लूँ .......और रावण के बारे में पता भी कर लूँ .......।
नही नही .......फल खाना हो ....खा ! पर हनुमान ! रावण के चक्कर में मत पड़...........वो बहुत बड़ा वीर है...........।
हनुमान नें हँसते हुये कहा ........अगर रावण वीर है ......तो माँ ! ये रामदूत हनुमान महावीर है........आप चिन्ता न करो.......।
माँ ! अभी जा रहा हूँ ......पर वापस प्रभु के पास में जाते हुये भी - आपसे मिलकर ही जाऊँगा ......इतना कहकर हनुमान चला गया ।
मैं उसे देखती रही ..........पर वो तो क्षणों में ही खो गया था ।
पवनपुत्र है क्या ? पवन की तरह उड़ता है ..........मैं सोच रही थी .....पर आज मेरा मन बहुत प्रसन्न है ..........बहुत .....मेरे प्राणनाथ का सन्देशा जो आगया ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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