वैदेही की आत्मकथा - भाग 111

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 111 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

राम ! राम ! राम ! राम !   

यही जपते हुये मैं बैठी थी   कि  तभी -

"सुनो श्रीराम कहानी"  

ये मधुर आवाज  गूँजी मेरे कानों में ...................

कौन ?   मैं उठी ............मैं चारों और देखनें लगी .............पर चारों ओर तो  राक्षसियाँ सो रही थीं .........एक भी ऐसी नही थी जो जगी हो  ।

"प्रभु  श्रीराम का अवतार हुआ  अवधपुरी में"

मुझे रोमांच हो रहा था ..................सच में  कोई अत्यंत मधुर बोली में  मेरे श्रीराम की कहानी सुना रहा था  ...........

"प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ अवध में ...................साथ में जन्में   भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ............

विश्वामित्र जी के साथ   आश्रम गए ................जाते जाते  तड़का को मार ...............धनुष यज्ञ में जनकपुर पधारे ..................शिव धनुष को तोड़कर   सिया सुकुमारी  से   विवाह रचाया "

मुझे रोमांच हो रहा था ................कितनी मधुर और संक्षिप्त में   ।

सुनाओ !     क्यों रुक गए   आगे सुनाओ ना ..................मैने चारों ओर देखते हुये  कहा  ...................

"महाराज दशरथ  ..........जिनकी  तीन रानियों में एक रानी कैकेई ......वरदान मांग लिया  .........राम को चौदह वर्ष का वनवास ........और भरत का राज्य"

"विपदा भारी आ खड़ी हुयी थी अवध में .......क्यों  की  राम वन जानें लगे थे ......पर साथ में सीता जी भी चलीं .......और भाई लक्ष्मण भी"

मेरे मन में यही सब चल रहा था ...........कौन है ये  ?     कौन होगा ? 

मुझे  शोक के सागर से उवारनें वाला ये कौन है  ? 

"वन में दुःख सहे .....कष्ट सहे  इन तीनों नें ............चित्रकूट में निवास करते हुए  बहुत समय व्यतीत हो गया ..............तो वहाँ से आगे चल दिए ...दक्षिण की ओर ........जहां  राक्षसों का आतंक था   .......जहाँ ऋषि मुनि  असुरक्षित थे .......दण्डकारण्य ..........पंचवटी  में अपना निवास बनाया  श्रीराम नें"

ये कहीं   दशानन रावण  तो नही  ?    

मुझे छलनें  के लिये   श्रीराम कथा सुना रहा हो  ?

मेरे मन में  कई बातें एक साथ आरही थीं   ।

"तभी -  राक्षस रावण आया..............तपस्वी का भेष बनाकर .......

बहाना था भिक्षा का ....................साधू भेष का   सम्मान करते हुए  सीता जी भिक्षा  देनें  बाहर आयीं ...............पर ये तो  था राक्षस ........सीता को  अपनें रथ में बिठा लिया ...............सीता  रोईँ ........सीता  चिल्लाईं ......मुझे बचाओ ....मुझे बचाओ ..."

मैं सुन रही थी .........बड़े ध्यान से सुन रही थी ............अभी भी मुझे सन्देह था   कि  कहीं  मायावी रावण तो  नही !  

पर    तभी  रामकथा रुक गयी ................सिसकियां मुझे सुनाई पड़नें लगीं ...............जिस वृक्ष के नीचे में थी ......उसी  वृक्ष पर ही कोई था ..........टप्प टप्प टप्प .........आँसू गिरनें लगे  थे मेरे पाँव में ।

हे  राम भक्त !    आजाओ नीचे !     आजाओ  .............

क्यों की   रावण विद्वान है ..........पर सम्वेदनशील नही है .............भावुक नही है ............रावण रो नही सकता ......हाँ रुला सकता है ...........इसलिये तो इसका नाम "रावण" रखा था इसके पिता नें ......जो दुनिया को रुलाये वह रावण ........पर ये   सज्जन जो थे ये तो रो रहे थे  ..........बड़ा कोमल है इनका हृदय !      

मैनें कहा -  इसलिये ही कहा था   आजाओ !  रामभक्त ! आजाओ.......

जय श्रीराम !  

 बडी जोर से गर्जना करते हुये  वो कूदे थे अशोक वृक्ष से ।

ओह !   मैं  चकित थी........त्रिजटा नें   जिस वानर का वर्णन किया था वो यही तो........मैं  देखती रह गयी थी..........कनकमय देह था .......शरीर बलिष्ठ था .......लाल मुख.........और पीछे पूँछ  निकली हुयी थी .............।

वो आगे बढ़कर मेरे पैर छूना चाह रहे थे ..............

नही .....नही .............मैने अपनें पैर पीछे खिसका लिए ।

बताओ  तुम कौन हो ?    सच बताओ .....तुम रावण के आदमी हो .......

अगर तुम रावण के कोई  मायावी  हो  तो मुझे मार दो ...........मुझे  कोई दुःख नही होगा ......पर..........फिर मैं थोडा सोच में पड़ गयी ।

तुम मेरे श्रीराम की कथा गाते हुए  रो पड़े थे.........यानि तुम हृदय प्रधान हो ......और मुझे लगता है हृदय प्रधान व्यक्ति  गलत नही होता  । 

हे माँ !    मैं श्रीराम का दूत हूँ .....................

सिर झुका कर उन   सन्मान्य   वानर नें   कहा था  ।

माँ ! मेरा नाम हनुमान है ।

हनुमान !   मुझे नाम सुनकर बड़ा आनन्द आया था  ।

तुम सच कह रहे हो ना !       देखो ! हनुमान !   मैं उस मनस्थिति में जी रही हूँ ...............जहाँ  अब मुझमें  केवल सन्देह ही   बच गया है  ।

मैं सच कह रहा हूँ  माँ !       हनुमान झुककर ही बोल रहे थे  ।

रुको माँ !    मेरे पास एक प्रमाण और है  ?        

इतना कहकर  अपनी जटाओं से   मुद्रिका निकाली  हनुमान नें ............और मेरे हाथों में दिया .............

ये मुद्रिका ?  रामनाम अंकित मुद्रिका  !     ये कैसे आई तुम्हारे पास  ?  

मैने हनुमान से पूछा था ।

हे माँ !  आपको याद है ?  आप को जब रावण हरण करके ले जा रहा था  तब  आपनें  एक पर्वत पर  पाँच वानरों को बैठे देखा........उसी समय आपनें  अपना उत्तरीय फाड़ कर    अपनें कुछ आभूषण   उसमें बांध कर फेंक दिया था........उस समय  हम लोग ही  वहाँ बैठे थे ।

हनुमान की बातों पर अब मुझे पूर्णविश्वास हो गया था   ।

हे माँ !    उस समय मैं ,  महाराज सुग्रीव ,  जामबंत,  नल नील  ....वहाँ हम लोग बैठे थे ............................

पर  हनुमान !   बात अधूरी रह गयी ...........मेरे प्रभु श्रीराम कहाँ हैं ? 

मुझे यहाँ से कैसे ले जायेंगें  ?     

और   मेरे हरण होनें पर ......प्रभु कहाँ कहाँ गए ?     

   मुझे  सुनना था ...........हनुमान को मैने पूछा  ।

मारीच को मारकर  प्रभु श्रीराम  और लक्ष्मण जब कुटिया में आये  तब  सूनी  कुटी देखकर  बिलख   उठे थे..........आगे बढ़े  तो जटायू मरणासन्न  अवस्था में .........स्वयं अपनें हाथों  क्रिया की जटायू की  प्रभु श्रीराम नें ........आगे  तपश्विनी  शबरी के प्रेम सिक्त  बेर खाये .......उन्होनें ही   बताया  कि  सुग्रीव से मित्रता कर लो........।

हनुमान मुझे  मेरे श्रीराम नें क्या क्या किया  ये सब बता रहे थे   ।

वानरेन्द्र सुग्रीव से मित्रता कर ली है   प्रभु श्रीराम नें........माँ !    वानरराज सुग्रीव की सेना  चारों दिशाओं में आपको खोज रही है .......

एक  वानरों की टुकड़ी  जो दक्षिण दिशा की ओर जा रही थी .......उसमें मैं भी था.........सम्पाती  , माँ !   जटायू का भाई हमें  समुद्र किनारे मिल गया  उसनें ही हमें  आपका पता बताया था  ।

माँ !     आप अब चिन्ता न करें ..........सब ठीक हो जाएगा  .........अब वानरेंद्र सुग्रीव की सेना लेकर  प्रभु आयेंगें  और आपको लंका से ले जायेंगें.......हनुमान नें  सारी बातें मुझे बता  दी थीं  ।

हनुमान की बातें सुनकर मुझे  आनन्द आया ...........मेरा हृदय भर आया था ...........मेरे श्रीराम मुझे लेनें  के लिये आनें वाले हैं  !     

पर  फिर मेरे  मन सन्देह !        

मैने हनुमान को ऊपर से लेकर  नीचे तक  देखा .................बड़े ध्यान से देखा ....................

माँ !  क्या हुआ  ?    हनुमान नें   हँसते हुए पूछा था .........

शायद वो समझ भी गया था   ।

मैने पूछा   .......मेरे  श्रीराम के साथ जो सेना है ........उन सेनाओं में सब वानर तुम्हारे जैसे ही हैं   ?     

हाँ .........यही उत्तर दिया  हनुमान नें ।

मैं उदास हो गयी थी  इस उत्तर से ।

हनुमान  बहुत बुद्धिमान है...........नही नही बुद्धिमानों में   श्रेष्ठ है  ।

हनुमान नें   हँसते हुये कहा.........आप ये सोचकर  उदास हो गई हो ना माँ !   कि  इतनें छोटे   से वानर    इन विशालकाय  राक्षसों से क्या लड़ पायेंगें  ? 

मैने हनुमान की ओर देखा .........................

हनुमान नें कहा .............मुझे लंका में प्रवेश करना था इसलिये मैने छोटा रूप धारण किया ...................

देखो माँ !    ये कहते हुये     हनुमान  तो बड़ा होंनें लगा ......उसका शरीर  विशाल होता जा  रहा था ...........वो बढ़ता गया .............

बस बस बस ..........मैं समझ गयी  हनुमान !     मेरा मन  आज अतिप्रसन्न हुआ ......हे हनुमान !    तुम   धन्य हो ........तुम महावीर हो .......तुम्हारे समान वीर इस विश्व ब्रह्माण्ड में कोई नही है  .........

मैं बोले जा रही थी .............तभी हनुमान नें अपना शरीर सूक्ष्म किया और मेरे पाँव छू लिए .....................

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

Post a Comment

0 Comments