आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 110 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मैं उस दिन त्रिजटा को देखते ही दौड़ पड़ी थी उसके पास ........
त्रिजटा ! मैं उसके गले लग गयी थी ......और बहुत रोई ।
क्या हुआ ? आप क्यों रो रही हैं ?
त्रिजटा मुझे पूछ रही थी .........और मेरी पीठ में थपथपी देकर मुझे शान्त करनें का प्रयास कर रही थी ।
रावण आया था ...........मैने आँसू पोंछते हुए कहा ।
क्या ! त्रिजटा भी चौंक गयी ................13 मास के बाद रावण आया ? फिर त्रिजटा नें उस अशोक वाटिका में चारों ओर अपनी दृष्टि घुमाई ....................राक्षसियों को भाले तलवार पकड़े देखा त्रिजटा नें ।
ये सब कब आयीं हैं यहाँ ?
त्रिजटा नें मुझ से पूछा था उन राक्षसियों को देखकर ।
प्रातः ही रावण आया था .............उसी के साथ ये सब आयीं हैं ।
मैने त्रिजटा को बताया ।
त्रिजटा शान्त थी .......पर उसके मस्तक में चिन्ता की रेखाएं थीं ।
फिर मुझे शान्त बैठनें के लिये कहा ...........और स्वयं चारों और उन नई नई राक्षसियों को बड़े ध्यान से देखनें लगी थी ।
वो सब राक्षसियाँ वीभत्स थीं .......बहुत डरावनी थीं ।
मुझे डर लग रहा है........मुझे डर लग रहा था ! ........मुझे अपनें आस पास में खड़ी उन राक्षसियों को देखना अच्छा नही लग रहा था ।
मुझे शान्त किया था बड़े प्रेम से त्रिजटा नें ............फिर मुझ से बोली ....एक अच्छी खबर सुनाऊँगी हे राम बल्लभा ! आपको ।
क्या ! क्या अच्छी खबर ? क्या मेरे श्रीराम आरहे हैं ?
मैं सब बताउंगी ................पर आप पहले ये बताइये कि रावण क्या कहके गया है .......त्रिजटा नें मुझ से पूछा था .............
तुम लोग दूर खड़ी रहो .........मैं जब तक न कहूँ पास मैं मत आना ।
चारों ओर से उन राक्षसियों को त्रिजटा नें दूर कर दिया था ........
हाँ अब ये नही सुनेंगी .............आप बताइये .........
मैं त्रिजटा को बतानें लगी थी....................
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तुम चली गयीं थीं त्रिजटा ! बस तुम्हारे जाते ही ..........ये सब राक्षसियाँ एकाएक अशोक वाटिका में आगयीं .............इन सब को देखकर मैं भय से काँप गयी थी ।
उसके बाद कुछ राक्षसियाँ मशाल लिए आगे आगे चल रही थीं ......तभी मैने देखा रावण आरहा है ............उसी समय मैने अपनें शरीर को सिकोड़ लिया ........हाँ त्रिजटा ! मन्दोदरी भी थी साथ में ।
हाँ फिर ? त्रिजटा बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रही थी ।
मेरे पास में आया रावण .........और मुझ से बोला .........वो राम अब नही आएगा ..............यहाँ तक कोई मानव आही नही सकता ।
हे सुन्दरी ! मेरी बात मानों आज पूरे 13 मास हो गए हैं ............अब राम की आशा त्यागों और मेरी महारानी बननें के लिए तैयार हो जाओ .....................
आपनें क्या कहा ? त्रिजटा नें मुझ से पूछा ।
मेरा शरीर काँप रहा था मैने रावण की ओर देखा भी नही .............हाथ में तृण लेकर - उससे कहा ..............
ये तृण देख रहा है ना रावण ! तेरा वैभव इस तृण के बराबर भी नही है मेरे लिए .........मुझे इस लंका की महारानी बनानें का प्रलोभन दे रहा है , अरे ! तू क्या समझता है मेरे जनकपुर में और मेरी अयोध्या में वैभव की कमी थी ....?
मेरे जीवन हैं श्रीराम .....मेरे प्रीतम हैं श्रीराम......मेरे स्वांस हैं श्रीराम !
मैं स्वयं अवध का वैभव त्याग , अपनें स्वामी श्रीराम के साथ वन में आयी थी .........।
त्रिजटा ! मेरी बात सुनें बिना ही रावण फिर बोला ...........
क्या बोला रावण ?
त्रिजटा एक एक बात बड़ी गम्भीरता से सुन रही थी ।
रावण नें कहा .....मै वीर हूँ ...........देवों, यक्षों, किन्नरों में किसी में इतना सामर्थ्य नही जो महावीर रावण का सामना कर सके .......हे सुन्दरी ! तुम्हे तो अपना सौभाग्य मानना चाहिए कि दशानन तुमसे तुम्हारे प्रेम की भीख मांग रहा है ।
तू अपनें आप को महावीर कहता है .......हँसी आती है मुझे रावण ! तुझ पर ।
अरे ! वीर होता तो तो मेरे श्रीराम का सामना करता ................पर तू तो चोर की तरह मुझे लेकर आया ............तू वीर है ?
ए सीते ! क्रोध से चिल्ला उठा था रावण ।
उसनें अपना चन्द्रहास तलवार उठाया ..............और मुझे ...........
फिर क्या हुआ ? त्रिजटा नें पूछा ।
रावण के पैरों में उसकी पत्नी मन्दोदरी गिर गयी थी ..........
फिर आगे ? त्रिजटा कुछ ज्यादा ही गम्भीर थी आज ।
वो अपनें पति को समझानें लगी थी .......हे स्वामी ! इस नारी को छोड़ दीजिये .........आप तो विद्वान हैं ना ! आप तो समझते हैं ना ! ये कोई राक्षसी नही है ............ये सती मानवी नारी है ..........ये यहीं बैठे बैठे हम सब को भस्म कर सकती है ..........इसको श्राप देंनें के लिये जल की भी आवश्यकता नही पड़ेगी ।.........त्रिजटा ! मन्दोदरी रावण के पैरों से लिपट गयी थी .............
ये सुनकर त्रिजटा के चेहरे में मुस्कुराहट आगयी ।
फिर क्या हुआ ? त्रिजटा नें पूछा ।
त्रिजटा ! रावण नें अपना खड्ग म्यान में रख लिया .........बड़े प्रेम से अपनी पटरानी मन्दोदरी को उठाया ...............
फिर मेरी ओर देखता हुआ बोला .................
एक मास का समय बचा है.......सिर्फ एक मास का ............अगर तू तैयार नही हुई मुझ लंकेश की पटरानी बननें के लिये तो .........
इतना बोल कर वो चला गया रावण ............................
फिर उसके बाद ये सब राक्षसियाँ मुझे परेशान करनें लगीं .........
त्रिजटा नें उन राक्षसियों को घूरा ..........................
फिर सहज होती हुयी त्रिजटा बोली .............
अब मेरी बात सुनो ..................मेरा सपना !
सपना ? मैने त्रिजटा की बात पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी ।
आप क्या समझती हैं रामप्रिया ! "मेरा सपना सत्य होता है"
ये कहते हुये उसकी आँखों में चमक था ।
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मैने देखा श्रीराम अपनें भाई लक्ष्मण के साथ आये हैं लंका में ........
चारों ओर जयजयकार हो रहे हैं ................
आप यहाँ अशोक वाटिका से निकल कर अपनें पिया श्रीराम से मिलनेँ जा रही हैं ..........हे रामबल्लभा ! दिव्य पुष्पक विमान है ....वाम भाग में आप विराजमान हैं......दाहिनें और श्रीराघवेंद्र ......पीछे चँवर लिए लक्ष्मण जी ......विमान चल पड़ा है अयोध्या की ओर .......
देवों से आकाश आच्छादित है .....त्रिजटा नें सुन्दरतम स्वप्न सुनाया ।
फिर बोली ........इतना नही ....................
आओ ! इधर आओ राक्षसियों ! तुम लोग भी सुनो ...........मेरा सपना सत्य होता है ..................त्रिजटा नें वहाँ खड़ी समस्त राक्षसियों को अपनें पास बुलाया ........और सबको अपना सपना सुनानें लगी ।
दूसरी ओर ...................रावण गधे में बैठा है .............और अन्धकार में चला जा रहा है .........उसके सिर के बाल कटे हुए हैं ..............
लंका में चारों और मरे हुए राक्षसों के शरीर पड़े हुए हैं ..............चील कौवा इत्यादि सब खा रहे हैं ..............मध्य में रावण का शरीर भी पड़ा हुआ है ........पर वो हँस रहा है ...........फिर उसके शरीर को तैल में रखा जाता है ...................
त्रिजटा सपना बता रही है ...................
तभी मैने देखा एक बन्दर आया है कनकमय उसका देह था ........
उसनें लंका को अस्तव्यस्त कर दिया है ...........राक्षसों नें उसे पकड़ लिया है ......और उसके पूँछ में आग लगा रहे हैं .................फिर तो देखते ही देखते वो बन्दर भाग जाता है ............लंका के ऊँचे शिखर में चढ़ जाता है ............और आग लगा देता है .....पूरी लंका जल जाती है ...........कोई कुछ नही कर पाता ......................।
इतना सुनाकर त्रिजटा चुप हो गयी ...........मुझे आज अच्छा लगा .......कितना अच्छा सपना सुनाया था त्रिजटा नें ।
फिर बोली - मेरा सपना सच होता है .........................
ये कहते हुए वो नजरें घुमाकर राक्षसियों को देखनें लगी थी .....
मेरा सपना सच होता है ................
मैनें देखा राक्षसियों के चेहरे में भय व्याप्त हो गया था ।
तुम लोग रावण की बात मान रहे हो !..........राक्षसियों को सम्बोधित करते हुए बोल रही थी त्रिजटा ।
ये रावण तो कल मरनें वाला है ...........और अपनें साथ ये सबको मारेगा .......मेरी बात मानों ये जगदम्बा हैं ........ये जगजननी हैं ....इनके चरण पकड़ो ..........ये कहकर त्रिजटा शान्त हुयी थी ............।
सब राक्षसियों नें सिर झुका लिया था और मुझे प्रणाम करनें लगी थीं ।
पर कुछ देर में त्रिजटा चली गयी ......उसे आज रात्रि में कुछ काम था .........मैं उस रात्रि में राम ! राम ! राम ! यही जपते हुये बैठी थी .......कि तभी -
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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