आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 109 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
त्रिजटा की मेरे प्रति श्रद्धा निष्ठा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी ।
वो मेरे ही पास ज्यादा से ज्यादा रूकती ......कभी कभी दिन रात भी रुक जाती .......मैं ही उसे कहती थी - जा अब सो जा ।
वो मुझे हाथ जोड़कर कहती ...........मुझे छोड़ के मत जाना हे रामबल्लभा ! अब आप ही मेरी हो , जो भी हो ।
मैं इस लंका में नही रहना चाहती ...............भगवान श्रीराम जब इस रावण का उद्धार करेंगें और आपको ले जायेंगें अयोध्या, उस समय इस दासी त्रिजटा को भी अपनें साथ ले चलियेगा ................
मैं त्रिजटा के सिर में अपना हाथ रख देती ..........पगली ! अब तू मेरी है .........हाँ हाँ मैं तुझे अपनें साथ ही लेकर चलूंगी ........मैं उसे सांत्वना देती थी ......।
आज उसनें मेरे ही जन्म का इतिहास मुझे ही सुना दिया ........मैने भी बड़ी रूचि लेकर उसके द्वारा कहा गया इतिहास सुना .............और रूचि मेरी इसलिये जागी थी कि .......मेरी जन्मभूमि "श्रीजनकपुरधाम" का चित्र, मेरी दृष्टि के सामनें उभर आया था ।
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हे रामबल्लभा सीता ! रावण मिथिला में ही उस घड़े को पृथ्वी में दबा आया था.........अब जिस राज्य में ऋषियों के रक्त का घट दबा हो वहाँ सुवृष्टि कैसे होसकती थी ? मिथिला महान ज्ञानियों की भूमि रही है ....उसके बाद भी वहाँ दुर्दैव का प्रकोप हुआ ............।
मुझे ही मेरे जन्म की कथा सुना रही थी त्रिजटा .........और हाँ बीच में हँसते हुए बोलती थी........."आपको नही सुना रही.......मैं आद्यजगदम्बा सीता की पावन जन्म कथा गा कर अपनी वाणी को पवित्र कर रही हूँ "........वो बड़ी श्रद्धा से बोल रही थी ।
अकाल पड़ गया अचानक मिथिला की भूमि में ..............हिमालय का तराई क्षेत्र है ये .........परमपवित्र भूमि है ये ..........पर वर्षा की एक बून्द नही पड़ी इस राज्य में ........बारह वर्ष बीत गए !
मैनें इन्द्र का कोई अपराध किया है क्या ?
मिथिलापति दुःखी हो गए थे ............मेघ आते हैं आकाश में पर यहाँ बरसते ही नही .........यहाँ से ऐसे चले जाते हैं .......जैसे यहाँ बरसनें से उन्हें डर लगता हो ..........।
पर ज्ञानियों के गुरु मिथिलापति विदेहराज की ये आशंका अकारण भी तो नही थी ..........महान सिद्ध ऋषियों के रक्त में एक बून्द भी जल का गिर जाए .......ऐसा साहस भला देवराज इन्द्र भी कैसे कर सकते थे ।
अकाल, जैसे मिथिला में अपना अड्डा ही बना चुका हो ........और एक दो दिन की बात कहाँ थी ........ पूरे बारह वर्ष !
धरती पूरी तरह से शुष्क हो चुकी थी .........घास की कौन कहे .....वृक्ष भी पत्तों से रहित हो गए थे .........सरोवर के तल में दरारें दिखाई देंनें लगीं थीं............प्रजा भाग रही थी अपनें प्राण बचानें के लिए ।
मुझ से क्या अपराध हो गया !
आज गुरु याज्ञवल्क्य जी के शरण में पहुँचे थे विदेह राज जनक ।
मुझ शासक का कौन सा ऐसा पाप है .......जिसके कारण प्रजा दुःख भोग रही है ...........रो पड़े थे विदेहराज ।
हे गुरुदेव ! कृपा करो .........चरण पकड़ लिए ।
आप अपनें प्रति अकारण आशंका करते हैं विदेह !
दो क्षण के लिये अपनी आँखें बन्द कीं योगेश्वर याज्ञवल्क्य जी नें, फिर आँखें खोलते हुए बोले - विदेहराज ! निमि वंश में पाप का लेश भी कभी नही आया.........ये वंश निष्पाप है ............।
फिर आँखें बन्दकर के ध्यान करनें लगे थे याज्ञवल्क्य जी ..........
इस बार समय लग गया ध्यान में........घड़ी भर आँखें बन्दकर बैठे रहे .......फिर आँखें खोल कर बोले - हे जनकराज ! परमसौभाग्य की प्राप्ति के लिये कुछ तप आवश्यक होते हैं ...............और ये सौभाग्य तुम्हारा ही नही ........अपितु सम्पूर्ण सृष्टि का होगा ।
एकाएक महामुनि याज्ञवल्क्य के चेहरे में प्रसन्नता छा गयी थी ।
पराशक्ति का प्रादुर्भाव होनें वाला है ......................
पता नही क्या बोले गुरुदेव......जनक जी के भी समझ में नही आया ।
मेरे लिए कुछ आज्ञा ? जनक जी नें हाथ जोड़कर पूछा ।
आप अब सम्पूर्ण सृष्टि के दुःख शोक नाश के लिये "हल" चलायें !
याज्ञवल्क्य ऋषि सूत्र में ही बोलते थे ......शिष्य को समझना पड़ता ।
पर जनक जी जैसे ज्ञानी तो मौन को भी समझते हैं .........फिर गुरु याज्ञवल्क्य की वाणी समझनें में उन्हें दिक्कत क्या थी ।
हल तैयार हुआ........राजा जनक सुनयना महारानी , दोनों नें मिलकर हल चलाना आरम्भ किया.......उनके हल का अग्र भाग उस घड़े से जा लगा......जिसे रावण नें इसी मिथिला की भूमि में दबा दिया था ।
आवृत घड़ा फूटकर अनावृत हो गया........घड़े में ऋषियों की तपस्या , ऋषियों की अपार भक्ति, ऋषियों की श्रद्धा, सब कुछ रक्त से भरे घड़े में ही तो था......और तभी "पराशक्ति" नें उसी पवित्र रक्त को अपनें प्रादुर्भाव का पुनीत आधार बना लिया ।
ओह ! जैसे पृथ्वी से प्रकाश राशि फूट पड़ी हो ..........महाराज जनक का हाथ हल पर ही स्थिर हो गया था ।
भूमि में देखा सुनयना महारानी नें ...........एक सुन्दर सी कन्या गोद में आनें के लिये व्याकुल है ........................
मैं मुस्कुराते हुये अपनी ही कथा सुन रही थी ............और उस त्रिजटा को देख रही थी .......।
ये कन्या कोई साधारण नही थी ........ये समस्त राक्षसों का विनाश करनें के लिये अवतरित हुयीं थीं ...............
हा हा हा हा हा हा ..............त्रिजटा खड़ी हो गयी और आकाश की ओर देखते हुये बोली ...........रावण के विनाश का मूल इस तरह प्रकट हुआ ...........अनन्त काल जीनें की, रावण की वासना का अंत करनें के लिए पराशक्ति नें अवतार ले ही लिया था ।
हे भगवती सीता ! हे मिथिलेश किशोरी ! हे रामबल्लभा !
आपकी जय हो ......आप ही हैं सबकी मूल ......आप ही हैं पराम्बा ।
इतना कहते हुये त्रिजटा मेरे पाँवों में गिर गयी थी ...............।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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