वैदेही की आत्मकथा - भाग 108

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 108 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

मत सोचिये रावण के बारे में  हे  रामबल्लभा !    आप ही हैं  जो इस रावण  के  त्रास से   इस सम्पूर्ण सृष्टि को  बचानें के लिए आई हैं !

हे रामप्रिया !   ये रावण अनन्तकाल तक  सम्पूर्ण सृष्टि को दुःखी बनाता रहता .....विधाता ब्रह्मा का वर जो इसे प्राप्त था ......पर  आप  के कारण   अब  इस  सृष्टि   की आस जगी है.......त्रिजटा  बोले जा रही थी ।

मेरे पिता विभीषण कहते हैं ........रावण का   वध तो केवल पुरुषोत्तम श्रीहरि ही कर सकते हैं .........और   रावण के वध की भूमिका भी  श्रीहरि नें लिख दी है   ।

तब ही लिख दी थी .........जब ऋषियों का  रक्त  रावण नें "कर" के रूप में वसूलना शुरू कर दिया था -   ऋषियों से    ।

ओह !       मुझे पीड़ा हुयी  ।

और  उन्हीं  ऋषियों के रक्त से  आपका जन्म हुआ.........जो रावण के मृत्यु  की भूमिका बनाता है .........त्रिजटा   कुछ रहस्यमयी लग रही थी आज .....और इसकी बातें भी  .......मैने  प्रश्नवाचक  दृष्टि से त्रिजटा को देखा था .......और  मैने उसे कहा  भी  .......मैं   कुछ नही बोल रही ....तेरी हर बात सुन रही हूँ  ...... तो तू कुछ भी बोलेगी  त्रिजटा !  

नही,     हे किशोरी !    आप  ब्रह्म की आद्यशक्ति हो ......

हे वैदेही ! 

   आप  वो शक्ति हो  जिनसे  ज्ञान, क्रिया और द्रव्य शक्ति का प्रदुर्भाव होता है ...............

हे सीते !       आप के  बिना  ब्रह्मराम भी कुछ नही कर सकते ....।

रावण  का उद्धार करना आवश्यक है...............नही तो पृथ्वी में त्राहि त्राहि मच गया है .............तब   भूमिका ऐसी बनी   कि आपको अपनें साकेत धाम से  यहाँ  आना ही  पड़ा ...................

हे   रामहृदयेश्वरी !     वैसे तो आपका न जन्म है .....न  मृत्यु ...........पर   जब ब्रह्म को  अपनें इस धरा धाम पर विहार करना होता है .......लीला करनी होती है ......तब  आपका भी  अवतरण होता है ...........क्यों की शक्ति के बिना  शक्तिमान कैसा   ?

मैं त्रिजटा की बातें सुन रही थी.......स्मित हास्य मेरे मुख मण्डल में था ।

हे  अवधविहारिणी  !      मेरे पिता  विभीषण कहते हैं ...............आप शक्ति हो ब्रह्म की ......आप किसी के गर्भ में वास नही करती ...........इसलिये  आपका जन्म  एक घट से हुआ है .............और उस घट को  पृथ्वी में  दवा दिया था ....... स्वयं रावण नें  ।

हे वैदेही !      उस घट का मुँह जब खुलेगा  उसी दिन से  रावण के  मृत्यु की   घड़ी  बजनी  शुरू हो जायेगी .........ये श्राप था  ऋषि अगत्स्य का ....रावण को ........और   आपको पता है ?   उस घट में क्या था ?   अगस्त्य जैसे महानभक्त  महान ऋषियों का  रक्त था ................

त्रिजटा  नें ये सब कहा ..................मेरी प्रार्थना की ..............मेरे सामनें   प्रणाम की मुद्रा में खड़ी भी  हो गयी  थी   ।

मैं उसे देखती रही .................................

कुछ समय के बाद  वो   शान्त होकर बैठ गयी थी ..........

मैनें ही उससे पूछा  था  ......कि  वो  ऋषियों का श्राप और घड़ा .........मुझे बता  त्रिजटा ?      वो इतिहास मुझे सुननी है  ! ..........

आज पता नही त्रिजटा को क्या हो गया है ................वो बारबार मुझे प्रणाम किये जा रही है .........मैने जब उसे शान्त किया  तब जाकर  वो  मुझे  ये घटना बतानें लगी थी  ।

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"दण्डकारण्य  मेरा हुआ"  

मेरे ससुर जी  "मय"  नें  अपनी मन्दोदरी पुत्री को मुझे क्या दिया  साथ में  ये दण्डकारण्य भी  दे दिया  ।

रावण  बहुत खुश था    वो   बारम्बार अट्हास किये जा रहा था  ।

पर  हे लंकापति !       दण्डकारण्य में  तो  ऋषि मुनि तप करते हैं ।

रावण के  दूत शुक  सारक नें  कहा था ......।

भगा दो उन ऋषियों को !........और बोलो कि  वह क्षेत्र अब   राक्षसों की क्रीड़ा भूमि बनेगी !.......रावण का अहंकार  चरम पर पहुँचा हुआ था ।

पर वो ऋषि मुनि वहाँ से हटेंगे नही....रावण के  दूत नें ये भी स्पष्ट कहा ।

अगर वो लोग वहाँ रहना चाहते हैं ....तो "कर" दें .........प्रजा क्या  अपनें  स्वामी राजा को "कर" नही देती ?    रावण  के विनाश का समय आगया था ...........त्रिजटा नें मुझे बताया  ।

फिर आगे क्या हुआ  त्रिजटा !         मुझे उत्सुकता थी   ।

पर  जिनके पास कौपीन तक नही हैं ........वो क्या "कर" देंगें   लंकेश ?

"रक्त"  ऋषियों का रक्त      सुना है तपश्वीयों के रक्त में    अलग ही स्वाद होता है ।........नरभक्षी बन  चुका था  रावण ..........।

और उसके साथ नरभक्षी दैत्य ही  रहते थे ......सब हँसे   ।

ये हमारे लोग  पीएंगें   उन ऋषियों का रक्त ....................

क्यों पीयोगे ना ?   रावण नें  अपनें  राक्षसों की ओर देखा  ।

भाले तलवार को  हवा में उछालते हुये  सब बोले .....हाँ  हम पीयेंगे  ।

जाओ !    और दण्डकारण्य के समस्त ऋषियों का रक्त  इस घड़े में ले आओ ........रावण नें  एक सुन्दर सा घड़ा भी   दिया  ।

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श्रीहरि की मंगलमय कथा का गान कर रहे थे  ऋषि अगत्स्य  ।

हजारों ऋषि मुनि  सब श्रोताओं  के रूप में  वहाँ उपस्थित थे  ।

श्रीहरि के पावन नाम से  वह दण्डकारण्य गुंजित था ...........वहाँ की वायु ,    वहाँ का अणु परमाणु    सब प्रेमपूर्ण था ।

ऋषि अगत्स्य !  

 "सारक" नामक  दूत अपनें साथ  कुछ राक्षसों को लेकर पहुँच गया था ।

भगवत्कथा  चल रही थी......सब ऋषि मुनि   उस रस में डूबे हुए थे ....

तब  राक्षसों नें विघ्न डाल दिया   ।

हे ऋषि अगत्स्य  !   

हाँ कहिये  !  

आप लोग कौन हैं ?     कथा को रोक दिया ऋषि अगत्स्य नें    और उन राक्षसों से  पूछा  ।

पहले तो हँसे  समस्त राक्षस ......फिर बोले .....ऋषि  अगत्स्य !  हमारी बात अब ध्यान से सुनो.........जिस अरण्य  में तुम लोग रह रहे हो ............ये अरण्य अब  दशानन को  भेंट में "मय दानव" नें दे दिया है ........इसलिये   अब ये दण्डकारण्य  रावण का है  ।

हे  शूर !     हमें क्या फ़र्क पड़ता है  कि ये अरण्य किसी का भी हो .....हमें  तो अपनी साधना- सत्संग करनी है ..........ऋषि अगत्स्य नें  कहा ।

मैं ज्यादा कुछ नही कहूँगा .........."सारक"  बोला .......महाराज दशानन का आदेश   है कि  आप लोगों को "कर" देना होगा।  ..............।

"कर"  ?     चौंके  ऋषि अगत्स्य ..................हम ऋषि   तुम लोगों को क्या देंगें  ?       हमारे पास तो वस्त्र भी नही हैं ...................

रक्त तो है ?      एक राक्षस बोल उठा .............

ये सुनते ही   एक क्षण के लिए  क्रोध से आँखें लाल हो गयीं थीं  ऋषि अगत्स्य की .......फिर  ऊपर की ओर देखा .....आँखें बन्द कीं ........फिर मुस्कुराये ............हे श्रीहरि !    लीला करना चाह रहे हो  !  तो आपकी ये इच्छा भी पूरी हो .........संहार करो इन  सब राक्षसों का  .........

आँखें खोलीं  ऋषि अगत्स्य नें  और .................

राक्षस एक घड़ा लाये थे .........सामनें एक काँटेदार वृक्ष था  ऋषि स्वयं गए  और एक काँटा तोड़कर ले आये .......अपनें बाहु में  उस  काँटे को  चुभाया ..........रक्त बह चला  ।

हे ऋषियों !     हम लोग महात्मा हैं.......सहन करना  हमारा धर्म है ......इसलिये  ये  राक्षसराज रावण हमारा रक्त माँग रहा है .....दे दो .........मेरी बात मानों  दे दो  ........ऋषि  अगत्स्य  नें सभी ऋषियों से भी  निवेदन किया ।........आगे  सुतीक्ष्ण  ऋषि आये ...उन्होंने  भी    काँटा चुभाया  और रक्त.......।

हे  रामप्रिया सीते !     बड़े बड़े सिद्धों नें    अपना रक्त  उस घड़े में भर कर दे दिया था........ऋषि अगस्त्य नें   उस घड़े के मुँह को बन्द करनें के लिए कहा......जैसे ही  घड़े का मुँह बन्द किया ...........

हे  राक्षसों !     याद रखना जिस दिन इस घड़े का मुँह खुलेगा ....उसी दिन  रावण के    विनाश का जन्म  इसी  घड़े से होगा  .......ये बात कह देना  अपनें राक्षसराज रावण से  ।

उस घड़े को पकड़नें से भी काँप रहे थे  वो राक्षस लोग अब ...............

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मूर्खों !  तुमसे किसनें कहा  महामुनि अगत्स्य के पास जानें के लिए ?

रावण अपनें  लोगों पर चिल्ला रहा था ..................

मैने तो  साधारण ऋषियों की बात की थी ........तुम   !

रावण को पसीनें छूट रहे थे ...................

लाओ  इस घड़े को - 

 रावण नें जैसे ही अपनें हाथों में  उस  घड़े को लिया ।

नही .....नही   महाराज  लंकेश !   इस घड़े का मुँह न खोलियेगा ।

क्यों ?   क्या हुआ ऐसा  ?  क्या ऋषि अगत्स्य नें  ऐसा कुछ कहा है ।

रावण डर रहा था....उसके हाथ काँप रहे थे  घड़े को पकड़ते समय भी ।

महाराज रावण !  इस घड़े का मुँह  जिस दिन खुलेगा  उसी दिन  इसमें से आपके विनाश का कारण उत्पन्न हो जाएगा ...ऋषि अगत्स्य नें कहा है ।

क्या कहा ?        चिल्ला उठा था रावण ।

हाँ महाराज !  ऋषि अगत्स्य नें श्राप दिया है कि  जब भी इस घड़े का मुँह खुलेगा ......आपकी मृत्यु  का कारण इसी में से  .............

हट्ट !   

    सामनें बोल रहे   उस  राक्षस का गर्दन ही उड़ा दिया था रावण नें  ।

मैं अनन्तकाल तक जीनें की आस लिए बैठा हूँ .........और तुम लोग ये घड़ा ले आये .....जो मेरी मृत्यु को जन्म देगी  ?

रावण  घड़े को पकड़े हुये अपनें महल में आया....रात में सोचता रहा ।

क्यों न इस घड़े को   धरती में दबा  दूँ ?   और ऐसी जगह दबाऊं   जहाँ  ये घड़ा  अनन्त काल तक पड़ा रहे ......ताकि मेरी मृत्यु ही न हो  ।

रावण रात्रि में ही अपनें पुष्पक विमान से उड़ चला ...............

उसे समझ नही आरहा था किधर जाऊँ  ?     

वो गया   उत्तर दिशा की ओर ..........................

अरे ! ये तो जनकपुर है .....मिथिला ...........

हाँ   ये स्थान ठीक है........रावण नें मिथिला को देखा था.......और वहीं की भूमि में    राजधानी से दूर.....धरती में दबा दिया था   उस घड़े को ........।

त्रिजटा इतना कहकर मुझे देखकर मुस्कुराई ................

मैने उसे देखा ..........अभी तक मैं  धरती को देखते हुये उसके द्वारा कहे गए  प्रसंगों   को सुन रही थी ....................मैनें त्रिजटा को देखा .........वो अब मेरी ओर देखकर  हाथ जोड़ रही थी ............

हे रामप्रिया !  हम पर कृपा करना.......हे वैदेही !   हम  पर कृपा बनाये रखना.......मैं  उस  त्रिजटा को उस दिन देखती ही रही थी  ।

शेष चरित्र कल ............

Harisharan

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