वैदेही की आत्मकथा - भाग 107

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 107 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

  उस दिन  त्रिजटा नें मुझे जो बात बताई  वो बात   मुझे सोचनें पर विवश कर रही थी......"दशानन रावण आपको माँ की भावना से देखता है" ।

ये क्या कह रही हो त्रिजटा ?   मैने  आश्चर्य से  त्रिजटा की ओर देखा ।

हे रामप्रिया !     सच बताओ  आपको  छूकर ही तो  रावण नें अपनें रथ में बिठाया होगा ना  ?        ये क्या प्रश्न था त्रिजटा का  ?

मेरा हरण किया है  इस  दुष्ट नें ............तो हरण करते समय  तो  स्पर्श होगा ही ...........मैने त्रिजटा की ओर देखा  ।

पर वो   परनारी का स्पर्श कर ही नही सकता....त्रिजटा नें कहा  ।

अगर किया तो  ?   मैने  उत्सुकतावश पूछा था ................

रावण के सिर के  सौ टुकड़े हो जायेंगें....गम्भीरता में  बोली थी त्रिजटा ।

इसलिये  आपको  वासनावश  छूआ ही नही है रावण नें .......न उसके मन में आपके प्रति ऐसी कोई भावना है ............वो आपको  माता ही मानता है ......तभी   माँ भाव से भावित होकर ही आपको छूआ होगा ।

त्रिजटा नें  ये बड़ी विचित्र बात बताई  ।

मैने  सोचा .................तब मुझे त्रिजटा की बात  ठीक लगी  ।

क्यों की मुझे अब  स्मरण  हो रहा है .....जब मेरा हरण करनें के लिये  मेरी और बढ़ रहा था रावण  तब  उसनें  मेरे पाँव की और देखा था .............फिर  धीरे से सिर भी झुकाया था   ।

पर  त्रिजटा !    ये तो बता   क्या इसे किसी महत्पुरुष से  श्राप दिया है ?

किसी  और  नें नही .......स्वयं इसके भाई कुबेर नें ...................

कुबेर नें  ?       

त्रिजटा नें  एक और घटना सुनाई .................

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जब से कुबेर की लंका रावण नें छीनी है ......कुबेर का विमान छीना है  .....तब  से कुबेर   इन्द्रलोक अमरावती   में ही इन दिनों रह रहा है ।

रम्भा    का नृत्य है आज ............कोई नई अप्सरा है  रम्भा .....

उन दिनों  बड़ी चर्चा थी   स्वर्ग में .......की आज रम्भा का नाच होगा .......त्रिजटा सुना रही थी   मुझे   ये घटना   ।

अमरावती से   देवराज चले थे     स्वर्ग के लिए .........साथ में देवता और यक्ष गन्धर्व सब थे .......................कुबेर भी अपनें पुत्रों के साथ  स्वर्ग जा रहे थे ................कुबेर के दो पुत्र हैं  "नल कूबर, मणि ग्रीव" ।

सभा लगी हुई थी ..................संगीत की  स्वर लहरी बह चली थी  ....

स्वर्ग के राजा इन्द्र नें अपना  सिंहासन सम्भाला....अन्य सब देवी देवता   आसन में  बैठे ......धनाध्यक्ष कुबेर को  उच्च आसन दिया गया था  ।

कुबेर के दो पुत्र   साथ में ही बैठे थे ......नल कूबर, मणि ग्रीव ..........

"नलकूबर" ......बहुत सुन्दर था ..................और आज  जिसकी नृत्य प्रस्तुति थी .......वो भी अपूर्व सौंदर्य की धनी थी  - रम्भा ।

 सब लोगों नें करतल ध्वनि से  इस नई नवेली  रम्भा  अप्सरा का स्वर्ग में स्वागत किया  .............................

वो नाचनें लगी .................उसकी  वो कृश कटि ........ऐसा लग रहा था कि कहीं  टूट न जाए .............गौर वर्णी ....................चन्दन की सुगन्ध जिसके देह से निकल रही थी ..............उसके वो केश .....जो  उसके कटि प्रदेश को छू रहे थे  ....................उसकी भाव भंगिमा .....उसके नेत्रों की चंचलता .............उसके ग्रीवा की मटकन ..........उसका वो हास्य .......................

कुबेर पुत्र नलकूबर  तो   पूर्ण समर्पण कर उठा था रम्भा के लिये ......

"ये  रम्भा  सिर्फ मेरी है "

.........धनाध्यक्ष   का पुत्र इतना कहे  तो क्या आश्चर्य ?     

सबनें देखा था  कुबेर के पुत्र को ....................

पिता जी ! मैने आज तक आपसे कुछ नही माँगा .....पर आज  मुझे  ये रम्भा दे दो ............मैं इसके बिना जी नही पाउँगा  ।

धनाध्यक्ष नें  देवराज से स्पष्ट  कहा.......मेरे पुत्र को रम्भा ही चाहिये  ।

धनी व्यक्ति की बात राजा भी कहाँ टालते हैं .............

बस रम्भा की ओर देखा था  देवराज नें , और पूछा भी था .........

क्या रम्भा !  तुम्हे कुबेर पुत्र  नलकूबर  प्रिय है  ?   

लजा गयी थी रम्भा ..........क्यों की  कुबेर का पुत्र   कोई कम सुन्दर तो था  नही  !

मेरी पत्नी  सभा में नही नाचेगी .................कुबेर पुत्र बोल उठा ।

सब हँसे थे  ..................क्यों की अप्सराओं का  क्या विवाह ?  

पर  कुबेर पुत्र  अपनी पत्नी बना चुका था हृदय से..................

रम्भा का हाथ पकड़ते हुए बोला ...........कल  शाम को मेरे महल में तुम्हारा स्वागत है रम्भा !     मैं प्रतीक्षा करूँगा ..........तुम आओगी ना ? 

रम्भा के हाथों को चूमता हुआ  बोला था  कुबेर पुत्र  ।

हाँ ........आऊँगी ............और मैं   आपकी ही  हूँ ........ये कहते हुए रम्भा   कुबेर पुत्र के गले भी लग  गयी थी  ।

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"दशानन आगया ........दशानन आगया" ..........स्वर्ग  में हल्ला हो गया था ................हे रामबल्लभा !          रावण    दिग्विजय करता हुआ  निकला था ..............रावण अजेय हो चुका था ..............त्रिजटा नें मुझे बताया  ।

सब छुप गए इधर उधर .........रावण से सब काँपते थे ................

रावण हँसा .................कोई नही है   इस स्वर्ग   में  ?     

डरपोक देवताओं !............. ऐसे डरपोक !   रावण से शत्रुता करोगे ?

रावण  अट्टहास करता  हुआ इधर उधर  घूम रहा था ..............

कहीं से   मधुर आवाज आरही थी ..........कुछ गानें की   ।

रावण मुग्ध हुआ .........जिधर से ये   ध्वनि  आरही थी   उसी और रावण बढ़ता चला गया  ..............।

सोलह श्रंगार में सजी  अप्सरा  रम्भा !................

वो तो जा रही थी  अपनें प्रेमी से मिलनें ......अमरावती .........कुबेर के पुत्र  से मिलनें ..........इसे भी प्रेम हो गया  था कुबेर के पुत्र से .........।

रम्भा का वो रूप सौन्दर्य !      रावण देखता ही रह गया  ।

कहाँ जा रही हो सुन्दरी  !       

रम्भा सजधज के जा रही  थी कुबेर पुत्र के पास  ...........।

रम्भा नें रावण को इस तरह देखा  जैसे  ये कौन ?    ये कौन आगया ?

रम्भा नें उत्तर देना भी  उचित नही समझा   ।

रावण कैसे ये सहन कर लेता ..............उसनें आगे बढ़कर  उसके हाथ पकड़े ...............वो चिल्लाई..............उसनें  गुहार लगाई .......कोई देवता तो मुझे बचाओ ..............कोई तो आओ .........ये कौन है  ?

रावण हँसा .........जोर  से हँसा ...............कोई नही आएगा ..........किसी की हिम्मत नही है  जो लंकेश रावण का सामना कर सके !

रावण ?     नाम सुनकर इस बार रम्भा भी चौंकी ...................

रावण का नाम इसनें भी सुना था ........और  लंका  कुबेर की थी,   इसनें छीना है   ये भी इसके संज्ञान में ही था   ।

चरणों में गिर गयी रम्भा .......मैं  आपकी पुत्रवधू लगती हूँ   हे लंकेश !

रावण हँसा ........मेरी पुत्रवधू  ?       

आपके भाई हैं   कुबेर.............उनके पुत्र से मेरा आज प्रथम मिलन है .....मुझे उनसे मिलनें दें   ......रावण के पैरों में पड़कर  रोनें लगी थी बेचारी रम्भा अप्सरा   ।

रावण हँसा ............अप्सरा  भी किसी की पुत्रवधू होती हैं क्या ?  

रावण   नें  रम्भा को देखा ..............तुम अप्सरा हो .................रावण   रम्भा  को अपनें आलिंगन में लेनें लगा .........तुम्हारा तो कार्य है परपुरुष को प्रसन्न करना.।.........रावण नें    वासना का उन्मुक्त खेल,  खेल दिया था    रम्भा के  साथ    ।

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पिता जी !       देखिये ना   अभी तक   रम्भा क्यों नही आयी  ?

कुबेर से उसके पुत्र नें     बिलखते हुए पूछा ।

जैसे तैसे सांत्वना  दी   कुबेर नें अपनें पुत्र को ...........

वत्स ! आरही होगी .......तुम्हे तो पता है स्त्री को  सजनें में ही कितना समय लग जाता है ।      पर  समय  बीतता गया   ।

पिता जी !   स्वर्ग जाकर ही देखें  रम्भा को ?  .......कुबेर पुत्र , प्रतीक्षा करते हुए थक गया था इसलिये  उसनें अब ये कहा  ।

"ठीक है  चलो"  

  कुबेर और नलकूबर,    ये दोनों  पिता पुत्र चल दिए थे स्वर्ग ।

नलकूबर !   

      दूर से देख लिया था  रम्भा नें  आते हुये  - तो चिल्लाई ।

रावण   अपनी कामलीला समाप्त  कर चुका था ........वो  हट गया  ।

बिलख रही थी रम्भा ..........हिलकियों से रो रही थी  नलकूबर के गले से लग कर.........इस रावण नें  मेरा सबकुछ लूट लिया ।

रो तो ,   कुबेर पुत्र नलकूबर भी रहा था .................

रावण  अपनें वस्त्र ठीक करनें में लगा है ..........

कुबेर से रहा नही गया............रावण को देखते ही कुबेर चिल्लाये .................दुष्ट रावण !         तुमनें मेरे पुत्र को  दुःखी किया .......ये रो रहा है ........और  एक नारी को ?       ये अप्सरा है तो क्या हुआ  ?     क्या इसकी अपनी कोई  स्वतन्त्रता नही है  ?  

लाल नेत्र हो गए थे कुबेर के  ....मानों  अंगार  उगल रहे हों    ।

जा  मैं तुझे श्राप देता हूँ .......कुबेर नें  हाथ में जल लिया .....

रावण   अब ध्यान से  सुन रहा था कुबेर की बातें   ......थोडा भयभीत हुआ    श्राप के नाम से  रावण  ।

जा   रावण !  मैं तुझे श्राप देता हूँ ...........अपनी पत्नी के सिवाय अब तू किसी  अन्य नारी को  वासना की दृष्टि से  छूयेगा  ,   तो  तेरे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे  !      

रावण  के माथे में चिन्ता की लकीरें साफ़  दिखाई दे रही थीं ............।

त्रिजटा नें मुझे बताया ............अमरावती से श्राप लेकर जैसे ही  लंका में आया था रावण .....सबसे पहला काम इसनें यही किया .........कि  देश  देश, नगर नगर,  से चुराकर लाईं  नारियों को   रावण नें मुक्त किया ....

वो सब सती नारियाँ  थीं ...................।

त्रिजटा नें मुझे कहा ...............वो  पराई नारी को  वासना की दृष्टि से छू नही सकता ..............आपको  वो माँ के रूप में देखता है  ......।

मुझे माँ मानता है तो  मेरा हरण क्यों किया ?    मुझे यहाँ लाकर क्यों रखा है  ?   मेरे श्रीराम  वन वन में भटक रहे हैं ........ये सब क्यों किया उसनें ?

मैं फिर बिलखनें लगी थी  .......बोल त्रिजटा !   बोल !

हे रामबल्लभा !       रावण को आप मूर्ख न समझें .........वो विद्वान है ....वो अतिबुद्धिमान  है ........

श्रीराम परब्रह्म हैं ..........और आप उन ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति .......रावण   से साधना नही होगी ...............ये तो  अत्यंत रजोगुणी  और घनघोर तमोगुण में जीनें वाला व्यक्तित्व है ............इसलिये  ये परब्रह्म के हाथों मुक्त होना चाहता है ..................इसलिये ब्रह्म की आल्हादिनी को चुराकर  लंका में लाया है ..................त्रिजटा नें इतना ही कहा ............और फिर शान्त हो गयी ......मौन ।

मैं भी  सोच रही थी .........कि     रावण   क्या    है ?  

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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