आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 106 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही ........
त्रिजटा से बातें करते हुये पूरी रात बीत गयी थी ........तभी मैने सुना -
"जटाटवी गलज्वल प्रवाहपावितस्थले,
गलेवलम्ब्य लम्बिताम् भुजंगतुंगमालिकाम्"
तांडव के स्वर-ताल में इस स्तोत्र का कोई पाठ कर रहा था ...........
कौन है ये जो ब्रह्ममुहूर्त में इतना सुन्दर गा रहा है .......मैं खड़ी हो गयी थी मेरे साथ त्रिजटा भी खड़ी हुयी ।.......रावण ......रावण गा रहा है ......त्रिजटा नें सहजता में कहा ।
रावण गा रहा है ?
इतनें प्रेम भाव से तो कोई भक्त ही गा सकता....मुझे आश्चर्य हुआ था ।
रावण भक्त है ...शिव का भक्त है.....परमभक्त.......त्रिजटा बोली ।
मैं वापस बैठ गयी थी........मैं आश्चर्य से उस तांडव स्तोत्र को सुनती रही........कितना सुन्दर मृदंग बज रहा है..........त्रिजटा नें कहा - रावण ही बजा रहा है ...........मैने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा ।
ये शिवतांडव स्तोत्र इसी रावण की रचना है ..........त्रिजटा नें मुझे ये भी बताया कि कैसे रावण शिव का भक्त हुआ ............उसनें मुझे ये इतिहास बड़ी विचित्र बताई .............।
हाँ ये प्रश्न तो मेरे मन में भी था कि त्रिजटा बता रही थी कि रावण नें विधाता ब्रह्मा की तपस्या की ........पर मैने सुना था कि ये रावण भगवान शिव का परमभक्त है ................
त्रिजटा नें मुझे विस्तार से बताया -
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एक बार हिमाच्छादित क्षेत्र में रावण चला गया था .......उस क्षेत्र को "कैलाश" इसी नाम से लोग जानते हैं ......त्रिजटा नें कहा ।
रावण पुष्पक विमान में था.......और हे रामप्रिया ! ये विमान कामग यान ही है. .....यानि चलानें वाले के मन से इसका सम्बन्ध जुड़ जाता था.......और मन जहाँ कहे वहीं यह विमान चल देता ।
लंका से रावण निकला तो पता नही क्यों वह उत्तर दिशा की ओर ही बढ़ता चला गया ........फिर सामनें दिखाई दिए उसे बड़े बड़े पर्वत ....हिम के पर्वत .......वह खुश हुआ और विमान को उधर ही ले चला था ........पर ये क्या ? विमान रुक गया ।
रावण स्तब्ध था ......ये क्या हुआ ? ......मेरा विमान रुका क्यों ?
बड़ी कोशिश की रावण नें, अपनी संकल्प शक्ति का भी पूरा प्रयोग किया .......पर आश्चर्य! विमान टस से मस नही हुआ ।
तभी सामनें एक ठिगना सा ब्रह्मचारी दिखाई दिया ..... उसका रँग गौर था .....पर वो देखनें में कुछ बृषभ सा प्रतीत होता था ।
रुको ! आगे मत जाओ .......इस पवित्र पर्वत को इस समय कोई लांघ नही सकता ...........तुम प्रयास भी मत करना ......ये भगवान शिव का क्षेत्र है ........ऐसा कहते हुये वो चिल्ला रहा था और रावण को रोकनें का प्रयास कर रहा था ......।
मूर्ख हो तुम ! तुम मुझे नही जानते शायद .......रावण ....रावण नाम है मेरा........मेरे लिये कुछ भी असम्भव नही है ........रावण फिर विमान को उड़ानें के प्रयास में लग गया ।
मेरी बात मानों ...........तुम जो भी हो ..........पर इस पर्वत को लाँघनें का प्रयास मत करो ........उस बृषभ मुख ब्रह्मचारी नें फिर समझाया ।
क्यों ? क्या है इस पर्वत में ऐसा ? रावण को लगा कि इस ब्रह्मचारी की बात सुननी चाहिये ।
भगवान भूतभावन शिव अपनी आद्यशक्ति उमा के साथ रमण कर रहे हैं ........इस समय इस पर्वत को लांघना उनका अपमान होगा ........
पर तू कौन है ? रावण नें उससे परिचय पूछा ।
मैं भगवान शिव का वाहन नन्दी हूँ ....................
तभी तो मैने तुझे मूर्ख कहा ...............नन्दी यानि वृषभ वृषभों में बुद्धि कहाँ होती है ........मैं रावण हूँ रावण !
हे रामप्रिया ! रावण का अहंकार चरम पर पहुँचा हुआ था ..........
तू न लाँघनें की बात करता है ..........हट्ट ! मैं इस पूरे कैलाश को ही उठा कर दूसरी जगह रख देता हूँ .........तू मुझे जानता नही है ।
रावण नें नन्दी को अपनी शक्ति दिखानी चाही .................
उतरा विमान से रावण .....कैलाश पर्वत के पास में गया ..............
हँसता हुआ नन्दी की ओर देखा उसनें .............फिर अपनी भुजाएं कैलाश पर्वत के नीचे डालीं , और जैसे ही उसे उठानें का प्रयास किया ...........कैलाश पर्वत थोडा ऊपर उठा ......।
उसमें निवास कर रहे पक्षी उड़ गए .......पशु उस पर्वत से नीचे गिरनें लगे .......वृक्ष जड़ों के सहित उखड़ कर सब नीचे आगये ।
प्रेत, पिशाच , कूष्माण्ड, योगिनी डाकिनी इन सबके मन में भी भय दिखाई देनें लगा.......चीत्कार कर उठे थे चारों दिशाओं के अधिदैव ।
एक भयानक आवाज हुयी थी .....................
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अरे !
भगवती पार्वती नें अपनें मृणाल बाहु प्राणेश्वर भगवान शिव के कण्ठ में डाल दिए थे........ये क्या हो रहा है नाथ ! ये कैलाश पर्वत काँप क्यों रहा है........पार्वती भगवती नें अपनें आपको भगवान शिव के वक्ष में छूपा लिया था.......कुछ नही प्रिये ! "तुम्हारा ही एक बालक थोडा चंचल हो गया है" - मुस्कुराते हुये भूत भावन नें अपनी प्रिया को प्रगाढ़ आलिंगन में लेते हुए कहा था ।
तभी प्रलयंकर भगवान शिव नें हँसते हुये अपनें चरण का एक अंगूठा शिला पर दवाया ...............
पर्वत अपनी जगह पहले की तरह स्थिर हो गया था ......।
पर ये क्या ! चीत्कार कर उठा था रावण .......क्यों की उसका हाथ दव गया कैलाश पर्वत के नीचे........उसकी दारुण चीत्कार जब रह रहकर उठ रही थी ........तब पूरा ब्रह्माण्ड कम्पित हो रहा था ।
हे रामप्रिया ! रावण का अहंकार एक क्षण में ही भगवान शिव नें उतार दिया .......उसका दर्प चूर्ण चूर्ण हो गया ।
पर अब रावण के प्राण छटपटानें लगे थे ..............उसे असह्य पीड़ा हो रही थी ..........वो चीख़ रहा था ......वो चिल्ला रहा था ।
रावण के सम्पूर्ण शरीर से पसीनें निकल रहे थे .......पीला चेहरा हो गया था रावण का ......उसके बाहु दव कर .पर्वत के नीचे पिचक गए थे ..........रावण के पास कोई और उपाय था नही, मात्र कराहनें के ।
एक उपाय है दशानन !
वह नन्दी अभी भी वहीं खड़ा था ...........।
क्या उपाय है ? कराहते हुये बोला था रावण ।
तुम उमाकान्त , गरलकण्ठ, शशांकशेखर भगवान शिव का स्तवन करो .........शिव वाहन नन्दी नें उपाय बताया ।
पर क्या वो महादेव भगवान महारुद्र मुझ पर प्रसन्न होंगें ?
मैने अकारण उनका अपराध किया क्या वो मुझे क्षमा करेंगें ?
रावण नें नन्दी से पूछा ।
नन्दी नें हँसते हुये कहा .....शायद तुमनें जाना नही है भगवान शिव का एक नाम "आशुतोष" भी है........और करुणावतार भी हैं ।
लंकेश ! उन महादेव के न कोई शत्रु हैं न कोई मित्र .........उनकी दृष्टि में सब सम हैं ...............जैसे पिता के लिए अपनें सभी पुत्र सम होते हैं ऐसे ही सम दृष्टि वाले हैं हमारे महादेव ............
नन्दी नें रावण को समझाया था ।
अच्छा कहकर रावण नें दुःखी कण्ठ से सस्वर सामवेद का गान करना आरम्भ कर दिया ........रावण अपनें घनघोर स्वर से सामवेद को गा रहा था........गदगद् कण्ठ .....आर्तवाणी .......रावण का स्तवन चलता रहा .....चलता रहा ।
हे दयाधाम ! अब तो छोड़ दीजिये रावण को ................वर्षों हो गए हैं .........वो दवा कुचला ..........आपकी स्तुति ही गा रहा है ।
भगवती पार्वती के मन में दया जाग गयी थी.......कुछ भी हो माँ जो हैं ।
पार्वती के मुख से ये सुनकर थोडा मुस्कुराये भगवान शिव ......आपका वात्सल्य जाग गया ........इतना कहकर थोडा अपना आसन बदला ही था भगवान शिव नें कि .......कैलाश पर्वत थोडा हिला ..........रावण नें तभी अपना हाथ निकाल लिया था ।
उठ खड़ा हुआ दशानन रावण .....................
फिर साष्टांग लेट गया भूत भावन के चरणों में .....................
मैं आज समस्त लोकों के स्वामी का दर्शन करके कृतार्थ हुआ .....दशानन नें अंजली बांध लीं ..............
स्मित हास्य विराजमान है भगवान शिव के मुखमण्डल में ........
"जटाकटाह सम्भ्रमभ्रमन्निलिम्प निर्झरीं,
विलोल वीचिवल्लरी विराजमान मुर्द्धनि'
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड चकित हो गया था ..........जब रावण नें इस स्त्रोत्र का पाठ किया ...............वो केवल स्त्रोत्र को पढ़ ही नही रहा था ......वो गा रहा था .....................
पर गान अभी शुरू किया ही था उसनें ..............कि रुक गया ..........
वो कैलाश पर्वत के पीछे गया .........वहाँ एक ताल है .........उस ताल में जाकर उसनें स्नान किया ......( कैलाश पर्वत में एक "राक्षस ताल" भी है....जिसमें रावण नें स्नान किया था )
अब रावण के पैर उद्दाम तांडव कर उठे थे ...............वो गा भी रहा था और उसी गायन के साथ साथ उसके पैर भी थिरक रहे थे ।
उसके पदाघात से पृथ्वी काँप रही थी ......................
"धगद् धगद् धगद् धगद् ललाट पट्पावके
किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षण मम"
उसके तांडव करनें से बड़ी बड़ी शिलाएं चूर्ण होती जा रही थीं ......
उसको किसी वाद्य की आवश्यकता कहाँ थी .........उसके पैर शिला पर इसे पड़ रहे थे .....जैसे मृदंग की थाप । ...........वो स्वयं गा रहा था ....और गाते हुये पूरे भाव जगत में पहुँच गया था ।
वो नाचते नाचते गिर गया ...........हे शम्भो ! वो चिल्लाया ।
वत्स ! उठो ! मधुर ध्वनि गूँजी महादेव की ...........
हे सृष्टि के समर्थ स्वामी ! हे महादेव ! मुझे क्षमा करें .......
मैने आपको पहचाना नही........बस एक ही बात कहूँगा मैं .....आज से इस रावण के आराध्य आप हैं ........आप - हे भूतभावन ! कृपा करो .........नेत्रों से झर झर आँसू बह रहे थे रावण के ।
ये लो ! मेरी प्रसादी .........एक चन्द्रहास नामक तलवार भगवान शिव नें रावण के हाथों में दिया था ...........और अंतर्ध्यान हो गए ।
हे रामप्रिया ! तब से रावण नें अपना आराध्य भगवान शिव को बना लिया है .........त्रिजटा नें ये घटना सुनाई......और वो चली गई थी .........वो अब जाके सोयेगी ..............।
मैं सोचती रही ..........रावण इतना बड़ा भक्त है फिर ये सब क्यों ?
लीला ! सब मेरे श्रीरघुनाथ जी की लीला है.....यही सोच रही थी मैं ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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