वैदेही की आत्मकथा - भाग 105

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 105 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही  !

उस दिन त्रिजटा रात भर मेरे पास ही बैठी रही  थी  ।

तपस्या  पूर्ण करके  जैसे ही   रावण  अपनें पिता विश्वश्रवा के पास आया.........तभी   एक आँधी सी चली .........त्रिजटा मुझे आगे का इतिहास बता रही थी  कि कैसे रावण नें  लंका प्राप्त किया ।

हे रामप्रिया !     रावण सोच रहा था कि  मेरी तपस्या से मेरे पिता प्रसन्न होंगें    पर  वो तो    कुछ आवाज हुयी ,  आँधी सी चली,   तो  तुरन्त बाहर आगये  और आकाश में देखनें लगे थे   बड़ी उत्सुकता से  ।

एक  सुन्दर सा   युवक    बड़ा वैभवशाली प्रतीत हो रहा था  वो. ..... उसका विमान बहुत सुन्दर था .......वो विमान से उतरा  और सीधे   ऋषि विश्वश्रवा के चरणों में वन्दन किया   ।

प्रसन्न रहो वत्स !     

 रावण देख रहा है .........मुझे तो कभी इस तरह आशीर्वाद दिया नही  मेरे पिता नें  ।

रावण उस  युवक का विमान देखनें लगा था ...................

 वत्स  रावण !    ये तुम्हारे भाई हैं ..........प्रणाम करो  ...

मेरे पिता जी नें मुझे आज्ञा दी    ।

मैं मुड़ा उसकी ओर..........रावण !  तुम लोकपाल बनना चाह रहे थे ना ........पर  ये तुम्हारा भाई लोकपाल है ........ धनाध्यक्ष  कुबेर ।

ये मेरा भाई है  ?   रावण  मन ही मन सोचता रहा .......पर पिता के कहनें के बाद भी  रावण  नें अपनें भाई कुबेर को प्रणाम नही किया ।

कुबेर  चला गया था ...........अपनें विमान में बैठकर   ।

रावण  विमान को देखता रहा  ......................

पिता जी !  इसका विमान बहुत अच्छा है  ...................

वत्स !   "इसका" नही  "इनका" ........ये  तुम्हारे बड़े भाई हैं .......तुमसे पहले  इनका जन्म  हुआ है ........ऋषि विश्वश्रवा नें कहा ।

पर रावण को  इन सब बातों से कोई लेना देना नही था ...........न उसनें    इन बातों पर कोई ध्यान ही दिया ..............

ये  गुफाओं में  या कुटिया में तो  नही रहते होंगें ?..............इस बार कुछ सम्मान से बोला था  कुबेर के लिए रावण  ।

ऋषि विश्वश्रवा हँसे ........लोकपाल है  ये ........तुम  देखोगे न  तो देखते रह जाओगे ...........इसकी अपनी नगरी है ........और  सम्पूर्ण नगरी सुवर्ण की है ......"लंका"   नाम है उस नगरी का ।

रावण   सोच रहा है ...............बिना कुछ बोले  बस सोच रहा है ।

क्या सोच रहे हो  पुत्र रावण !    सिर में हाथ फेरते हुए   ऋषि नें पूछा ।

मैं  कुबेर की लंका,    इस कुबेर से छिनूँगा  ........रावण नें स्पष्ट कहा ।

मूर्ख !   तेरा यही राक्षसी स्वभाव मुझे प्रिय नही हैं .......ऋषि रुष्ट हुए ।

 मैं कुबेर से  इसका "विमान पुष्पक" भी छिनूँगा  और इसकी लंका भी ।

रावण  को परवाह नही थी  अब कि   उसके पिता  क्या कहेंगें ! 

अगर रावण !   तुमनें ऐसा किया  तो  तुम्हारा  सर्वनाश निश्चित है .......क्रोध में भरकर   ऋषि विश्वश्रवा नें श्राप दे दिया था  ।

आप देवताओं के पक्षधर हैं.......मैं आपके साथ नही रह सकता ......रावण नें इतना कहा ......और  अपनें पिता को प्रणाम करना भी उचित नही समझा  और चला गया    वहाँ से  ।

त्रिजटा मुझे  ये सब सुना रही थी .....................

त्रिजटे !  फिर आगे क्या हुआ  ?

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हे  रामप्रिया !     रावण   समझ गया था  कि भारत के दक्षिण में   समुद्र के  सौ योजन दूर  सुवर्ण की लंका है .........पर   उसको जीतना ?  

ये इतना सरल तो नही है  !    रावण सोच ही रहा था कि ............

तुम कैकसी के पुत्र हो ?         राक्षससम्राट  सुमाली  रसातल से बाहर आगया था  , रावण को देखा  तो पूछ बैठा  ।

नही ..........हाँ ............दोनों ही बात बोला रावण  ।

क्या अर्थ समझूँ इसका   .....नही भी  और हाँ  भी  ?  सुमाली नें  रावण के कन्धे में हाथ मारते हुए पूछा था  ।

मेरी सौतली माँ हैं  कैकसी .........पर   मेरी सगी माँ से भी ज्यादा हैं ।

क्यों की  मेरी माँ नें कभी मेरा साथ नही दिया .....................वो सदैव पिता जी के  ही पक्ष में खड़ी रहती  हैं ......पर माँ   कैकसी ?  

मेरी  पुत्री है   कैकसी .....मै तुम्हारा नाना  हूँ .................

कुम्भकर्ण   आपसे मिलता तो बहुत प्रसन्न होता ....विभीषण भी .....

रावण नें कहा...........और  तुरन्त झुक कर  प्रणाम किया  सुमाली को रावण नें   ।      सुमाली  अपनें राज्य में ले आया था  रावण को  ।

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मैं  कुबेर की  सुवर्ण नगरी लंका ,  उससे  छीनना चाहता हूँ ............

सुमाली नें रावण के मुख से जैसे ही ये सब सुना .........उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नही था  ।

हम सब  राक्षस तुम्हारे साथ हैं ...........सुमाली नें  रावण का साथ  देनें की घोषणा कर दी   ........जिससे   राक्षस समाज   प्रसन्नता का अनुभव करनें लगा  था   ..............।

रणनीति के तहत     रावण नें  लंका में आक्रमण कर दिया .........

त्रिजटा मुझे बता रही थी .............कुबेर के जितनें यक्ष थे   वो सब अपनें प्राण बचाकर भाग खड़े हुए.............रावण का रौद्र रूप पहली बार विश्व् नें  देखा था...........हे रामप्रिया !     कुबेर भाग रहा था  अपनें उस सुन्दर  पुष्पक विमान में बैठकर.......रावण का मन उस विमान में था ........रावण  दौड़ा  विमान के पीछे ........

कुबेर नें जब देखा  रावण अगर मेरे पास पहुँच गया  तो ये मुझे आज जिन्दा नही छोड़ेगा.......तुरन्त  कुबेर  विमान को छोड़कर  भाग गया ।

रावण हँसता रहा ............कुबेर को इस तरह भागा हुआ देखकर ।

कुम्भकर्ण को बुलवा लिया था  लंका में ही रावण नें .........और  मेरे पिता  विभीषण को  भी ......त्रिजटा नें कहा ।

नाना जी !   ये  तो हमारे किसी काम का नही है ..........मेरे पिता  विभीषण के लिए  बोला था रावण...सुमाली से ......क्यों की वो  विशुद्ध  शान्ति प्रिय है   ।

वैसे तो ये भी हमारे किसी काम का नही है ......क्यों कुम्भकर्ण  ?

कुम्भकर्ण के ही कन्धे में  हाथ मारते हुये   बोला था रावण ।

भैया !  मुझे भूख लगी है ....................कुम्भकर्ण नें कहा  ।

नही  नही -    कुम्भकर्ण !   राक्षसों को मत खाना ........मैं  तुम्हारे लिये ऋषि मुनियों  का कोमल कोमल माँस मंगवाता हूँ...   रावण ने कहा.......और उसनें मंगवाया ........उसके  लोग अब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैलनें लगे थे ।

कुम्भकर्ण तो सो गया .........वो  6 महिनें सोता ही था  ...........और मेरे पिता विभीषण  तो शान्ति प्रिय थे ........वो एकान्त में ही रहते थे  .....अभी भी हम लोग एकान्त में ही रहते हैं  ।

पर  रावण नें  चारों और त्राहि त्राहि मचा दी थी .........त्रिजटा नें कहा ।

शेष चरित्र कल .............

Harisharan

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