आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 91 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
लक्ष्मण ! तुम वैदेही को लेकर फिर गुफा में चले जाओ ......राक्षसों का समूह फिर आगया है ............मेरे श्रीराम शीघ्रता में बोले थे ।
लक्ष्मण और हम गुफा की ओर दौड़े .........मैं गुफा में भीतर जाकर बैठ गयी थी ........और लक्ष्मण बाहर धनुष को सम्भाले सावधान की मुद्रा में फिर खड़े हो गए थे ।
मारो ! काटो ! ..................यही आवाज आरही थी बार बार .......वो सेना इस बार हजारों की संख्या में आरही थी .........मैं गुफा के एक छिद्र से बाहर देखनें का प्रयास कर रही थी.......सेना हजारों की संख्या में थी ...किसी के हाथों में भाले, तो किसी के हाथों में तलवार थे......
वो सब मेरे श्रीराम के ऊपर टूट पड़े थे .............।
मैने अपनें श्रीराम को देखा, घबड़ाई हुयी थी मैं ...........पर मेरे श्रीराम शान्त और गम्भीर मुद्रा में खड़े थे .....अपनी ओर आते जैसे ही देखा श्रीराम नें राक्षसों को .........एक बाण सारंग धनुष में लगाकर छोड़ दिया था ....
राक्षस लोग तो उल्टे पैर पीछे की और भागनें लगे थे ..............
क्यों की मेरे श्रीराम नें एक बाण छोड़ा था ......पर देखते ही देखते वो एक बाण पाँच हो गया ......पाँच का दस दस का सौ ..सौ का हजार ....हजार का लाख ......लक्ष लक्ष बाणों की वर्षा से राक्षसों में हाहाकार मचा दिया था मेरे श्रीराम नें ।
भागो ! ये कोई इंद्र जाल जानता है ..................दूषण नें कहा ।
खर गम्भीर होकर बोला .......नही .....कोई नही भागेगा .......सामना करो शत्रु का ................
देखो सामनें .......... फिर हजारों की संख्या में सेना वहाँ आचुकी थी.....और इस "राक्षसी सेना" को लानें वाला खर दूषण का ही भाई त्रिशिरा था .......................
मैं डर गयी थी ..........अब मेरे श्रीराम क्या करेंगें ?
उन राक्षसी सेना से उड़नें वाली धूल आकाश में छा गयी थी ......मैं जिस गुफा के छिद्र से देख रही थी ............वहाँ से मेरे श्रीराम दीखनें बन्द हो गए थे .......मैं घबड़ाई ........लक्ष्मण ! मै चिल्लाई ...........तुम्हारे भैया नही दिखाई दे रहे ................पर शायद मेरी बात लक्ष्मण नें बाहर सुनी नही ........क्यों की काटो ! मारो ! की आवाज ही इतनी तेज़ आरही थी .................।
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कुछ समय तक मैं परेशान रही .....गुफा के ही संकीर्ण क्षेत्र में इधर उधर घूमती रही .......................
फिर मैने बाहर देखनें का प्रयास किया ...............तो मैं चौंक गयी थी ...ये क्या राक्षस क्या पगला गए थे ...........जो आपस में ही लड़ रहे थे ............एक दूसरों को ही काट रहे थे तलवारों से ......मैं देखती रही .....और इतना ही नही ...............ये राक्षस लोग तो वृक्षों को भी काटनें लगे थे .........हवा में ही तलवार चलानें लगे थे ........
फिर मैने अपनें श्रीराम को ढूढ़ा .......वो दूर खड़े ........... देख रहे हैं ...शान्त भाव से देख रहे हैं ।
घड़ी भर बाद ही सब कुछ खतम हो गया था वहाँ ...........हजारों राक्षस मरे पड़े थे ..........सब को मेरे श्रीराम ने मार गिराया था ।
पर ........मैं सोच ही रही थी कि .....तभी मेरे ध्यान में आया .......ओह ! मेरे श्रीराम नें ऐसा बाण चलाया कि उन्हें हर जगह राम ही दिखाई दिए थे ...............एक दूसरे को राम दिखाई दे रहे थे ..............इसलिये तो आपस में ही मार काट मचाकर सब मृत्यु के गाल में समा गए ।
लक्ष्मण ! वैदेही को गुफा से बाहर ले आओ ........तुम दोनों आजाओ अब कुटिया में ...............
मेरे श्रीराम नें हम को पुकारा था ......मैं बाहर आयी गुफा से ......
मैने देखा ......मेरे श्रीराम के अंगों से पसीनें बह रहे थे ..... मैने पोंछे .....मै घबडा गयी ........कुछ रक्त की बुँदे भी मुझे नाथ के शरीर में दिखाई दिए ......मैंनें जैसे ही उन्हें छूए .............नही प्रिये ! ये शत्रु के रक्त उछल कर मेरे देह में गिर गए थे ........तुम क्या सोच रही थीं ?
मै अपनें श्रीराम के हृदय से लग गयी...और कुछ देर तक लगी रही थी ।
शेष चरित्र कल......
Harisharan
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