आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 90 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
लक्ष्मण ! तुम मेरी बात मानों और अपनी भाभी माँ को सामनें वाली गुफा में ले जाओ ..........मुझे लगता है सूर्पनखा अपनें भाइयों को लेकर आगयी है ....................मेरे श्रीराम नें लक्ष्मण से कहा ।
हमारे लिये युद्ध मुख्य नही है .......सीता की रक्षा ये मुख्य है ।
लक्ष्मण नें सिर झुकाया और मुझे चलनें के लिये कहा .......मैने अपनें श्रीरघुनाथ जी को देखा ........उन्होंने मुझे जानें के लिये कहा .....मैं चल दी थी ............।
पर गुफा में जाते जाते .........मैने देखा ....राक्षसों की भीड़ दौड़ रही थी मेरे श्रीराम की ओर .....................।
मै गुफा से देख रही थी .........लक्ष्मण धनुष को चढ़ा कर ही खड़े थे ।
आगे वही सुपर्णखा चल रही थी ..........उसके कटे नाक से अभी भी रक्त गिर रहा था ........वो कभी अपनें रक्त को पोंछ रही थी .......तो कभी सर्पिणी की तरह क्रोध में जल्दी जल्दी स्वांस ले रही थी ।
बता बहना ! कौन है जिसनें तेरी ये दशा बनाई ?
खर दूषण नें अपनी बहन से पूछा था ।
अपने हाथों के इशारे से सुपर्णखा नें मेरे श्रीराम को दिखाया ।
यही है वो जिसनें तुम्हारी बहन की ऐसी स्थिति बना दी ।
पर .............जैसे ही खर दूषण नें मेरे श्रीराम को देखा......वह तो सब कुछ भूल गया था .........
आहा ! नील नीरधर श्याम ..........क्यों आई थी तू इनके पास ?
थोड़ी तेज़ आवाज में सूर्पनखा से पूछा ।
अपनें भाई दशानन के लिये पत्नी ढूंढनें............भाई खर ! दूषण !
इनकी पत्नी बहुत सुन्दर है ........मैं सच कह रही हूँ ..............इसलिये तो मैं अपनें भाई रावण का विवाह इसकी सुन्दरी से करवाना चाहती थी .....मैं इसी लिये यहाँ आई थी ...................
पर ये राजकुमार तो बहुत सुन्दर हैं !
खर दूषण मोहित हो रहे थे श्रीराम के ऊपर ।
बहना ! मैं इनको मारकर सृष्टि का सर्वोत्तम सौंदर्य का उदाहण नष्ट नही करना चाहता....तुम जिद्द छोड़ दो ...दूषण नें समझाया था ।
क्यों डर रहे हो ! मै तो तुम सबको वीर समझती थी ......मैं तो समझती थी कि तुम खर दूषण मेरे भाई रावण के समान ही शक्तिशाली हो ........पर मैं गलत थी.........कोई बात नही तुम नही लड़ सकते तो मुझे कह दो ...........मैं चली जाती हूँ लंका ।
ये बातें चिल्लाकर बोली थी सूर्पनखा ।
ये सुनकर खर दूषण क्रोध में आगये.........कोई आवश्यक नही है लंकेश के पास जानें की .........हम हैं अभी ............
इतना कहकर खरदूषण चिल्लाये .............
हे राजकुमारों ! पंचवटी छोड़कर चले जाओ .............नही तो मरनें के लिये तैयार हो जाओ ....................और हाँ जाते जाते अपनी स्त्री को भी छोड़ कर चले जाओ ........अन्यथा हम तुम्हारे टुकड़े टुकड़े करके चील गिद्धों को खिला देंगें.................
मैं ये सब देख सुन रही थी..........मैने देखा - गुफा के बाहर लक्ष्मण धनुष सम्भाले खड़े थे सावधान की मुद्रा में ।
मैने गुफा के बाहर देखा ............मैं अपनें श्रीराम को देख रही थी ...........मैनें देखा - शान्त भाव से गम्भीर मुद्रा में दक्षिण हाथ में धनुष चढ़ाये राक्षसों के उस समूह को ही देख रहे थे ।
भाभी माँ ! आप गुफा में ही रहें अभी ...............मुझे बाहर भी देखनें से लक्ष्मण नें मना कर दिया था ....मैं भीतर हो गयी थी ।
मुझे तो मेरे श्रीराम की छबि हृदय पटल पर बस गयी थी ...........गम्भीर मुद्रा में राक्षसों की सेना को ऐसे देख रहे थे मेरे श्रीराम .....जैसे आक्रमण को तैयार वनराज सिंह हाथियों के समूह को देखता है ।
यही छबि मुझे बार बार याद आती थी ..........लंका में भी युद्ध जब चल रहा था मेरे श्रीराम और रावण का ........उस समय भी यही मुद्रा, यही छबि .......मुझे याद आती रही .............।
सुना नही क्या ! राजकुमार ! अपनी पत्नी को यहाँ छोड़ कर तुम दोनों भाई चले जाओ .......नही तो मारे जाओगे !
फिर खर दूषण चिल्लाये ।
तुमनें हमारी बहन को विरूप कैसे किया ?
क्या तुम जानते नही हो ये राक्षस राज रावण की बहन है ........हमारी भी बहन है ................जिसके ऐसे ऐसे भाई हों उसके साथ तुमनें ऐसा बर्ताब किया .............।
बताओ कहाँ है तुम्हारी पत्नी ? खरदूषण चिल्लाये ...............
और हमारी गुफा की और बढ़नें लगे थे ..................
लक्ष्मण नें एक बाण चलाया .............बस एक बाण ..........वो बाण अग्नि उगल रही थी .......................सूर्पनखा तो भागी ..............उस आग को देखते ही .........खर दूषण नें जब देखा की इतनी कम सेना से हम इन राजकुमारों का सामना नही कर सकते ......तब खरदूषण भागे अपनी पूरी सेना लेंने के लिये .............।
मेरे श्रीराम हँसे थे .......जब ये लोग भाग रहे थे ...........
राक्षसों ! हम क्षत्रिय हैं ......हम आर्य हैं ........हम भागते डरते शत्रु पर भी शस्त्र प्रहार नही करते .............और सुनो ! राक्षसों ! राम तुम सबको इस बार तो क्षमा कर रहा है ....पर अब तुमनें इन पवित्र ऋषि मुनियों को कष्ट पहुँचाया ......तो ये राम तुम्हे भागनें का अवसर भी नही देगा ..........फिर तुम्हारा दण्ड होगा ...मृत्यु दण्ड .............गम्भीर ध्वनि ....आकाश की तरह गम्भीर ध्वनि ..........मेरे श्रीराम की पूरे दंडकारण्य में गूँजी थी.............पर मेरे श्रीराम की आवाज से पक्षी भागे नही .........बल्कि वो तो सब चहक उठे थे .............
जब सब चले गए तब मैं गुफा से नीचे उतरी थी ............
लक्ष्मण ! अब हमें हर समय सावधान रहनें की आवश्यकता है ........क्यों की राक्षस वर्ग हमसे से चिढ चुका है ।
मेरे श्रीराम इतना ही बोले थे कि........सामनें फिर धूल उड़ती हुयी और हल्ला करती हुयी, राक्षसों की भीड़ आती हुयी दिखाई दी ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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